मैंने सुबह सात बजे एक सज्जन को फोन किया, तो पता लगा कि टॉयलेट में हैं, आठ बजे किया तो पता चला कि पूजा पर बैठे हैं, नौ बजे भी पूजा पर ही, दस बजे भी पूजा पर ही. खिसियाकर मैंने उसके बाद कोशिश ही नहीं की. मेरे माध्यम से उन्हें एक लंबा फायदा होनेवाला था जो शायद उनकी जिन्दगी ही बदल देता, जिससे वे चूक गये. बाद में पता लगा कि अपनी विपन्नता से त्राण पाने के लिये वे नवरात्र के दौरान नौ दिन देवी-पाठ में लगे रहे. आज चार साल बाद भी वे उसी स्थिति में हैं जबकि हर साल दुर्गापूजा के समय वे इसी प्रकार विशेष रूप से दुर्गाजी की आराधना करते रहे. ऐसा कोई त्योहार नहीं है जो उनका परिवार धूमधाम से न मनाता हो. उनके जैसे अधिकांश लोग विपन्नता के इसी मकड़जाल में फंसे हैं.
ऐसे लोग समझ ही नहीं पाते कि हर धार्मिक, पारिवारिक और सामाजिक उत्सव अमीरों के लिये तो मौज मस्ती और शान दिखाने का मौका लेकर आता है, लेकिन गरीबों के लिये कमर तोड़नेवाले खर्चों की नयी फेहरिश्त तैयार कर देता है. गरीबों का तो वैसे भी कोई बजट नहीं होता. आज कमाया आज ही खर्च हो गया, पूरा नहीं पड़ा तो कर्ज ले लिया. बच्चों के कपड़ों के लिये पैसे न हों, चल जाएगा, उन्हें अच्छे स्कूल में भेजने की सामर्थ्र्य न हो, किताब-कॉपी खरीदने की ताकत न हो, कोई चिंता नहीं, लेकिन त्योहारों पर घर आए मेहमानों के स्वागत में कोई कमी न रह जाए, भले ही कर्ज लेना पड़े, अन्यथा बिरादरी में नाक कट जायेगी.
जाड़ा, गर्मी, बरसात, हेमंत,शिशिर,वसंत ;अपने देश में हमेशा त्योहारों का ही मौसम रहता है कह सकते हैं कि अपना देश तो त्योहारों का ही देश है, मौज मस्ती का देश है, “ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत” सिद्धांत माननेवालों का देश है. 365 दिन 400 त्योहारों का देश है. करीब- करीब हर दिन एक त्योहार, यदि त्योहार नहीं है, तो परिवार का ही कोई उत्सव होगा, परिवार में नहीं तो रिश्तेदार के यहाँ उत्सव, वो भी नहीं तो मित्रों के घर पर : छठ्ठी, मुंडन, कनछेदन, विवाह, गौना, गृह प्रवेश और इसमें यदि आजकल मनाए जानेवाले जन्मदिन, शादी की सालगिरह, सिल्वर, गोल्डेन और प्लैटिनम जुबली आदि को जोड़ दिया जाये तो पूरी लिस्ट हनुमान पूँछ ही बन जाएगी. त्योहारों का मतलब ही है छुट्टियाँ, छुट्टियों का मतलब है मौज- मस्ती और खर्च. और, इन सभी बातों का मतलब है गरीब को गरीब बनाए रखना. जिन लोगों के लिये दो वक्त की रोटी कमाना भी मुश्किल होता है, वे भी खर्च करके त्योहार मनाना जरूरी समझने लगते हैं, पारिवारिक उत्सवों में कोई कमी न रहे, भले ही कर्ज लेना पड़े. शायद इसीलिये मार्क्स ने धर्म को गरीबों के लिये अफीम कहा था.
अपना देश भी विचित्र है, अनेकता में एकतावाला, बहुसंस्कृति वाला, बहुत से धर्म –संप्रदायों वाला. हिन्दू त्योहारों की, उत्सवों की कमी तो कभी थी ही नहीं, उस लिस्ट में यहीं विकसित बौद्ध, जैन, सिख धर्मों के त्योहार, बाहर से आकर बसनेवाले पारसी, मुस्लिम और ईसाई धर्मों के भी त्योहार जुड़ते गये. लोग अपने घरों में व्यक्तिगत रूप से उत्सव मनाएं , कोई बात नहीं, लेकिन आज तो हर त्योहार सार्वजनिक स्थलों पर मनाने की होड़ मच गयी है. दुर्गा पूजा, दशहरा, काली पूजा, सरस्वती पूजा,
गणेश पूजा, विश्वकर्मा पूजा, होली , दीवाली, रामनवमी, जन्माष्टमी, मकर संक्रांति, छठव्रत, कुंभ-अर्धकुंभ-महाकुंभ,स्थानीय मेले...... त्योहारों और मेलों की यह लिस्ट अनंत है. महापुरुषों की जयंतियाँ मनाने की बात आयी तो, हर समुदाय-धर्म के अवतारों और महापुरुषों के नाम आगे आते गये और छुट्टियों की सूची लंबी होती गयी. काम न करने के अनेक बहाने, ऊपर से अँग्रेजों ने सालभर में 52 रविवारों की छुट्टियाँ और जोड़ दीं, राजीव गाँधी प्रधानमंत्री बने और सप्ताह पाँच दिनों का हो गया.जिन्हें सरकारी नौकरी मिली हुई है, उनके लिये तो तनख्वाह निश्चित है, छुट्टियां कम हों या अधिक, कोई अंतर नहीं पड़ता. बाकी रोज की आमदनी पर जिन्दा लोग यदि काम कम करेंगे तो आमदनी भी तो कम होगी.
त्योहार हों, या पारिवारिक उत्सव या फिर मेले – पैसेवालों के लिये ये सब आते हैं मस्ती के लिये, अपनी शान दिखाने के लिये, समाज में अपनी धाक जमाने के लिये. उनके दिखावे और फिजूलखर्ची की नकल करते हैं गरीब. नकल करनी पड़ती है, वरना लोग गरीब समझ लेंगे, इज्जत नहीं देंगे, लड़कों –लड़कियों के लिये अच्छे रिश्ते नहीं आयेंगे. कभी-कभी तो यह धारणा पक्की होने लगती है कि ये त्योहार बड़े लोगों की साजिश हैं, ताकि गरीब लोग इनमें उलझे रहें. एक त्योहार या उत्सव को गरीब आदमी कर्ज वगैरह लेकर किसी तरह सलटावे कि दूसरा सिर पर आ जाये. पहला कर्ज चुकता हुआ नहीं कि दूसरे कर्ज की भूमिका बनने लगी. कर्ज और ब्याज बढ़ता जाये इतना कि घर और जमीन बिक जाए.
चलिये माना कि कर्ज नहीं लिया, पर जो भी बचाया सब पर्व- त्योहार मनाने पर स्वाहा कर दिया, न तो कभी पूंजी खड़ी हो पाएगी, न बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिये धन का प्रबंध हो पाएगा. कोई भी व्यक्ति ऊपर उठ सकता है या तो उसकी बड़ी ळॉटरी खुल जाए, या छल –फरेब से धन आ जाए, लेकिन यह सभी के वश में नहीं. दूसरा रास्ता है पेट काटकर, खर्चे कम करके थोड़े –थोड़े पैसे बचाकर पूंजी बनाए और उससे व्यापार करके धीरे धीरे संपन्न हो. तीसरा रास्ता है कड़ी मेहनत करके अच्छी और सही प्रोफेशनल शिक्षा प्राप्त करे और उसकी सीढ़ियां चढ़कर ऊपर उठे. यहां पढ़ाई का मतलब सिर्फ बी.ए., एम. ए. या ऐसी ही कोई डिग्री ले लेना नहीं, प्रोफेशनल डिग्री का मतलब है इंजीनियरिंग, मेडिकल, सी.ए. या फिर किसी बड़े इंस्टीट्यूट से एम.बी.ए. आदि करना. इसके लिये बचपन से ही तपस्या करनी पड़ती है, बच्चों के साथ साथ उनके मां-बाप को भी. सिनेमा देखना बंद, टी.वी. बंद, रिश्तेदारों का आना जाना बंद, मित्रों के यहां आना-जाना बंद, पर्व त्योहार मनाना बंद, पूजा पाठ एवं गप शप पर समय कम से कम, तब जाकर सफलता मिलती है. अभिभावक यदि खुद टी. वी. पर अपने मनपसंद सीरियल देख रहे हों और बीच बीच में बच्चों को हांकते हों- “पढ़ो , रे पढ़ो” तो ऐसे बच्चों से उम्मीद करना रेत में किले बनाना है.
लेकिन अधिकांश लोग ताबड़तोड़ एक के बाद एक त्योहार मनाते रहते हैं, पारिवारिक उत्सव आयोजित करते रहते हैं, किसी न किसी बहाने समाज को साल दो साल में सामुदायिक भोज देते रहते हैं, फलस्वरूप हमेशा आर्थिक तंगी में घिरे रहते हैं, कर्ज लेते रहते हैं और मकान-जमीन बेचते रहते हैं. इस चक्रव्यूह में इतना उलझ जाते हैं कि कभी अपनी खराब स्थिति का बोध भी न होता, कभी व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत ही नहीं होती, और न कभी इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने की सोचने का समय ही निकाल पाते हैं. यही तो है साजिश जो बड़ी चालाकी से त्योहारों के माध्यम से रची गयी है.
एक बात पक्की है कि यदि कोई परिवार आर्थिक रूप से ऊपर उठना चाहता है तो कुछ वर्षों के लिये उसे नाते –रिश्तेदारों को, तीज - त्योहार और उत्सवों को भूल जाना चाहिये, “लोग क्या कहेंगे” की चिंता एकदम छोड़ देनी चाहिये. हम यदि कोई अनैतिक काम नहीं कर रहे तो लोगों द्वारा आलोचना की फिक्र क्यों करें. मित्रों और रिश्तेदारों से कटे रहें, लेकिन मिलने पर उनके साथ विनम्र और अच्छा आचरण करें, उतना ही काफी है. धनिकों की नकल करते हुए दिखावे और फिजूलखर्ची से सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने की कोशिश नहीं करनी चाहिये.
परिवार के बड़ों को, विशेष तौर पर महिलाओं को चाहिये कि दिनरात बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान दें, उनके साथ- साथ खुद भी पढ़ने की कोशिश करें. अन्यथा बच्चे किताब लेकर बैठे दिनभर रहेंगे, दिमाग में कुछ न जाएगा. घर पर पढ़ने का माहौल बनाएं, बच्चों की पढ़ाई पर ही समय और पैसे लगाएं, न कि पूजा पाठ और त्योहारों पर समय तथा धन खर्च करें. परिवार के एक बड़े बच्चे ने भी ठीक से पढ़ाई कर ली तो उसके सभी छोटे भाई -बहन उसका अनुकरण करके आगे निकल जाएंगे. मैंने अनगिनत परिवारों को इसी रास्ते ऊपर उठते देखा है. शुरू-शुरू में लोग उनकी बुराई करते हैं, असामाजिक घोषित कर मजाक उड़ाते हैं, बाद में उसी परिवार के ऊपर उठ जाने पर उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते, उनसे संबंध जोड़ने को लालायित रहते हैं, उन्हें पूरा सम्मान देते हैं. यदि ऊपर उठना है तो तकदीर का रोना मत रोइए और व्यवस्था को दोष देने में समय बर्बाद मत कीजिए. ऊपर उठने का रास्ता चुनिए और डटकर उसपर चलिए. वरना त्योहारों के बीजगणित की अज्ञात गुत्थियों में उलझकर गरीबी और संपन्नता की समानांतर रेखाएं बस ऐसी ही चलती रहेंगी, कभी मिल नहीं पाएंगी.
ऐसे लोग समझ ही नहीं पाते कि हर धार्मिक, पारिवारिक और सामाजिक उत्सव अमीरों के लिये तो मौज मस्ती और शान दिखाने का मौका लेकर आता है, लेकिन गरीबों के लिये कमर तोड़नेवाले खर्चों की नयी फेहरिश्त तैयार कर देता है. गरीबों का तो वैसे भी कोई बजट नहीं होता. आज कमाया आज ही खर्च हो गया, पूरा नहीं पड़ा तो कर्ज ले लिया. बच्चों के कपड़ों के लिये पैसे न हों, चल जाएगा, उन्हें अच्छे स्कूल में भेजने की सामर्थ्र्य न हो, किताब-कॉपी खरीदने की ताकत न हो, कोई चिंता नहीं, लेकिन त्योहारों पर घर आए मेहमानों के स्वागत में कोई कमी न रह जाए, भले ही कर्ज लेना पड़े, अन्यथा बिरादरी में नाक कट जायेगी.
जाड़ा, गर्मी, बरसात, हेमंत,शिशिर,वसंत ;अपने देश में हमेशा त्योहारों का ही मौसम रहता है कह सकते हैं कि अपना देश तो त्योहारों का ही देश है, मौज मस्ती का देश है, “ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत” सिद्धांत माननेवालों का देश है. 365 दिन 400 त्योहारों का देश है. करीब- करीब हर दिन एक त्योहार, यदि त्योहार नहीं है, तो परिवार का ही कोई उत्सव होगा, परिवार में नहीं तो रिश्तेदार के यहाँ उत्सव, वो भी नहीं तो मित्रों के घर पर : छठ्ठी, मुंडन, कनछेदन, विवाह, गौना, गृह प्रवेश और इसमें यदि आजकल मनाए जानेवाले जन्मदिन, शादी की सालगिरह, सिल्वर, गोल्डेन और प्लैटिनम जुबली आदि को जोड़ दिया जाये तो पूरी लिस्ट हनुमान पूँछ ही बन जाएगी. त्योहारों का मतलब ही है छुट्टियाँ, छुट्टियों का मतलब है मौज- मस्ती और खर्च. और, इन सभी बातों का मतलब है गरीब को गरीब बनाए रखना. जिन लोगों के लिये दो वक्त की रोटी कमाना भी मुश्किल होता है, वे भी खर्च करके त्योहार मनाना जरूरी समझने लगते हैं, पारिवारिक उत्सवों में कोई कमी न रहे, भले ही कर्ज लेना पड़े. शायद इसीलिये मार्क्स ने धर्म को गरीबों के लिये अफीम कहा था.
अपना देश भी विचित्र है, अनेकता में एकतावाला, बहुसंस्कृति वाला, बहुत से धर्म –संप्रदायों वाला. हिन्दू त्योहारों की, उत्सवों की कमी तो कभी थी ही नहीं, उस लिस्ट में यहीं विकसित बौद्ध, जैन, सिख धर्मों के त्योहार, बाहर से आकर बसनेवाले पारसी, मुस्लिम और ईसाई धर्मों के भी त्योहार जुड़ते गये. लोग अपने घरों में व्यक्तिगत रूप से उत्सव मनाएं , कोई बात नहीं, लेकिन आज तो हर त्योहार सार्वजनिक स्थलों पर मनाने की होड़ मच गयी है. दुर्गा पूजा, दशहरा, काली पूजा, सरस्वती पूजा,
गणेश पूजा, विश्वकर्मा पूजा, होली , दीवाली, रामनवमी, जन्माष्टमी, मकर संक्रांति, छठव्रत, कुंभ-अर्धकुंभ-महाकुंभ,स्थानीय मेले...... त्योहारों और मेलों की यह लिस्ट अनंत है. महापुरुषों की जयंतियाँ मनाने की बात आयी तो, हर समुदाय-धर्म के अवतारों और महापुरुषों के नाम आगे आते गये और छुट्टियों की सूची लंबी होती गयी. काम न करने के अनेक बहाने, ऊपर से अँग्रेजों ने सालभर में 52 रविवारों की छुट्टियाँ और जोड़ दीं, राजीव गाँधी प्रधानमंत्री बने और सप्ताह पाँच दिनों का हो गया.जिन्हें सरकारी नौकरी मिली हुई है, उनके लिये तो तनख्वाह निश्चित है, छुट्टियां कम हों या अधिक, कोई अंतर नहीं पड़ता. बाकी रोज की आमदनी पर जिन्दा लोग यदि काम कम करेंगे तो आमदनी भी तो कम होगी.
त्योहार हों, या पारिवारिक उत्सव या फिर मेले – पैसेवालों के लिये ये सब आते हैं मस्ती के लिये, अपनी शान दिखाने के लिये, समाज में अपनी धाक जमाने के लिये. उनके दिखावे और फिजूलखर्ची की नकल करते हैं गरीब. नकल करनी पड़ती है, वरना लोग गरीब समझ लेंगे, इज्जत नहीं देंगे, लड़कों –लड़कियों के लिये अच्छे रिश्ते नहीं आयेंगे. कभी-कभी तो यह धारणा पक्की होने लगती है कि ये त्योहार बड़े लोगों की साजिश हैं, ताकि गरीब लोग इनमें उलझे रहें. एक त्योहार या उत्सव को गरीब आदमी कर्ज वगैरह लेकर किसी तरह सलटावे कि दूसरा सिर पर आ जाये. पहला कर्ज चुकता हुआ नहीं कि दूसरे कर्ज की भूमिका बनने लगी. कर्ज और ब्याज बढ़ता जाये इतना कि घर और जमीन बिक जाए.
चलिये माना कि कर्ज नहीं लिया, पर जो भी बचाया सब पर्व- त्योहार मनाने पर स्वाहा कर दिया, न तो कभी पूंजी खड़ी हो पाएगी, न बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिये धन का प्रबंध हो पाएगा. कोई भी व्यक्ति ऊपर उठ सकता है या तो उसकी बड़ी ळॉटरी खुल जाए, या छल –फरेब से धन आ जाए, लेकिन यह सभी के वश में नहीं. दूसरा रास्ता है पेट काटकर, खर्चे कम करके थोड़े –थोड़े पैसे बचाकर पूंजी बनाए और उससे व्यापार करके धीरे धीरे संपन्न हो. तीसरा रास्ता है कड़ी मेहनत करके अच्छी और सही प्रोफेशनल शिक्षा प्राप्त करे और उसकी सीढ़ियां चढ़कर ऊपर उठे. यहां पढ़ाई का मतलब सिर्फ बी.ए., एम. ए. या ऐसी ही कोई डिग्री ले लेना नहीं, प्रोफेशनल डिग्री का मतलब है इंजीनियरिंग, मेडिकल, सी.ए. या फिर किसी बड़े इंस्टीट्यूट से एम.बी.ए. आदि करना. इसके लिये बचपन से ही तपस्या करनी पड़ती है, बच्चों के साथ साथ उनके मां-बाप को भी. सिनेमा देखना बंद, टी.वी. बंद, रिश्तेदारों का आना जाना बंद, मित्रों के यहां आना-जाना बंद, पर्व त्योहार मनाना बंद, पूजा पाठ एवं गप शप पर समय कम से कम, तब जाकर सफलता मिलती है. अभिभावक यदि खुद टी. वी. पर अपने मनपसंद सीरियल देख रहे हों और बीच बीच में बच्चों को हांकते हों- “पढ़ो , रे पढ़ो” तो ऐसे बच्चों से उम्मीद करना रेत में किले बनाना है.
लेकिन अधिकांश लोग ताबड़तोड़ एक के बाद एक त्योहार मनाते रहते हैं, पारिवारिक उत्सव आयोजित करते रहते हैं, किसी न किसी बहाने समाज को साल दो साल में सामुदायिक भोज देते रहते हैं, फलस्वरूप हमेशा आर्थिक तंगी में घिरे रहते हैं, कर्ज लेते रहते हैं और मकान-जमीन बेचते रहते हैं. इस चक्रव्यूह में इतना उलझ जाते हैं कि कभी अपनी खराब स्थिति का बोध भी न होता, कभी व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत ही नहीं होती, और न कभी इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने की सोचने का समय ही निकाल पाते हैं. यही तो है साजिश जो बड़ी चालाकी से त्योहारों के माध्यम से रची गयी है.
एक बात पक्की है कि यदि कोई परिवार आर्थिक रूप से ऊपर उठना चाहता है तो कुछ वर्षों के लिये उसे नाते –रिश्तेदारों को, तीज - त्योहार और उत्सवों को भूल जाना चाहिये, “लोग क्या कहेंगे” की चिंता एकदम छोड़ देनी चाहिये. हम यदि कोई अनैतिक काम नहीं कर रहे तो लोगों द्वारा आलोचना की फिक्र क्यों करें. मित्रों और रिश्तेदारों से कटे रहें, लेकिन मिलने पर उनके साथ विनम्र और अच्छा आचरण करें, उतना ही काफी है. धनिकों की नकल करते हुए दिखावे और फिजूलखर्ची से सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने की कोशिश नहीं करनी चाहिये.
परिवार के बड़ों को, विशेष तौर पर महिलाओं को चाहिये कि दिनरात बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान दें, उनके साथ- साथ खुद भी पढ़ने की कोशिश करें. अन्यथा बच्चे किताब लेकर बैठे दिनभर रहेंगे, दिमाग में कुछ न जाएगा. घर पर पढ़ने का माहौल बनाएं, बच्चों की पढ़ाई पर ही समय और पैसे लगाएं, न कि पूजा पाठ और त्योहारों पर समय तथा धन खर्च करें. परिवार के एक बड़े बच्चे ने भी ठीक से पढ़ाई कर ली तो उसके सभी छोटे भाई -बहन उसका अनुकरण करके आगे निकल जाएंगे. मैंने अनगिनत परिवारों को इसी रास्ते ऊपर उठते देखा है. शुरू-शुरू में लोग उनकी बुराई करते हैं, असामाजिक घोषित कर मजाक उड़ाते हैं, बाद में उसी परिवार के ऊपर उठ जाने पर उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते, उनसे संबंध जोड़ने को लालायित रहते हैं, उन्हें पूरा सम्मान देते हैं. यदि ऊपर उठना है तो तकदीर का रोना मत रोइए और व्यवस्था को दोष देने में समय बर्बाद मत कीजिए. ऊपर उठने का रास्ता चुनिए और डटकर उसपर चलिए. वरना त्योहारों के बीजगणित की अज्ञात गुत्थियों में उलझकर गरीबी और संपन्नता की समानांतर रेखाएं बस ऐसी ही चलती रहेंगी, कभी मिल नहीं पाएंगी.
I m inspired of you(Uncle).
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