हर वर्ष की तरह इस बार भी रैगिंग के कारण हुई मौतें मीडिया में उजागर हुईं तो पुनः रैगिंग की बुराइयों पर चर्चा चल पड़ी.एक लड़की को हेयर डाई पीनी पड़ी, अस्पताल में मौत से जूझ रही है. सैकड़ों घटनाओं की तो रिपोर्टिंग ही नहीं हो पाती. हर साल इंजीनियरिंग, एवं अन्य प्रोफेशनल कॉलेजों में जब नये छात्र प्रवेश करते हैं, तो पुराने सीनियर छात्र उन्हें नये माहौल में ढालने के नाम पर उनकी रैगिंग करते हैं. ये सीनियर छात्र अलग अलग ग्रुप में नये छात्रों को घेर कर ऊटपटांग सवाल करते हैं, ऊलजलूल हरकतें करवाते हैं. गालीगलौज और अश्लील बातें करके नये छात्रों को मानसिक और शारीरिक यंत्रणा देने में ही उन्हें आनंद आता है. अपने कपड़े साफ करवाना, झाड़ू दिलवाना, गर्म चाय एक घूंट में पिलाकर या लाल मिर्चें मुंह में ठूंसकर फ्रेशर की छटपटाहट पर ठहाके लगाना, चार-पांच घंटे बाथरूम के शॉवर के नीचे खड़ा रखना, रातभर जगाए रखना, आदेश न मानने पर कुहनी के बल रेतीले फर्श पर रेंगने की सजा देना- ये सब तो मामूली यंत्रणाएं हैं. हद तो तब हो जाती है जब नये छात्रों को चड्ढी बनियान तक उतारकर एकदम नंगा करवाया जाता है, हर वाक्य में “मां-बहन” को लपेटती हुई बुरी- बुरी गालियां दी जाती हैं, सिखाई और रटवाई जाती हैं, वर्जित सेक्स की बातें खुलेआम की जाती हैं, उनसे अश्लील मजाक किये जाते हैं, उनके साथ अश्लील हरकतें की जाती हैं, उनसे अप्राकृतिक यौन क्रियाएं करवाई जाती हैं. यह रैग़िंग सिर्फ लड़कों में नहीं होती, लड़कियां भी बढ़चढ़कर करती हैं. वे भी रैगिंग का पूरा मजा लेती हैं, उनके यहां भी अश्लीलता की कोई सीमाएं नहीं होतीं.
मास रैगिंग तो और भी वीभत्स होती है. अश्लीलता की सारी ह्दें पार हो जाती हैं. चालीस पचास छात्रों को एकदम नंगा करके छात्रावास के लॉन में लाया जाता है, म्युजिक बजाया जाता है, सभी फ्रेशर नाचते हैं, सीनियर्स चारों ओर खड़े होकर तमाशा देखते हैं, अश्लील बातें करते हैं, फब्तियां कसते हैं. इसके बाद सभी की परेड होती है, अश्लील शब्दों में पिरोयी सलामी ली जाती है. देर रात तक यह सब कुछ चलता है. ऐसे में कुछ लड़के-लड़कियां मानसिक तौर पर बुरी तरह टूट जाते हैं, कुछ कॉलेज छोड़कर चले जाते हैं. रैगिंग के परिणाम स्वरूप हर वर्ष दो-चार छात्र आत्महत्या कर लेते हैं, कुछ मानसिक रूप से गंभीर बीमार हो जाते हैं.
मेरी बातों से जो अभिभावक डर गये हों उन्हें यहां एक बात बताना जरूरी है कि सभी सीनियर्स ऐसे नहीं होते, वे रैगिंग करते हैं ,पर उनका तरीका अलग होता है. वे डायनिंग टेबुल के मैनर्स सिखाते हैं, चम्मच-कांटों से खाना सिखाते हैं, स्मार्ट और बोल्ड बनाने के लिये उच्च सोसाइटी के तौर तरीकों की ट्रेनिंग रैगिंग के बहाने दे देते हैं. वे यह भी बताते हैं कि जीवन में सफल होना है तो पढ़ाई के अलावे खेलकूद, सांस्कृतिक एवं दूसरी गतिविधियों में भाग लेकर व्यक्तित्व का विकास करना आवश्यक है. ये लोग भी सेक्स की हल्की फुल्की बातें करते हैं, लेकिन. उद्देश्य होता है - उनके अंदर से झिझक दूर कर देना. ऐसे सीनियर्स अपनी किताबें और नोट्स वगैरह भी फ्रेशर्स को दे देते हैं.
आजकल इन कॉलेजों में सीनियर्स भी अपनी जाति, धर्म या क्षेत्र ^ga ke liye के आधार पर अलग अलग ग्रुप बना लेते हैं, अपने ग्रुप के नये छात्रों को तो रैगिंग से बचाते हैं और दूसरों की जमकर रैगिंग करते हैं, फलस्वरूप कॉलेज में तनावपूर्ण माहौल हो जाता है, मारपीट तक की नौबत आ जाती है. रैगिंग के नाम पर बदमाश लड़के-लड़कियां अपनी धाक जमाने के लिये क्रूर, अश्लील और वीभत्स तरीकों का सहारा लेते हैं. कॉलेज प्रबंधकों एवं शिक्षकों की कोशिशों के बावजूद रैगिंग नहीं रुक पा रही. लोग यदि रैगिंग की बुराइयों को समझ सकें और निःसंकोच इसपर खुली चर्चा कर सकें, तभी इसे रोका जा सकता है. रैगिंग को दंडनीय अपराध घोषित किया जा चुका है, सुप्रीम कोर्ट तक ने अपने विशेष निर्देश जारी किये हैं. अंग्रेजों ने भारत में इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में लगभग सौ साल पहले काले साहबों के व्यक्तित्व निर्माण के लिये रैगिंग के जिस जिन्न को बोतल से बाहर निकाला था, वह हमारी तमाम कोशिशों के बावजूद वापस बोतल में बंद हो ही नहीं पा रहा.
मास रैगिंग तो और भी वीभत्स होती है. अश्लीलता की सारी ह्दें पार हो जाती हैं. चालीस पचास छात्रों को एकदम नंगा करके छात्रावास के लॉन में लाया जाता है, म्युजिक बजाया जाता है, सभी फ्रेशर नाचते हैं, सीनियर्स चारों ओर खड़े होकर तमाशा देखते हैं, अश्लील बातें करते हैं, फब्तियां कसते हैं. इसके बाद सभी की परेड होती है, अश्लील शब्दों में पिरोयी सलामी ली जाती है. देर रात तक यह सब कुछ चलता है. ऐसे में कुछ लड़के-लड़कियां मानसिक तौर पर बुरी तरह टूट जाते हैं, कुछ कॉलेज छोड़कर चले जाते हैं. रैगिंग के परिणाम स्वरूप हर वर्ष दो-चार छात्र आत्महत्या कर लेते हैं, कुछ मानसिक रूप से गंभीर बीमार हो जाते हैं.
मेरी बातों से जो अभिभावक डर गये हों उन्हें यहां एक बात बताना जरूरी है कि सभी सीनियर्स ऐसे नहीं होते, वे रैगिंग करते हैं ,पर उनका तरीका अलग होता है. वे डायनिंग टेबुल के मैनर्स सिखाते हैं, चम्मच-कांटों से खाना सिखाते हैं, स्मार्ट और बोल्ड बनाने के लिये उच्च सोसाइटी के तौर तरीकों की ट्रेनिंग रैगिंग के बहाने दे देते हैं. वे यह भी बताते हैं कि जीवन में सफल होना है तो पढ़ाई के अलावे खेलकूद, सांस्कृतिक एवं दूसरी गतिविधियों में भाग लेकर व्यक्तित्व का विकास करना आवश्यक है. ये लोग भी सेक्स की हल्की फुल्की बातें करते हैं, लेकिन. उद्देश्य होता है - उनके अंदर से झिझक दूर कर देना. ऐसे सीनियर्स अपनी किताबें और नोट्स वगैरह भी फ्रेशर्स को दे देते हैं.
आजकल इन कॉलेजों में सीनियर्स भी अपनी जाति, धर्म या क्षेत्र ^ga ke liye के आधार पर अलग अलग ग्रुप बना लेते हैं, अपने ग्रुप के नये छात्रों को तो रैगिंग से बचाते हैं और दूसरों की जमकर रैगिंग करते हैं, फलस्वरूप कॉलेज में तनावपूर्ण माहौल हो जाता है, मारपीट तक की नौबत आ जाती है. रैगिंग के नाम पर बदमाश लड़के-लड़कियां अपनी धाक जमाने के लिये क्रूर, अश्लील और वीभत्स तरीकों का सहारा लेते हैं. कॉलेज प्रबंधकों एवं शिक्षकों की कोशिशों के बावजूद रैगिंग नहीं रुक पा रही. लोग यदि रैगिंग की बुराइयों को समझ सकें और निःसंकोच इसपर खुली चर्चा कर सकें, तभी इसे रोका जा सकता है. रैगिंग को दंडनीय अपराध घोषित किया जा चुका है, सुप्रीम कोर्ट तक ने अपने विशेष निर्देश जारी किये हैं. अंग्रेजों ने भारत में इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में लगभग सौ साल पहले काले साहबों के व्यक्तित्व निर्माण के लिये रैगिंग के जिस जिन्न को बोतल से बाहर निकाला था, वह हमारी तमाम कोशिशों के बावजूद वापस बोतल में बंद हो ही नहीं पा रहा.
रैगिंग से पीछा छुडाने के खुली चर्चा के साथ ही जब तक बच्चों में रैगिंग-विरोधी संस्कार नहीं डाले जायेंगे तब तक इस अभिशाप से पीछा नहीं छूटेगा...
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