लगभग सौ वर्ष पहले स्वामी विवेकानन्दजी को ट्रावनकोर और कोचीन (वर्तमान केरल राज्य) में कुछ दिन रहने का मौका मिला, वहां नीची जाति के लोगों पर हो रहे क्रूर अमानवीय अत्याचार को देखकर उनका दिल रो पडा और उन्होंने क्षुब्ध होकर पूरे क्षेत्र को ही पागलखाना घोषित कर दिया. उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि आदमी इतना निर्दयी भी हो सकता है.
नीची जातिवालों के लिये मंदिर , विद्यालय और सार्वजनिक स्थलों में प्रवेश वर्जित था, कूओं का इस्तेमाल वे कर नहीं सकते थे. नीची जाति के मर्द और औरतों के लिये कमर से ऊपर कपडे पहनना एक बडा गुनाह था. गहने पहनने का तो सवाल ही नही था. इन्हें अछूत तो समझा जाता ही था, उनकी परछाइयों से भी लोग दूर रहते थे. बडे लोगों से कितनी दूर खडे होना है वह दूरी भी जातियों के आधार पर निर्धारित थी - 5फुट से 30 फुट तक . कुछ जातियों के लोगों को तो देख भर लेने से छूत लग जाती थी- वे लोग चलते समय जोर – जोर से चिल्लाते जाते थे –“ मेरे मालिकों, मै इधर ही आ रहा हूं, कृपया अपनी नजरें घुमा लें.” विडंबना तो थी कि निम्न जातियां भी आपस में एक दूसरे को छोटा बडा समझती थीं और अपने से छोटी जातियों पर ब्राह्मणों से भी अधिक अत्याचार करती थीं. नीची जातियों के लोग अपने बच्चों के सुन्दर और सार्थक नाम भी नहीं रख सकते थे, नाम ऐसे होने चाहिये जिनसे दासता और हीनता का बोध हो. ऐसे किसी भी सामाजिक नियम का उल्लंघन करने पर मौत की सजा निर्धारित थी, भले ही उल्लंघन गलती से हो गया हो.
ये सारे नियम नीची जाति के हिंदुओं पर तो लागू थे , लेकिन मुसलमानों और ईसाइयों पर कोई बंदिश नहीं थी. ऐसे कई रास्ते थे जिनपर नीची जाति के हिंदुओं के लिये चलना वर्जित था, गलती से भी आ जाने पर कडी सजा का प्रावधान था, लेकिन मुसलमानों और ईसाइयों पर ऐसी कोई रोक नहीं थी. विडंबना तो यह थी कि धर्म बदल लेने वालों को सारी वर्जनाओं से मुक्ति मिल जाती थी. उन्हें पूरी इज्जत मिलती थी. इतने अमानवीय अत्याचारों के बाद नीची जाति के लोगों की विशाल आबादी का एकमुश्त धर्मांतरण कभी भी हो सकता था और आज केरल में दूसरा नागालैंड नजर आता. लेकिन लगभग सत्तर वर्ष पूर्व श्री नारायण गुरु ने ऐसा चमत्कार कर दिखाया जिसने पूरे समाज को ही बदल दिया, बिना किसी का दिल तोडे, बिना किसी खूनी संघंर्ष के उन्होंने ऊंच- नीच और छूआछूत जैसी विकृतियों को हमेशा के लिये समाज से खत्म कर दिया. आज केरल में ऊंच- नीच का भेदभाव नहीं के बराबर है, अधिकांश लोग सनातन हिन्दू धर्म का ही पालन करते हैं, ‘अछूत’ शब्द अतीत का एक काला पृष्ठ बन चुका है, वहां विभिन्न हिन्दू जातियों में कोई वैमनस्य नहीं, सब मिलकर प्रेम से रह्ते हैं.
ऐसा चमत्कार करनेवाले श्रीनारायण गुरु कौन थे? इतने महान युगपुरुष को देश के इस हिस्से में रहनेवाले हमलोग जरा भी नहीं जानते, यह हमारा ही दुर्भाग्य है, पूरे देश और सनातन हिन्दू धर्म का दुर्भाग्य है. जो चमत्कार उन्होंने केरल में कर दिखाया उससे प्रेरणा लेकर उनका अनुनयन कर हम पूरे देश की तकदीर बदल सकते थे. आज विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसी संस्थाओं के द्वारा चलाये जा रहे धर्मांतरण विरोधी घृणा उगलते अभियानों की कोई जरूरत ही न होती. आज धर्म संसदें बुलाई जाती हैं, धर्म गुरुओं के सम्मेलन बुलाए जाते हैं, धर्मांतरण का रोना रोया जाता है, दूसरे धर्मों के खिलाफ जहर उगला जाता है, लेकिन मूल समस्या को नजरअंदाज कर दिया जाता है. हजारों सालों से हमने एक बडी आबादी को दबाकर – कुचलकर रखा है, उनके द्वारा किये गये सेवा कार्यों को सम्मान की जगह घृणा की दृष्टि से देखा, उनकी मेहनत के बदले उन्हें हमेशा इतना कम पारिश्रमिक दिया कि वे एक वक्त खाने के भी मोहताज रहें, कभी स्वावलंबी न बन सकें - नतीजा पूरे देश के लिये बुरा हुआ, उनकी सारी प्रतिभा बरबाद हो गयी, उनकी सम्मिलित शक्ति का कोई उपयोग नहीं हुआ और हम बार बार विदेशी आक्रामकों के गुलाम बनते रहे, यदि इस बहुजन समाज की प्रतिभा और ताकत का उपयोग हमने किया होता तो शायद हमेशा ही पूरी दुनिया के निर्विवाद लीडर बने रहते.
सनातन धर्म ही पूरी दुनिया में एकमात्र ऐसा धर्म है जो तमाम बुराइयों के बावजूद , बर्बर और विध्वंसक विदेशी आक्रमणों के बाद भी आजतक मजबूती से बरकरार है. जब भी इसमें बुराइयां बढी, कोई युगप्रवर्तक का आविर्भाव हुआ. लगभग हर बारह सौ वर्षों के बाद कोई सुधारक अवतरित होता है. 2500 वर्ष पूर्व बुद्ध और महावीर ने सनातन धर्म में प्रविष्ट जाति भेद और दूसरी बुराइयों को खत्म किया, लेकिन अगले हजार वर्षों में हमारा समाज नयी बुराइयों का शिकार बन गया और तब आदि शंकर का अवतरण हुआ और उन्होंने पुनः समाज को सनातन सूत्र में जोडा. अगले हजार वर्षों में हमने फिर से अपनी स्थिति खराब कर ली जाति व्यवस्था के नाम पर एक बहुसंख्यक आबादी को कुचलते हुए उसे मुख्यधारा से काटकर. इस बार हालत और भी खराब थी, इस बार तो तथाकथित उच्च जातियों के लोगों ने भी अपना स्वाभिमान खो दिया था, अपने धर्म के लोगों को तो अछूत घोषित कर उनका शोषण करते थे और मुस्लिम नवाबों तथा अंग्रेज साहबों के तलवे चाटते थे. पिछली शताब्दी ने विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द, श्री नारायण गुरु, गांधी, दयानन्द सरस्वती, अंबेडकर आदि के माध्यम से सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण किया और सनातन धर्म को पुनर्प्रतिष्ठित किया.
श्री नारायण गुरु महान शैव वेदांती संत थे, उन्होंने संस्कृत, मलयालम और तमिल में अनगिनत भक्ति काव्यों की रचना की. 29 अगस्त 2005 को उनके अवतरण की 150वीं वर्षगांठ मनायी जायेगी, वर्ष भर चलनेवाला जयंती कार्यक्रम जारी है. महान संत होने के साथ साथ वे युगप्रवर्तक चिंतक और अद्भुत कर्मयोगी भी थे . वे जानते थे कि समय के साथ छूआछूत जैसी अनेक बुराइयां सनातन धर्म में पैदा हो गयी थीं जिन्हें यदि तत्काल साफ न किया गया तो इतने प्राचीन धर्म के अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो जायेगा. अपने धर्म में शोषित और तिरस्कृत जीवन से त्रस्त और ईसाई धर्म में मिलने वाली सुविधाओं और सम्मान के लोभ में कभी भी बहुसंख्यक ‘एझावा’ समुदाय एकमुश्त ईसाई धर्म अपना सकता था, आखिर सहन करने की भी तो कोई सीमा होती है. यदि ऐसा हो जाता तो तथाकथित ऊंची जाति के शोषक हिन्दू अल्पसंख्यक हो जाते और उनकी वही दुर्गति होती जो वे दूसरों की किया करते थे.
श्री नारायण गुरु ने महसूस किया कि तथाकथित नीची जातियों में हीन भावना बहुत अधिक है, सैकडों वर्षों के शोषण ने उन्हें तोडकर उनका आत्मविश्वास शून्य कर दिया है, शिक्षा का अभाव है, उनके पास अच्छे रोजगारों के अवसर नहीं के बराबर हैं, आर्थिक विपन्नता और अपने ऊपर थोपे गये अमानवीय सामाजिक नियमों के कारण वे गंदे ढंग से रहने-जीने और खाने के आदी हो गये हैं और इसे ही वे अपनी नियति मानते हैं. सभी अधिकारों से वंचित इनकी व्यथा और पीडा को उन्होंने गहराई से महसूस किया. उनका कहना था कि छीनकर लिये गये अधिकार स्थाई नहीं होते, बल्कि दूसरी समस्याओं को जन्म देते हैं. लोगों ने शिकायत की कि उनके बच्चों को स्कूलों में नहीं जाने दिया जाता, उन्होंने कहा कि अपने बच्चों के लिये स्कूल स्वयं बना लो और इतनी अच्छी तरह चलाओ कि वे भी तुम्हारे स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने को इच्छुक हो जाएं. लोगों ने कहा कि उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता, उन्होंने कहा कि न तो जबर्दस्ती प्रवेश करने की जरूरत है और न प्रवेश की अनुमति के लिये गिडगिडाने की आवश्यकता है, अपना मंदिर स्वयं बना लो. मंदिर बन गया, गुरुजी ने शिव-प्रतिमा भी स्थापित कर दी, बाधा उत्पन्न की गयी तो गुरुजी ने कहा कि ये तो ‘एझावा’ लोगों के शिव हैं, आपलोगों के नहीं. एक मंदिर में उन्होंने एक शीशा और दूसरे में दीपक स्थापित कर कहा कि इनकी ही पूजा करो क्योंकि भगवान तो कण-कण में विद्यमान हैं. उन्होंने सनातन धर्म के दायरे में रहते हुए ही समस्त मानवता के लिये “ एक जाति, एक धर्म और एक भगवान ” का सिद्धांत प्रतिपादित किया. श्री नारायण गुरु ने इन जातियों के बच्चों को शिक्षित किया ताकि बडे होकर वे मंदिरों में अच्छे पुजारी बनें. उन्होंने शिक्षा पर विशेष जोर दिया ताकि ये लोग हीन भावना से ऊपर उठकर अपना जीवन स्तर सुधार सकें, आर्थिक रूप से सबल बनकर सिर उठाकर चल सकें.
कवि गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उनसे मिलने के बाद कहा था, “ मैंने लगभग पूरी दुनिया का भ्रमण किया है और मुझे अनेक संतों और महर्षियों से मिलने का सौभाग्य मिला है. लेकिन मैं खुलकर स्वीकार करता हूं कि मुझे आजतक ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं मिला जिसकी आध्यात्मिक उपलब्धियां स्वामी श्री नारायण गुरु से अधिक हों, अरे नहीं, उनके बराबर का भी कोई नहीं मिला. मैं न तो दैवी आभा से देदीप्यमान उनके मुखमंडल को कभी भूल पाऊंगा और न अनंत क्षितिज के किसी दूरस्थ बिन्दु को निहारती उनकी तीक्ष्ण यौगिक आंखें ही विस्मरित हो पाएंगी.”
उन्होंने हमेशा अपने अनुयायियों को यही शिक्षा दी ,”शिक्षा के माध्यम से जानकार और जागरूक बनो, संगठित होकर मजबूत बनो और कठिन परिश्रम से समृद्धि प्राप्त करो.” उन्होंने कभी लडने या मांगने की बात नहीं की. यही कारण है कि वर्ष 1924 में निम्न जातियों द्वारा शिव मंदिर की प्रदक्षिणा के अधिकारों के लिये किये गये प्रसिद्ध वाइकोम आंदोलन को महात्मा गांधी ने जो समर्थन और सहयोग दिया उसे श्री गुरु ने पसंद नहीं किया. श्री नारायण गुरु के कार्यों की सफलता से प्रभावित महात्मा गांधी उनसे मिलकर बातचीत करने को बहुत इच्छुक हुए और उन्होंने पूछा कि क्या गुरुजी अंग्रेजी जानते हैं, गुरुजी ने पलटकर पूछा कि क्या गांधीजी संस्कृत में बातचीत करेंगे. गांधीजी की इच्छा भले ही अधूरी रह गयी हो, लेकिन गुरुजी की सफलता से प्रेरित हो वहां से लौटकर उन्होंने “अछूतों” के उद्धार हेतु अपने प्रयासों को चौगुना कर दिया.
गांधीजी ने लिखा, “ अति सुन्दर ट्रावनकोर रियासत का भ्रमण और आदरणीय श्री नारायण गुरु से मुलाकात मेरे जीवन की अति सौभाग्यशाली घटनाओं में से एक है”
अतिउत्तम लेख है अग्रवाल जी , आप बहुत बधाई के पात्र हैं ।
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