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आधुनिक भारतीय नारी : कितनी वर्जनाएं, कितने बंधन ?

एक वकील साहब हैं. वकालत उनकी न पहले चलती थी और न अब चलती है. वकील होने के नाते झूठी प्रतिष्ठा बनानी पड़ती है. आमदनी कम और खर्च अधिक. शौक में आकर शादी कर ली. नई-नई पत्नी के सामने बड़ी डींग मारते- अपने और अपने परिवार के बारे में. शादी से पहले मित्र मंडली में नारियों के लिए समाज में पूरी स्वंतत्रता की वकालत किया करते थे पर जब अपनी बारी आई तो मैदान छोड़ते नजर आए. पत्नी की एम. ए. करने की ख्वाहिश थी, पर टाल गए. बोले, “एम. ए. कर के क्या करोगी, नौकरी तो मुझे करानी नहीं है.”
छ: सात साल बीत गए. बच्चे स्कूल जाने लगे, चीजों के दामों में आग लग गई और परिवार की गाड़ी घिसटती नजर आई. पत्नी ने परिस्थितियों का तकाजा महसूस किया. एक प्राइमरी स्कूल में उसे शिक्षिका की नौकरी मिली. एम. ए. न करना खलने लगा. खैर, आर्थिक विपान्नता दूर हुई और कुछ वर्ष निकल गए.
शुरु-शुरु में तो वकील साहिब काफी खुश रहे, पर धीरे-धीरे उन के अंदर शक और शंका के बादल मंडराने लगे. शाम को स्कूल से लौटने में पत्नी को जरा भी देर हो जाती तो उन का मुंह फूल जाता. बात-बात पर वह पत्नी के द्वारा अपनी उपेक्षा महसूस करते. दिन भर काम कर के आई पत्नी की थकावट पर उन का ध्यान न जाता, पर खाना बनने में थोड़ी देर हो जाने पर बौखला उठते. बातचीत में पत्नी के उत्साह को कम होता देख, उन्हें लगता कि उन की उपेक्षा जानबूझ कर की जा रही है.
पत्नी को दोहरा काम करना पड़ता. पति, बच्चों एवं घर की देखभाल तथा स्कूल की नौकरी. थक कर चूर हो जाती. एक मिनट किसी से हंसने-बोलने का समय दुर्लभ था और उस पर भी पति द्धारा बात-बात पर प्रताड़ना एवं उलाहने.
वकील साहब का पत्नी के प्रति व्यवहार रुखा और खराब होता गया. पत्नी सब कुछ समझती थी, पर नौकरी छोड़ कर बच्चों को उन की सुविधाओं से वंचित नहीं कर सकती थी. आज हालत यह है कि सब कुछ चल रहा है, पर वकील साह्ब और उन की पत्नी के बीच खाईं काफी चौड़ी हो गई है. पत्नी का स्वास्थ्य अधिक मेहनत एवं पारिवारिक कलह के करण गिरता जा रहा है. ऐसा लगता है कि क्षय रोग से पीड़ित हो. अतिशय शारीरिक व मानसिक परिश्रम तथा घरेलू कलह के बीच वह टूटती जा रही है, जीवन अभिशाप बन गया है. दूसरी ओर प्रगतिशील पति महोदय समाज में अपनी प्रगतिशीलता का डंका पीटते रहते हैं कि उन्होंने अपनी पत्नी को कितनी छूट दे रखी है..
यह केवल एक परिवार में नहीं होता अपितु अनेक दंपतियों की व्यथाकथा है. बहुत ही कम घर ऐसे हैं जहां पति और पत्नी दोनों नौकरी करते हों और उन में ठीक से बनती हो. यहां एक बात गौर करने लायक है. हम ने अपने समाज में नारियों को स्वंतत्रता दे रखी है कि वे हर प्रकार की नौकरी कर सकती हैं, व्यापार कर सकती हैं. देखा आप ने, हम कितने प्रगतिशील हैं! हां हम प्रगतिशील विचारों के हैं, पर साथ-साथ रुढ़ियों में भी जकड़े हैं. हमारी प्रगतिशीलता नारियों को अधिक महंगी पड़ रही है. हम ने उन्हें हर तरह की छूट दे रखी है, फिर भी उन से पुरानी आज्ञाकारिता, कर्तव्यशीलता की अपेक्षा करते हैं, उन पर अपने पूरे अधिकार चाहते हैं और उन की भावनाओं की कद्र न कर अपनी भावनाएं और विचार उन पर आरोपित करने की चेष्टा करते हैं. असफल होने पर मन में नाराजगी बढ़ जाती है जो अलग-अलग रास्तों से बाहर आ कर दोनों के बीच दरार बढ़ाती है.
यहां एक उदाहरण और भी ध्यान देने लायक है. हम ने नारियों को शिक्षा प्राप्त करने की पूरी छूट दे रखी है. लड़के और लड़कियां दोनों स्कूल और कालिज जाते हैं, पर दोनों को मिली सुविधाओं में कितना अंतर है ? लड़का चाहे जितने देर घर से बाहर रहे, कुछ नहीं होता लेकिन लड़की को स्कूल से लौटने में कुछ देर हो जाए तो घर पर बारुद तैयार हो जाती है. लड़कों को पढ़ाई के अलावा कोई काम ही नहीं करना होता और लड़कियों के लिए घर के सारे काम तैयार रहते हैं. घर पर चौका बरतन, बच्चों को संभालना और दूसरे छोटे-छोटे काम उन्हें पढ़ाई के अतिरिक्त करने पड़ते हैं. दिन भर झिड़कियां अलग सुननी पड़ती हैं. इसी से हम जान सकते हैं कि लड़कियों को कितनी स्वतंत्रता हम ने दे रखी है.
कानून बने, पर उन्हें माना किसने: बाल विवाह सन 1929 में गैरकानूनी घोषित हुआ, फिर भी आज लड़कियों की औसतन 14-15 वर्ष की उमर में शादी हो जाती है. शहरों में लड़कियों की शादी की औसत उम्र 18-20 वर्ष होगी. इस का अर्थ यह है कि गांवों में अब भी अधिकतर लड़कियों की शादी 10 साल से कम उम्र में ही हो जाती हैं. विधवा विवाह कानून सन 1856 में पारित हुआ था लेकिन सच बात तो यह है कि आज भी इक्के-दुक्के पुरुष ही विधवा से शादी करने का साहस जुटा पाते हैं. बाकी तो उसे जूठन समझ कर शादी से साफ इनकार कर देते हैं. हिंदू कोड बिल सन 1955 में पास हुआ, पर कितनी स्त्रियां पति के दुराचारों को, तलाक के अधिकार का उपयोग़ कर, चुनौती दे पाती हैं ? यदि वे तलाक दे भी दें तो क्या समाज उन्हें अकेले चैन से जीने देगा ? नौकरी करती महिलाओं को कानून ने कई छूटें दीं, जैसे – मैटरनिटी लीव, समान काम के लिए समान तनख्वाह एवं रात्रि कार्य पर प्रतिबंध, पर क्या नियुक्ति करते वक्त उन्हें पुरुषों के बराबर वरीयता मिलती है ? स्टेनो या प्राइवेट सेक्रेटरी की बात मैं नहीं कर रहा, उन्हें सभी क्षेत्रों में काम करने का अधिकार है, पर क्या श्री चरणसिंह ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में केंद्र से कोई भी महिला प्रशासनिक अधिकारी उत्तर प्रदेश में न भेजने का अनुरोध नहीं किया था ? इंदिरा गांधी जैसी कुछ महिलाएं नेतृत्व कर रही हैं, पर राजनीति में कितनी महिलाएं 50 वर्ष से कम उम्र की हैं ? पिछले दशकों में नारी को कई अधिकार प्राप्त हुए, पर इतना होने पर भी केवल उस के पैरों की बेड़ी ढीली ही की गई, पूरी तरह से खोली नहीं गई. कानून से तो उसे अधिकार दे दिए गए, पर समाज ने कितने अधिकारों को मान्यता दी या उन का उपयोग होने दिया ? कानून और सामाजिक विधानों व प्रवृतियों में बहुत अंतर होता है. कानून बना दिए जाते हैं, पर समाज अपनी पुरानी लीक पर चलता रहता है. दहेजप्रथा कानूनन जुर्म है, पर समाज में कितने लोग दहेज की रकम का लोभ छोड़ पाते हैं ? कानून बनने के पहले जो चीज खुले तौर पर चलती है, कानून बन जाने पर चुपचाप और भी बढ़ जाती है.
समाज किसी भी परिवर्तन को बहुत कठिनाई से अपनाता है और इस की गति भी बहुत मंद होती है. हमारी भारतीय संस्कृति बहुत ही प्राचीन है. इस में मनु से ले कर आधुनिक पंडितों-पुरोहितों तक ने नारी की देवी के रुप में पूजा तो की है, पर सामाजिक स्तर पर उसे बंधनों में जकड़ कर. यही कारण है कि भारतीय नारी जन्म से मृत्यु तक ‘आंचल में दूध और आंखों में पानी’ लिए तमाम वर्जनाओं, कुंठाओं, असुविधाओं और प्रतिबंधों के बीच असहाय सी लटकी रहती है लेकिन उस के चेहरे पर शिकायत के भाव आ ही नहीं पाते. इन सब को सहन करने में ही वह अपने नारी जीवन की सार्थकता समझती है. किसी भी प्रकार की घुटन, कुंठा या विक्षोभ को पी जाने की सहनशक्ति उन के पालन-पोषण काल में ही उत्पन्न हो जाती है. सीता और सावित्री को अपना आदर्श बना कर जीने की शिक्षा उन्हें बचपन में ही घोंटघोंट कर पिला दी जाती है. शुरु से ही घर में उन के पालन-पोषण का वातावरण ही कुछ इस प्रकार का रहता है किसी भी तरह की शिकायत या विरोध करने की प्रवृति उन के अंदर से समाप्त हो जाती है. घर में मां के ऊपर पिता का, बहनों पर भाइयों का शासन देखकर वह समझती है कि ऐसा ही होता आया है और ऐसा ही होना चाहिए.
अब जैसे-जैसे शिक्षा का विस्तार होता जाएगा और भारतीय नारियां पश्निमी देशों की नारियों की स्थिति से परिचित होती जाएंगी, वैसे-वैसे ही उन में अपने अधिकारों के लिए जागरुकता आती जाएगी. अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए वे आंदोलनों की आवश्यकता महसूस करेंगी. वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए हम कह सकते हैं कि ऐसा समय आना ही है, उसे कोई रोक नहीं सकता.
पश्चिम की खिड़कियों से हर प्रकार हवा आती रहेगी क्योंकि उन खिड़कियों को बंद कर के हम अपने यहां रोशनी कम करना नहीं चाहेंगे. भविष्य में जल्दबाजी के फलस्वरुप इन आंदोलनों का स्वरुप केवल पश्चिम की नकल मात्र रह जाए और भारतीय परिवेश में वह बिलकुल ‘मिसफिट’ हो, इस से अच्छा है कि हम उन आंदोलनी को अपने यहां शुरु करें और उन का स्वरुप भारतीय वातावरण को ध्यान में रख खूब सोचसमझ कर निर्धारित करें. दूसरे शब्दों में हम नारी आंदोलन का भारतीयकरण करें (राष्ट्रीयकरण की बात मैं नहीं कर रहा).
यहां प्रश्न उठता है कि हम किस प्रकार भारतीय संस्कृति की रक्षा करते हुए नारी उत्थान आंदोलनों का भारतीय स्वरुप निर्धारित करें. हमें अपनी संस्कृति से बहुत अधिक मोह है, भले ही उस की तमाम बातों को नजर अंदाज कर हम पश्चिमी संस्कृति के पीछे पागल हो रहे हों. जब संस्कृति की किसी बात को आलोचना होती है तो हम बरदाश्त नहीं कर पाते. इन सब बातों को दृष्टि में रखते हुए यह प्रश्न उठता है कि नारी स्वतंत्रता संबंधी नियमों और मान्यताओं में से हम कितना कुछ छोड़ दें, कितना ग्रहण करे और कितने का परिष्कार करें.
नारी आंदोलन की कोई भी बात करने से पूर्व हमें नारी और पुरुष में विद्यमान भिन्नता को गहराई से समझना होगा. प्रकृति ने नारी को कोमलता, भावुकता और रमणीयता प्रदान कर उसे पुरुष की अपेक्षा शारीरिक दृष्टि से कम समर्थ बना कर बहुत बड़ा अन्याय किया है. शक्ति और सामर्थ्य के अतिरिक्त मानसिक दृष्टि से हीनता की भावना उसमें भरने में समाज अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है.
नारियों के साथ एक और विडंबना यह है कि नारीपुरुष यौन संबंधों का सारा प्रतिफल उन्हें ही भुगतना पड़ता है गर्भ के रुप में. पुरुष तो हाथ झाड़कर अलग हो जाता है और नारी को नौ महीनों तक कुछेक क्षणों का परिणाम साथ-साथ रखना पड़ता है. इस कारण नारी को डरना पड़ता है और पुरुष निर्भीक रह्ता है. नारी को गर्भ रह जाने पर उस के यौन संबंध का परदाफाश हो जाता है और उस का प्रमाण भी सामने आ जाता है जब कि पुरुष के साथ उस के किसी प्रकार के संबंध या अपराध का सबूत नहीं बचा रहता है. प्रमाण प्रस्तुत रहने के कारण अनुचित यौन संबंधों के लिए नारी की हमारे समाज में बड़ी दुर्दशा होती है जब कि समान रुप से ‘अभियोगी’ पुरुष खुले सांड सा समाज में घूमता रहता है.
हमारे समाज का स्वरुप कुछ इस प्रकार का है कि नारी को तो उस के ‘अपराध’ की सजा भुगतनी पड़ती है, पर पुरुष साफ छूट जाता है. यही कारण है कि हमारा भारतीय समाज नारी को अपने पैरों के नीचे रखता हे और नारी भी दब कर रहती है. उस के दिल में अपने नारीत्व के लिए खतरे की भावना इतनी भर दी जाती है कि वह शुरु से ही पुरुषों पर आश्रित रहती है. शादी से पूर्व पिता और भाई की निगरानी में और शादी के पश्चात पति के कदमों में रहना वह स्वयं भी आवश्यक समझती है. हमारे समाज में नारी का अस्तित्व हमेशा ही नकारा गया है. उसे सदा ही पुरुष की छाया माना गया है. इस का एक मुख्य कारण नारी की आर्थिक परतंत्रता भी है. पुरुष कमाता है और पत्नी तथा परिवार का भरण-पोषण करता है, इसी लिए परिवार में उस का स्थान नारी से ऊपर ही होता है.
नारी मुक्ति- आंदोलन का मुख्य उद्देश्य होगा - समाज को सहिष्णु बनाना, जिस से वह किसी भी प्रकार के परिवर्तन को मान्यता दे सके. भारतीय समाज की सब से बड़ी कमी यह है कि वह छोटी-छोटी बातों को नजरअंदाज नहीं कर सकता. यदि किसी लड़की पर बलात्कार के लिए आक्रमण सफल न हो, तो भी उस लड़की का समाज में रहना मुश्किल हो जाता है और उस की शादी की समस्या विकट हो जाती है.
मेरी मुलाकात एक ऐसी लड़की से हुई जो बलात्कार का शिकार हो गई थी. स्कूल से घर आते वक्त एक सुनसान जगह से कुछ गुंडे उसे उठा ले गए और दो-तीन दिन तक उस पर अत्याचार होते रहे. उसे जिस मकान में रखा गया, वह घनी बस्ती में ही था. मैं ने उस लड़की से पूछा, “तुम बलात्कार के वक्त चिल्ला सकती थी, शोर मचा सकती थी, पर तुम ने ऐसा क्यों नहीं किया ?” उस ने जवाब दिया, “मैं ने काफी संघर्ष किया, फिर भी मैं वस्त्रहीन कर दी गई थी. उस हालत में चिल्ला कर लोगों को इकट्ठा करने पर बलात्कार से तो बच सकती थी, पर क्या समाज मुझे स्वीकार करने को तैयार होता, क्या उस को मुझ पर विश्वास होता ? क्या फायदा होता मुझे ?”
दो-तीन दिनों के बाद जब वह घर पहुंची तो परिवार वालों ने उस की भर्त्सना कर उसे घर से बाहर निकाल दिया और कहीं जा कर डूब मरने को कहा क्योंकि मोहल्ले में उस की काफी बदनामी हो चुकी थी. जीवन का मोह कुछ ऐसा है कि वह आत्महत्या तो न कर सकी, पर समय ने उसे वेश्या अवश्य बना दिया. उस का क्या अपराध था ? जिन लोगों ने उस पर अत्याचार किया, समाज ने उन्हें क्या दंड दिया ? सारा दंड उस निरपराधिनी को मिला.
कोई लड़की दो दिनों के लिए घर से गायब रहे तो समाज उसे स्वीकार नहीं करेगा. कोई लड़की किसी प्रेमी के साथ भाग जाए और उस का प्रेमी उसे धोखा दे दे तो लड़की के लिए सारे दरवाजे बंद, पर लड़के पर कोई आंच नहीं आती. किसी लड़की को गर्भ ठहर जाए और वह उस व्यक्ति का नाम भी बतला दे जिस से गर्भ ठहरा है तो उस व्यक्ति के इनकार करने पर सारा दंड लड़की को और वह व्यक्ति बेदाग छूट जाए. आखिर, यह एकतरफी सजा की व्यवस्था क्यों ? जब तक यह व्यवस्था रहेगी, ऐसे अपराध होते रहेंगे और भारतीय नारी पुरुषों की गुलामी करती रहेगी, भय अथवा संस्कारों के कारण.
अतएव इस व्यवस्था को नष्ट करना हमारा पहला उद्देश्य होना चाहिए. अविवाहित मातृत्व को मान्यता भले ही न दें, पर इस का कुछ उचित प्रबंध होना चाहिए. यौन संबंध एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और उस के लिए केवल नारी को दोषी ठहराना सरासर अन्याय है.
इस व्यवस्था को दूर करने के लिए कुछ उपाय हो सकते हैं. गर्भपात को हम सामाजिक मान्यता दें और ऐसी किसी भी लड़की के अविवाहित होने की निंदा न करें. यदि कोई लड़की आजन्म अविवाहित रहना चाहे तो उसे भी समाज में स्वतंत्र रुप से सम्मानपूर्वक रहने की छूट मिलनी चाहिए. इस से कुछ प्रत्यक्ष लाभ भी होंगे. इस से दहेज प्रथा समूल नष्ट हो जाएगी. आज किसी भी माता-पिता को दहेज देने के लिए मजबूर होना पड़ता है क्योंकि लड़की की शादी करना आवश्यक है. जब बिना दहेज लिए कोई शादी करने को तैयार नहीं होता और लड़की की उम्र दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जाती है तो समाज के भय से मातापिता को दहेज देना ही पड़ता है. दहेज प्रथा के खत्म होने से नारियों का परिवार में सम्मान बढ़ जाएअगा, लड़की मां-बाप पर बोझ न समझी जाएगी.
इसके अतिरिक्त प्रेम विवाह को भी मान्यता मिलनी चाहिए. प्रेम विवाह का परिणाम यह होगा कि पति पत्नी पर अनावश्यक अधिकार जता कर जो शासन करता है, वह समाप्त हो जाएगा. सफल विवाह वही समझा जाना चाहिए जिस में पति एवं पत्नी दोनों एक दूसरे के अस्तित्व को मान्यता देकर एकदूसरे पर समान रुप से शासन करें.
नारियां जब तक आर्थिक रुप से परतंत्र रहेंगी, तब तक उन का स्वंतत्र अस्तित्व कायम नहीं हो सकता. अतएव नारी मुक्ति आंदोलन के नाम पर केवल नारेबाजी करने, जुलूसों का हुजूम इकट्ठा करने और सभाओं में धुआंधार भाषण देने से कुछ नहीं होने का. यदि भारतीय महिलाओं को वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त करनी है तो उन्हें अपने अंदर साहस इकट्ठा करना होगा और समाज द्धारा स्थापित सड़ीगली रुढ़िवादी मान्यताओं का विरोध करने के लिए हर मोर्चे पर कड़े विरोध का सामना करना होगा.
नारी मुक्ति आंदोलन एक सशक्त कदम तब होगा, जब सारी शिक्षा पद्धति को सुधारा जाए. बचपन से ही किताबों में नारी का आदर्श पतिव्रता होना बताया जाता है जब कि पुरुषों के लिए ऐसी कोई बात नहीं है. यह सही है कि नारी का वास्तविक कार्यक्षेत्र घर की व्यवस्था है, पर उसे केवल उसी तक सीमित कर देना सरासर अन्याय है. दूसरे भी कई कार्यक्षेत्र ऐसे हैं जहां नारियों के प्रवेश से उन्नति की गति और तीव्र हो सकती है. चिकित्सा का क्षेत्र इस बात का सजीव उदाहरण है. विगत शताब्दी में यह क्षेत्र यूरोप की महिलाओं के लिए पूर्णतया वर्जित था, भारतीय महिलाओं की तो बात ही छोड़िए. इस क्षेत्र में महिलाओं के प्रवेश के साथ ही विकास की रफ्तार दोगुनी हो गई. दूसरे कई क्षेत्र भी इस के उदाहरण हैं.
नारी मुक्ति आंदोलन भारत में भी शिक्षा प्रसार के साथ-साथ गति पकड़ता जाएगा. अतएव ऐसी स्थिति में आवश्यक है कि प्रतिष्ठित पत्रपत्रिकाएं इस के लिए आवश्यक स्वस्थ वातावरण बना कर महिलाओं का मार्गनिर्देशन करें अन्यथा हमारे यहां का नारी मुक्ति आंदोलन विदेशों की नकल में एक अंधी दौड़ बन कर ही रह जाएगा और फल-स्वरुप जो संकर संस्कृति निर्मित होगी, वह सारे सामाजिक ढ़ांचे को अव्यवस्थित और भ्रमित कर देगी. उपयुक्त समय का इंतजार करने से यह बेहतर है कि समय रहते ही उपयुक्त कदम उठाएं. समय हमारे सामाजिक स्वरुप को निर्धारित करे, इस से अच्छा यह है कि समय से पहले ही हम आगे बढ़ कर सामाजिक स्वरुप में आवश्यक परिवर्तन करें.

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