औसतन 67,000 भारतीयों के लिये मात्र एक अच्छा डॉक्टर ?
आज भारत में औसतन 67,000 लोगों के इलाज के लिये एक अच्छा डॉक्टर है, ऐसे सारे डॉक्टर सिर्फ मेट्रो शहरों में हैं, राँची जैसे बड़े शहरों के गंभीर मरीजों को भी वेल्लोर या मेट्रो शहरों की दौड़ लगानी पड़ती है. आखिर क्या गुनाह किया है भारत की जनता ने कि अच्छे डॉक्टरों की कमी के बावजूद मेडिकल कॉलेजों में सीटें नहीं बढ़ाई जा रहीं. कहीं डॉक्टरों के द्वारा अपना भाव बढ़ाकर बनाए रखने का षडयंत्र तो नहीं है?
अमेरिका की आबादी तीस करोड़ और भारत की सौ करोड़, वहाँ के सात सर्वोत्तम मेडिकल कॉलेजों में हर वर्ष 3862 छात्र एडमिशन लेते हैं और भारत के सात सर्वोत्तम मेडिकल कॉलेजों में प्रति वर्ष सभी को मिलाकर सिर्फ 539 को प्रवेश मिलता है. अमेरिका में कुल मेडिकल कॉलेजों की संख्या 128 है जबकि भारत में कुल मेडिकल कॉलेज हैं 450. अमेरिका में प्रति मेडिकल कॉलेज सीटों की संख्या 534 है और यही संख्या भारत में है मात्र 67. अमेरिका में शुद्ध स्वच्छ हवा- पानी एवं वातावरण होने के कारण कम लोग बीमार पड़ते हैं, फिरभी सभी का स्वास्थ्य- बीमा है, अच्छे अस्पतालों में अच्छे डॉक्टरों से सभी को इलाज मिलता है. अपने भारत में पीने के लिये गंदा पानी, रहने के लिये गंदी बस्तियाँ, प्रदूषित नदी-नाले-तालाब और ढेर सारी बीमारियों के बावजूद 67,000 लोगों की देखभाल के लिये मात्र 1 अच्छा डॉक्टर है, जबकि अमेरिका में यह अनुपात है 2,500 लोगों पर एक डॉक्टर. यदि सभी प्रकार के डॉक्टरों की बात की जाए तो भारत में हर 1,200 की आबादी पर 1 डॉक्टर है, वही अमेरिका में 140 की आबादी के लिये 1 डॉक्टर है.
यहाँ आँकड़ों के माध्यम से अमेरिका और भारत की तुलना करने का मकसद सिर्फ यही दिखाना है कि आम आदमी के स्वास्थ्य की कितनी कम चिंता हमलोगों को है. यदि तीस करोड़ की आबादी वाले अमेरिका में हर साल 68,343 डॉक्टर निकलते हैं और सौ करोड़ वाले भारत को हर साल महज 30,000 नये डॉक्टर मिलते हैं तो यह हमारा दुर्भाग्य नहीं, धन की कमी नहीं, वरन हमारी गलत सोच का नतीजा है, जानबूझकर डॉक्टरों के भाव बढ़ाकर बनाए रखने का षडयंत्र है ताकि डॉक्टरों की कमी और डिमांड बनी रहे, ताकि उनके बीच फीस कम करने की तथा उच्च गुणवत्ता की सेवा देने के लिये कोई प्रतियोगिता ही न हो. हर क्षेत्र में हम खुले बाजार और खुली प्रतियोगिता के हिमायती हो गये हैं, लेकिन मेडिकल कॉलेजों में सीट बढ़ाने के लिये तैयार नहीं. हमारे अच्छे मेडिकल कॉलेजों में औसतन सिर्फ 67 सीटें ही क्यों, अमेरिका की तरह हम तुरंत इसे बढ़ाकर 550 + क्यों नहीं कर देते? यदि विश्लेषण किया जाए तो लगेगा कि संसाधनों की कमी का रोना महज एक बहाना ही है.
घाटा देते सार्वजनिक उपक्रमों में हजारों करोड़ रुपए फँसकर बेकार पड़े हैं, उन्हें बेचने के प्रस्तावों पर कम्युनिस्ट अड़ंगा लगा देते हैं. यदि यह प्रस्ताव लाया जाए कि उनके शेयर बेचकर जो धन एकत्र होगा उससे एम्स जैसे दस मेडिकल कॉलेज खोले जाएंगे, हरेक में एम.बी.बी.एस. के लिये 500 सीट और पोस्ट ग्रैजुएट के लिये 250 सीट होंगी, तो शायद ही कहीं से कोई विरोध होगा, हाँ डॉक्टरों की एसोसिएशनें जरूर अड़ंगा लगाएंगी क्योंकि डॉक्टरों की संख्या बढ़ जाने से उनका भाव जो कम हो जाएगा. आज अच्छे डॉक्टरों के यहाँ मरीजों की लाइन लगी रहती है, पैरवी लगाकर हफ्ता - पन्द्रह दिन बाद का अपॉइंटमेंट मिलता है, हर दिन पचास से सौ मरीज देखनेवाले डॉक्टरों से उच्च गुणवत्ता की क्या उम्मीद की जाए? मरीजों की लाइन लगी है, तो स्वाभाविक है कि ये डॉक्टर अपनी फीस स्वयं तय करेंगे, सौ रुपयों से हजार रुपयों तक, या उससे भी अधिक, ऐसा क्यों? गरीबों की तो बात ही मत कीजिये, मध्यवर्ग की कमर तोड़ देती है कोई भी बीमारी. कैंसर या दिल की गंभीर बीमारियाँ तो बर्बाद ही कर देती हैं किसी परिवार को.
डॉक्टर महसूस करें कि वे देश और समाज के कर्जदार हैं
डॉक्टरों की कमी को देखते हुए नये अच्छे मेडिकल कॉलेज खुलने ही चाहिए, सीटें बढ़ाई जानी चाहिए, लेकिन मेडिकल कॉलेजों के संचालन हेतु खर्च की पूरी जिम्मेदारी सरकार पर नहीं होनी चाहिए. एक डॉक्टर तैयार करने में सरकार को दस लाख रुपए से अधिक खर्च करने पड़ते हैं, लेकिन हमारे भारतीय डॉक्टर इस बात को जिन्दगी भर नहीं समझ पाते. वे तो यही समझते हैं कि उन्होंने कॉलेज की पूरी फीस दे दी. प्रति छात्र दस या बारह लाख जो भी कुल खर्च हो रहा हो, उतनी फीस सभी के लिये घोषित होनी चाहिए, उस फीस का आठ या दस लाख सरकार ने दिया है, यह भी घोषित हो.
कॉलेज फीस के लिये छात्रों की तीन या चार कैटेगरी बनाई जाए. मेरिट के अनुसार सामान्य या आरक्षित हर वर्ग के टॉप बीस प्रतिशत या कुछ अधिक छात्रों की पूरी फीस सरकारी वजीफे के रूप में दे दी जाए. अगले तीस प्रतिशत छात्रों के लिये कमोबेशी वर्तमान रियायती व्यवस्था हो, यानि दो-तीन लाख रुपए छात्र दें और बाकी आठ लाख रुपए सरकार अनुदान के रूप में दे. बाकी लोगों से पूरे दस –बारह लाख फीस के रूप में लिये जाएं जिसके लिये उन्हें बैंक से लोन मिलने की व्यवस्था हो. कहने का मतलब है कि एक मेडिकल छात्र पर सरकार जो खर्च कर रही है, उसे वह छात्र महसूस करे, आजीवन याद रखे, उसे लगे कि देश और समाज ने उसपर उपकार किया है, वह कर्जदार है. प्रतिभाशाली होने का मतलब यह नहीं कि पढ़ते समय तो समाज सारी सुविधाएँ दे, पढ़ने के बाद उसकी प्रतिभा का लाभ दूसरा देश उठाए या वह व्यक्ति उस शिक्षा से इतना धन अर्जित कर ले जो उसकी दस पीढ़ियाँ भी न खत्म कर पाएँ और अपने समाज को कोई लाभ न मिले.
वजीफा पानेवालों एवं रियायती फीस की सुविधा पानेवालों को बॉन्ड भरना होगा कि शुरू के दस सालों में देश से बाहर जाने पर वे अपनी मेडिकल पढ़ाई पर सरकार के द्वारा खर्च की गयी राशि का पूर्वनिर्धारित आंशिक भुगतान कर देंगे, यह राशि दस से बीस लाख होगी.ज्ञात हो कि एम्स जैसे संस्थानों में प्रत्येक मेडिकल छात्र पर सरकार लगभग इतना ही व्यय करती है.बॉंन्ड की राशि विचार विमर्श से तय की जा सकती है. आज अमेरिका या यूरोप में मेडिकल कॉलेजों में पढ़ने वालों को फीस का जुगाड़ करने के लिये हर सेमेस्टर के बाद खुद कमाना पड़ता है.सिंगापुर में तीन तरह की व्यवस्था है, पूरा खर्च खुद वहन करें, या बैंक से लोन लेकर पढ़ें या सरकार से पूरा वजीफा अपनी प्रतिभा से प्राप्त कर लें. वजीफे से पढ़नेवालों को छह साल अपनी सेवा का लाभ सिंगापुर को देना होता है, तनख्वाह पूरी मिलेगी, अपना व्यवसाय भी कर सकते हैं, कोई राशि भी सरकार को नहीं लौटानी.
कुछ इसी प्रकार की व्यवस्था हमें अपने यहाँ भी करनी चाहिये. अब समय आ गया कि मेडिकल शिक्षा के तौर तरीकों में आमूल परिवर्तन किये जाएं ताकि देश के हर कोने में अच्छे डॉक्टर उपलब्ध हों, उनकी फीस वाजिब हो, दवाओं के दाम कम हों, अच्छी स्वास्थ्य सेवा प्राप्त करना हर नागरिक का अधिकार है, किसी षडयंत्र के तहत या गलत एवं सिरफिरी नीतियों को अपनाकर जनता को ये सुविधाएँ प्राप्त करने से वंचित करना बहुत बड़ा अपराध है.
आज भारत में औसतन 67,000 लोगों के इलाज के लिये एक अच्छा डॉक्टर है, ऐसे सारे डॉक्टर सिर्फ मेट्रो शहरों में हैं, राँची जैसे बड़े शहरों के गंभीर मरीजों को भी वेल्लोर या मेट्रो शहरों की दौड़ लगानी पड़ती है. आखिर क्या गुनाह किया है भारत की जनता ने कि अच्छे डॉक्टरों की कमी के बावजूद मेडिकल कॉलेजों में सीटें नहीं बढ़ाई जा रहीं. कहीं डॉक्टरों के द्वारा अपना भाव बढ़ाकर बनाए रखने का षडयंत्र तो नहीं है?
अमेरिका की आबादी तीस करोड़ और भारत की सौ करोड़, वहाँ के सात सर्वोत्तम मेडिकल कॉलेजों में हर वर्ष 3862 छात्र एडमिशन लेते हैं और भारत के सात सर्वोत्तम मेडिकल कॉलेजों में प्रति वर्ष सभी को मिलाकर सिर्फ 539 को प्रवेश मिलता है. अमेरिका में कुल मेडिकल कॉलेजों की संख्या 128 है जबकि भारत में कुल मेडिकल कॉलेज हैं 450. अमेरिका में प्रति मेडिकल कॉलेज सीटों की संख्या 534 है और यही संख्या भारत में है मात्र 67. अमेरिका में शुद्ध स्वच्छ हवा- पानी एवं वातावरण होने के कारण कम लोग बीमार पड़ते हैं, फिरभी सभी का स्वास्थ्य- बीमा है, अच्छे अस्पतालों में अच्छे डॉक्टरों से सभी को इलाज मिलता है. अपने भारत में पीने के लिये गंदा पानी, रहने के लिये गंदी बस्तियाँ, प्रदूषित नदी-नाले-तालाब और ढेर सारी बीमारियों के बावजूद 67,000 लोगों की देखभाल के लिये मात्र 1 अच्छा डॉक्टर है, जबकि अमेरिका में यह अनुपात है 2,500 लोगों पर एक डॉक्टर. यदि सभी प्रकार के डॉक्टरों की बात की जाए तो भारत में हर 1,200 की आबादी पर 1 डॉक्टर है, वही अमेरिका में 140 की आबादी के लिये 1 डॉक्टर है.
यहाँ आँकड़ों के माध्यम से अमेरिका और भारत की तुलना करने का मकसद सिर्फ यही दिखाना है कि आम आदमी के स्वास्थ्य की कितनी कम चिंता हमलोगों को है. यदि तीस करोड़ की आबादी वाले अमेरिका में हर साल 68,343 डॉक्टर निकलते हैं और सौ करोड़ वाले भारत को हर साल महज 30,000 नये डॉक्टर मिलते हैं तो यह हमारा दुर्भाग्य नहीं, धन की कमी नहीं, वरन हमारी गलत सोच का नतीजा है, जानबूझकर डॉक्टरों के भाव बढ़ाकर बनाए रखने का षडयंत्र है ताकि डॉक्टरों की कमी और डिमांड बनी रहे, ताकि उनके बीच फीस कम करने की तथा उच्च गुणवत्ता की सेवा देने के लिये कोई प्रतियोगिता ही न हो. हर क्षेत्र में हम खुले बाजार और खुली प्रतियोगिता के हिमायती हो गये हैं, लेकिन मेडिकल कॉलेजों में सीट बढ़ाने के लिये तैयार नहीं. हमारे अच्छे मेडिकल कॉलेजों में औसतन सिर्फ 67 सीटें ही क्यों, अमेरिका की तरह हम तुरंत इसे बढ़ाकर 550 + क्यों नहीं कर देते? यदि विश्लेषण किया जाए तो लगेगा कि संसाधनों की कमी का रोना महज एक बहाना ही है.
घाटा देते सार्वजनिक उपक्रमों में हजारों करोड़ रुपए फँसकर बेकार पड़े हैं, उन्हें बेचने के प्रस्तावों पर कम्युनिस्ट अड़ंगा लगा देते हैं. यदि यह प्रस्ताव लाया जाए कि उनके शेयर बेचकर जो धन एकत्र होगा उससे एम्स जैसे दस मेडिकल कॉलेज खोले जाएंगे, हरेक में एम.बी.बी.एस. के लिये 500 सीट और पोस्ट ग्रैजुएट के लिये 250 सीट होंगी, तो शायद ही कहीं से कोई विरोध होगा, हाँ डॉक्टरों की एसोसिएशनें जरूर अड़ंगा लगाएंगी क्योंकि डॉक्टरों की संख्या बढ़ जाने से उनका भाव जो कम हो जाएगा. आज अच्छे डॉक्टरों के यहाँ मरीजों की लाइन लगी रहती है, पैरवी लगाकर हफ्ता - पन्द्रह दिन बाद का अपॉइंटमेंट मिलता है, हर दिन पचास से सौ मरीज देखनेवाले डॉक्टरों से उच्च गुणवत्ता की क्या उम्मीद की जाए? मरीजों की लाइन लगी है, तो स्वाभाविक है कि ये डॉक्टर अपनी फीस स्वयं तय करेंगे, सौ रुपयों से हजार रुपयों तक, या उससे भी अधिक, ऐसा क्यों? गरीबों की तो बात ही मत कीजिये, मध्यवर्ग की कमर तोड़ देती है कोई भी बीमारी. कैंसर या दिल की गंभीर बीमारियाँ तो बर्बाद ही कर देती हैं किसी परिवार को.
डॉक्टर महसूस करें कि वे देश और समाज के कर्जदार हैं
डॉक्टरों की कमी को देखते हुए नये अच्छे मेडिकल कॉलेज खुलने ही चाहिए, सीटें बढ़ाई जानी चाहिए, लेकिन मेडिकल कॉलेजों के संचालन हेतु खर्च की पूरी जिम्मेदारी सरकार पर नहीं होनी चाहिए. एक डॉक्टर तैयार करने में सरकार को दस लाख रुपए से अधिक खर्च करने पड़ते हैं, लेकिन हमारे भारतीय डॉक्टर इस बात को जिन्दगी भर नहीं समझ पाते. वे तो यही समझते हैं कि उन्होंने कॉलेज की पूरी फीस दे दी. प्रति छात्र दस या बारह लाख जो भी कुल खर्च हो रहा हो, उतनी फीस सभी के लिये घोषित होनी चाहिए, उस फीस का आठ या दस लाख सरकार ने दिया है, यह भी घोषित हो.
कॉलेज फीस के लिये छात्रों की तीन या चार कैटेगरी बनाई जाए. मेरिट के अनुसार सामान्य या आरक्षित हर वर्ग के टॉप बीस प्रतिशत या कुछ अधिक छात्रों की पूरी फीस सरकारी वजीफे के रूप में दे दी जाए. अगले तीस प्रतिशत छात्रों के लिये कमोबेशी वर्तमान रियायती व्यवस्था हो, यानि दो-तीन लाख रुपए छात्र दें और बाकी आठ लाख रुपए सरकार अनुदान के रूप में दे. बाकी लोगों से पूरे दस –बारह लाख फीस के रूप में लिये जाएं जिसके लिये उन्हें बैंक से लोन मिलने की व्यवस्था हो. कहने का मतलब है कि एक मेडिकल छात्र पर सरकार जो खर्च कर रही है, उसे वह छात्र महसूस करे, आजीवन याद रखे, उसे लगे कि देश और समाज ने उसपर उपकार किया है, वह कर्जदार है. प्रतिभाशाली होने का मतलब यह नहीं कि पढ़ते समय तो समाज सारी सुविधाएँ दे, पढ़ने के बाद उसकी प्रतिभा का लाभ दूसरा देश उठाए या वह व्यक्ति उस शिक्षा से इतना धन अर्जित कर ले जो उसकी दस पीढ़ियाँ भी न खत्म कर पाएँ और अपने समाज को कोई लाभ न मिले.
वजीफा पानेवालों एवं रियायती फीस की सुविधा पानेवालों को बॉन्ड भरना होगा कि शुरू के दस सालों में देश से बाहर जाने पर वे अपनी मेडिकल पढ़ाई पर सरकार के द्वारा खर्च की गयी राशि का पूर्वनिर्धारित आंशिक भुगतान कर देंगे, यह राशि दस से बीस लाख होगी.ज्ञात हो कि एम्स जैसे संस्थानों में प्रत्येक मेडिकल छात्र पर सरकार लगभग इतना ही व्यय करती है.बॉंन्ड की राशि विचार विमर्श से तय की जा सकती है. आज अमेरिका या यूरोप में मेडिकल कॉलेजों में पढ़ने वालों को फीस का जुगाड़ करने के लिये हर सेमेस्टर के बाद खुद कमाना पड़ता है.सिंगापुर में तीन तरह की व्यवस्था है, पूरा खर्च खुद वहन करें, या बैंक से लोन लेकर पढ़ें या सरकार से पूरा वजीफा अपनी प्रतिभा से प्राप्त कर लें. वजीफे से पढ़नेवालों को छह साल अपनी सेवा का लाभ सिंगापुर को देना होता है, तनख्वाह पूरी मिलेगी, अपना व्यवसाय भी कर सकते हैं, कोई राशि भी सरकार को नहीं लौटानी.
कुछ इसी प्रकार की व्यवस्था हमें अपने यहाँ भी करनी चाहिये. अब समय आ गया कि मेडिकल शिक्षा के तौर तरीकों में आमूल परिवर्तन किये जाएं ताकि देश के हर कोने में अच्छे डॉक्टर उपलब्ध हों, उनकी फीस वाजिब हो, दवाओं के दाम कम हों, अच्छी स्वास्थ्य सेवा प्राप्त करना हर नागरिक का अधिकार है, किसी षडयंत्र के तहत या गलत एवं सिरफिरी नीतियों को अपनाकर जनता को ये सुविधाएँ प्राप्त करने से वंचित करना बहुत बड़ा अपराध है.
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