बिक्री कर के खिलाफ समय-समय पर किए जा रहे आंदोलन एकदम निर्रथक और हास्यास्पद लगते हैं. राज्य या देश को चलाने के लिए सरकारों को धन चाहिए और इस धन का स्त्रोत विभिन्न प्रकार के टैक्स ही हो सकते है. यदि बिक्री कर हटा दिया जाए तो उसके बदले कोई दूसरे नाम से अन्य टैक्स आ जाएगा. व्यापारियों की दलील है कि बिक्री कर की दर बहुत अधिक है और इसे वसूलने के लिए नियुक्त सरकारी कर्मचारी और पदाधिकारी लोगों को बहुत सताते है. सरकार को पूरे राज्य में बिक्री कर की जितनी रकम मिलनी चाहिए, वह कभी इकट्ठी ही नहीं हो सकती. अधिकांश दुकानों में बिना रसीद काटे ही माल बेचा जाता है, क्योंकि ग्राहक बिक्री कर की राशि देना ही नही चाहते. यदि कोई दुकानदार इस जिद पर अड़ जाए कि वह बिना बिक्री कर के कोई माल बेचेगा ही नहीं, तो बहुत जल्दी उसे दुकान बंद करनी पड़ेगी. हर ग्राहक बाजार में सस्ता से सस्ता सामान खरीदने के चक्कर में रहता है. बिक्री कर जोड़ कर कोई सामान महंगा हो जाता है, क्योंकि टैक्स की दर अधिकांश वस्तुओं के लिए दस प्रतिशत या उससे अधिक है. व्यापारियों में अपना माल बेचने की इतनी कड़ी प्रतियोगिता है कि वे खरीद मूल्य से भी कम पर बेच देते है. ऐसी स्थिति में बोरे या डिब्बों की बचत ही मामूली लाभ के रूप में उनके हाथ लगती है. टैक्स की रकम बचा ली, तब तो काफी मुनाफा हुआ. ऐसी होड़ के समय किसे होश रहेगा कि टैक्स इकट्ठा कर सरकारी खजाने में जमा करना है. टैक्स चोरी की शुरुआत होल सेल स्तर पर अधिक होती है. क्योंकि वहां मुनाफे की दर मुश्किल से दो-चार प्रतिशत होती है और जल्दी से जल्दी माल निकालना उन लोगों का मूल उद्देश्य होता है. ऐसे में मुनाफे के लिए टैक्स की रकम बचाने का लोभ होना स्वाभाविक है. जहां तक कर पदाधिकारियों के द्वारा व्यापारियों को तंग करने की बात है, वह सही तो है, पर उसका कारण स्प्ष्ट है. जब ये पदाधिकारी व्यापारियों को टैक्स की चोरी करते देखते हैं, तो उन्हें भी उस अनुचित लाभ का एक भाग स्वयं पाने की लालसा होगी ही और सीधे मांगने पर कुछ नहीं मिलेगा. शायद इसलिए टेढ़ी अंगुली से घी निकालने की बात इन पदाधिकारियों के दिमाग में आती है. हमारे व्यापारी अनेक समाजोपयोगी कामों के लिए धन देने को सहर्ष तैयार रहते हैं. हर शहर में धर्मशालाओं, स्कूल-कॉलेजों और अस्पतालों के रूप में समाज की सेवा कर रही अनेक संस्थाएं हमारे व्यापारियों की उदारता एवं सह्र्दयता का सुबूत हैं. फिर क्या कारण है कि ये लोग टैक्स को बोझ समझते हैं. जबकि, टैक्स की रकम समाज के कल्याण में ही इस्तेमाल होनी है. सरकारी दफ्तरों में हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण हर व्यक्ति को यही लगता है कि सरकारी कोष की लूट-खसोट हो रही है. जाम नालियां, गंदी ऊबड़-खाबड़ सड़्कें, स्कूलों और अस्पतालों को दयनीय हालत, विधि-व्यवस्था का ढीलापन हर क्षेत्र में सरकार की असफलता स्पष्ट दिखलायी देती है. शायद हर करदाता को लगता है कि टैक्स के रूप में दिए गए पैसे का दुरुपयोग हो रहा है. इसीलिए स्वेच्छा से टैक्स जमा करने की अंत:प्रेरणा खत्म हो जाती है.
टैक्स रहेंगे, हटाए नहीं जा सकते, स्वरूप भले ही कुछ हो. जरूरत है, सरकारों की कार्यप्रणाली में सुधार की ताकि लोगों में विश्वास पैदा हो कि उनके द्वारा दिए गए टैक्स का सदुपयोग हो रहा है. तभी सब कुछ ठीक होगा, टैक्स पदाधिकारियों की ज्यादतियां रूकेंगी, चोरी बहुत कम होंगी, सरकार को खाली राज्य कोष का रोना नहीं रोना होगा
टैक्स रहेंगे, हटाए नहीं जा सकते, स्वरूप भले ही कुछ हो. जरूरत है, सरकारों की कार्यप्रणाली में सुधार की ताकि लोगों में विश्वास पैदा हो कि उनके द्वारा दिए गए टैक्स का सदुपयोग हो रहा है. तभी सब कुछ ठीक होगा, टैक्स पदाधिकारियों की ज्यादतियां रूकेंगी, चोरी बहुत कम होंगी, सरकार को खाली राज्य कोष का रोना नहीं रोना होगा
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