संसद एवं विधानसभाओं की सीटों पर महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण संबंधी बिल विवादों से घिर गया है. विरोध करने वालों का तर्क है कि इस आरक्षण का फायदा उन्नत और सम्पन्न घरों की महिलाओं को मिलेगा एवं दलित, पिछ्ड़ी जातियों तथा मुस्लिम महिलाओं को कोई भी लाभ नहीं होगा. उनके अनुसार इसीलिए बिल में दलित व अन्य कमजोर तबकों की महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण का प्रावधान होना चाहिए, यानी आरक्षण में आरक्षण को पूरा मजाक बनाकर रख दिया गया है. चलिये, थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि विधायिका में महिलाओं के लिए आरक्षण की बात उचित और तर्कसंगत है. जब स्कूल-कॉलेजों की सीटों पर और नौकरी में भी उनके लिए आरक्षण है ही, तो इस आरक्षण को लागू करने में ही क्या हर्ज है? लेकिन, मेरी अल्प बुद्धि अभी तक यह नहीं समझ पायी है कि संसद एवं विधानसभाओं की सीटों पर महिलाओं के लिए आरक्षण का बिल यदि पारित हो भी गया, तो उसे लागू कैसे किया जाएगा? एक तरीका हो सकता है – कुछ चुनाव क्षेत्रों को महिला प्रत्याशियों के लिए ही आरक्षित कर देना, जिस प्रकार अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए है, लेकिन ये क्षेत्र कौन-कौन से होंगे, इसे किस आधार पर तय किया जायेगा एवं कौन करेगा? जनसंख्या तो आधार बन नहीं सकती. तब आधार क्या होगा? कहा जा रहा है कि प्रत्येक चुनाव में या कुछ चुनावों के बाद महिलाओं के लिए आरक्षित क्षेत्र बदलता रहेगा. यानी एक बार आरक्षित सीट से जीतने वाली महिला को अगली बार किसी अन्य स्थान से (यदि वे लड़ना चाहें या उनकी पार्टी उन्हें प्रत्याशी बनाये, तो) चुनाव लड़ना पड़ेगा. हालांकि अनुसूचित एवं जनजाति के लिए आरक्षित स्थानों के संदर्भ में कुछ ऐसा ही प्रावधान है, लेकिन महिलाओं के संदर्भ में भी ऐसा प्रावधान क्या उचित होगा? वैसे में क्या उनकी परेशानी नहीं बढ़ जायेगी? क्या इन पहलुओं पर बारीकी से सोच लिया गया है?
दूसरा तरीका हो सकता है – राजनीतिक दलों के लिए आवश्यक कर दिया जाये कि वे अपने दल के प्रत्याशियों की जो भी सूची जारी करें, उसमें आरक्षण कोटे के अनुसार महिलाओं को स्थान दें. लेकिन, फिर स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने वालों का क्या होगा? चुनाव के बाद आरक्षण के प्रतिशत से ही महिला प्रत्याशी विजयी हो, यह भी संभव नहीं. यह भी हो सकता है कि चुनाव के बाद संसद में जीत कर पहुंची महिलाओं की संख्या आरक्षण कोटे से बहुत कम हो जाये. तीसरा तरीका महिलाओं का मनोनयन कर रिक्त आरक्षित स्थानों की पूर्ति कर देना हो सकता है. लेकिन, यह मनोनयन कौन करेगा? आज की राजनीतिक स्थिति में इतनी निष्पक्षता किसमें है? और फिर गणतंत्र में दो-चार सीटों के लिए मनोनयन हो सकता है, इतनी सीटों के लिए मनोनयन तो किसी भी दृष्टिकोण से गणतंत्रात्मक चुनाव व्यवस्था का मखौल ही बन जायेगा. अत: देना ही है, तो महिलाओं के लिए शिक्षण संस्थानों में, सरकारी कार्यालयों में पहले सिर्फ बीस प्रतिशत स्थान निर्धारित कर दिया जाये. अभी दलितों के लिए या अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए आरक्षण का जो प्रतिशत है, वह महिलाओं के लिए आरक्षण कोटे पर भी लागू हो जायेगा. सब कुछ इतना स्पष्ट है कि कहीं विवाद की गुंजाइश ही नहीं होगी और आरक्षण लागू करना आसान भी हो जायेगा. इस आरक्षण के फलस्वरूप महिलाओं में शिक्षा बढ़ेगी और इनका आत्मविश्वास बढ़ेगा, वे अधिक स्वावलम्बी भी हो जायेंगी. तब वे पुरुषों की बराबरी में खड़ी हो सकेंगी तथा संसद और विधानसभाओं में उनकी अधिकाधिक संख्या अपने बलबूते पर बिना आरक्षण के पहुंच जायेगी. इस बात पर तो सभी लोग सहमत ही होंगे कि दफ्तरों में एवं दूसरे संस्थानों में महिलाएं जितनी कुशलता, लगन, मेहनत और सहनशीलता से काम करती हैं, पुरुष नहीं करते. आबादी में आधा होते हुए भी सदियों से इन्हें द्वितीय श्रेणी का नागरिक बनाकर रखा गया है. अब वक्त आ गया है कि इस शोषित वर्ग को आरक्षण का लाभ देकर उन्हें अधिक शिक्षित एवं आत्मनिर्भर बनाया जाये. जब महिला इंजीनियरों, डॉक्टरों, प्रशासनिक पदाधिकारियों तथा शिक्षकों आदि की संख्या बढ़ जायेगी, तब संसद एवं विधानसभाओं में उनके लिए आरक्षण की जरूरत ही नहीं रह जायेगी.
दूसरा तरीका हो सकता है – राजनीतिक दलों के लिए आवश्यक कर दिया जाये कि वे अपने दल के प्रत्याशियों की जो भी सूची जारी करें, उसमें आरक्षण कोटे के अनुसार महिलाओं को स्थान दें. लेकिन, फिर स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने वालों का क्या होगा? चुनाव के बाद आरक्षण के प्रतिशत से ही महिला प्रत्याशी विजयी हो, यह भी संभव नहीं. यह भी हो सकता है कि चुनाव के बाद संसद में जीत कर पहुंची महिलाओं की संख्या आरक्षण कोटे से बहुत कम हो जाये. तीसरा तरीका महिलाओं का मनोनयन कर रिक्त आरक्षित स्थानों की पूर्ति कर देना हो सकता है. लेकिन, यह मनोनयन कौन करेगा? आज की राजनीतिक स्थिति में इतनी निष्पक्षता किसमें है? और फिर गणतंत्र में दो-चार सीटों के लिए मनोनयन हो सकता है, इतनी सीटों के लिए मनोनयन तो किसी भी दृष्टिकोण से गणतंत्रात्मक चुनाव व्यवस्था का मखौल ही बन जायेगा. अत: देना ही है, तो महिलाओं के लिए शिक्षण संस्थानों में, सरकारी कार्यालयों में पहले सिर्फ बीस प्रतिशत स्थान निर्धारित कर दिया जाये. अभी दलितों के लिए या अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए आरक्षण का जो प्रतिशत है, वह महिलाओं के लिए आरक्षण कोटे पर भी लागू हो जायेगा. सब कुछ इतना स्पष्ट है कि कहीं विवाद की गुंजाइश ही नहीं होगी और आरक्षण लागू करना आसान भी हो जायेगा. इस आरक्षण के फलस्वरूप महिलाओं में शिक्षा बढ़ेगी और इनका आत्मविश्वास बढ़ेगा, वे अधिक स्वावलम्बी भी हो जायेंगी. तब वे पुरुषों की बराबरी में खड़ी हो सकेंगी तथा संसद और विधानसभाओं में उनकी अधिकाधिक संख्या अपने बलबूते पर बिना आरक्षण के पहुंच जायेगी. इस बात पर तो सभी लोग सहमत ही होंगे कि दफ्तरों में एवं दूसरे संस्थानों में महिलाएं जितनी कुशलता, लगन, मेहनत और सहनशीलता से काम करती हैं, पुरुष नहीं करते. आबादी में आधा होते हुए भी सदियों से इन्हें द्वितीय श्रेणी का नागरिक बनाकर रखा गया है. अब वक्त आ गया है कि इस शोषित वर्ग को आरक्षण का लाभ देकर उन्हें अधिक शिक्षित एवं आत्मनिर्भर बनाया जाये. जब महिला इंजीनियरों, डॉक्टरों, प्रशासनिक पदाधिकारियों तथा शिक्षकों आदि की संख्या बढ़ जायेगी, तब संसद एवं विधानसभाओं में उनके लिए आरक्षण की जरूरत ही नहीं रह जायेगी.
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