आज चारों ओर गुंडागर्दी, लूटपाट, अपहरण और हत्याओं का बोलबाला है. हिंसा हो रही है, नैतिक मूल्यों में भयंकर ह्रास हो चुका है. मधुर पारस्परिक सम्बंधों पर आधारित पारम्परिक सामाजिक ढांचा चरमरा रहा है, हम सिर्फ एक-दूसरे का इस्तेमाल कर रहे हैं. घूस और पैरवी को सामाजिक मान्यता मिल गयी है और भ्रष्ट्राचारियों को सम्मानित स्थान. हम अपनी संस्कृति की अच्छी बातों को दकियानूसी करार देकर पाश्चात्य अपसंस्कृति के कचरे को बहुमूल्य सोने की तरह एकत्र करने में लगे हैं. नग्नता और अश्लीलता की परिभाषाएं बदल गयी हैं.
यहां प्रश्न उठता है कि हमारे इस भयंकर पतन के लिए कौन जिम्मेवार है – फिल्में, टेलीविजन या पत्र-पत्रिकाएं? या इनमें से कोई भी नहीं? साहित्य को, कला को समाज का दर्पण मानने वाले यही दलील देंगे कि हमारे ये सूचना माध्यम समाज के यथार्थ को ही तो चित्रित करते हैं, उनका क्या दोष? कला तो भोगा हुआ यथार्थ ही है. जैसा समाज होगा वैसा ही रूप मुखरित होगा. दूसरे लोग कहेंगे कि समाज पर साहित्य और कला का ही गहरा प्रभाव पड़ता है. हमारे साहित्यकार, पत्रकार, फिल्मी कलाकार या टीवी आर्टिस्ट जो कुछ भी परोसते है, उसी से समाज के वर्तमान स्वरूप का निर्माण हुआ है. यह बहस हमेशा ऐसे ही चलती रहेगी कि संचार माध्यमों ने समाज को खराब किया है या समाज का पतन ही हमारे मीडिया के कार्यक्रमों में मुखरित होता है. यही कहावत है – अंडा पहले या मुर्गी?
यहां एक बात ध्यान देने लायक है. हमारे नैतिक मूल्यों में जितनी तेजी से गिरावट पिछले दस-पंद्रह सालों में आयी है, उतनी शायद पिछले हजार वर्षों में भी नहीं आयी. कहीं इसके पीछे दूरदर्शन का बेतहाशा प्रसार तो नहीं? पत्र-पत्रिकाओं की पाठक संख्या टी.वी. देखने वालों के मुकाबले नगण्य है. अत: टी.वी. पर जो कुछ भी दिखलाया जाएगा उसका व्यापक असर समाज के हर वर्ग पर होना निश्चित है. शायद इसीलिए विगत पंद्रह वर्षों में टी.वी. एवं फिल्मों के माध्यम से जो कूड़ा-कचरा हमने समाज को दिया है, उसका परिणाम सामने है. दिखावे की संस्कृति जहां पहले समाज के एक अति छोटे उच्च वर्ग तक ही सीमित थी, वही आज टी.वी. की कृपा से पूरा समाज ही भोगवादी और हिप्पोक्रैट बनने की राह पर चल पड़ा है. स्वार्थ ने हमें संवेदनाशून्य बना दिया है – अपनों के लिए नहीं, दूसरों के लिए. कला के नाम पर नग्नता, अश्लीलता एवं कड़वी वास्तविकता का चित्रण हमें बहुत महंगा पड़ रहा है. क्या प्रेमचन्द जी की कहानियों में उस समय के समाज का यथार्थ चित्रण नहीं है? उन्होंने यथार्थ चित्रण के साथ-साथ आदर्शों का भी ध्यान रखा. केवल गरीबी, शोषण और अन्याय का चित्रण कर लोगों के अंदर निराशा नहीं भरी. हर कहानी में उन्होंने यथार्थ और आदर्श का सुन्दर समन्वय किया ताकि समाज अपनी बुराइयां समझे और उन्हें दूर करने के लिए आशावान रहकर प्रयास करें. ऐसे साहित्यकार रचनात्मक थे, विध्वंसक नहीं. साहित्य में किस प्रकार “सत्यम्” के साथ-साथ “शिवम् और सुन्दरम्” का समावेश किया जा सकता है – यह कोई उनकी कहानियों में आसानी से देख सकता है. आज यदि फिल्म, टीवी एवं पत्र-पत्रिकाएं इस बात का ख्याल रखें कि उनकी प्रस्तुतियों में हमारी संस्कृति का सौन्दर्य एवं जीवन के नैतिक आदर्श लुप्त न हो जाएं तो वे समाज को वर्तमान पतन के गड्ढे से निकाल कर फिर पुरानी बुलंदियों पर पहुंचा सकते हैं. उन्हें ‘सत्यम शिवम सुन्दरम’ के निर्वाह के लिए अपनी रचनाओं में हल्की कृत्रिमता लाने का खतरा भी उठाना पड़ेगा जिसके लिए कला शास्त्रियों की आलोचना का शिकार होना होगा. लेकिन, समाज इन कलाशास्त्रियों से ऊपर है.
यहां प्रश्न उठता है कि हमारे इस भयंकर पतन के लिए कौन जिम्मेवार है – फिल्में, टेलीविजन या पत्र-पत्रिकाएं? या इनमें से कोई भी नहीं? साहित्य को, कला को समाज का दर्पण मानने वाले यही दलील देंगे कि हमारे ये सूचना माध्यम समाज के यथार्थ को ही तो चित्रित करते हैं, उनका क्या दोष? कला तो भोगा हुआ यथार्थ ही है. जैसा समाज होगा वैसा ही रूप मुखरित होगा. दूसरे लोग कहेंगे कि समाज पर साहित्य और कला का ही गहरा प्रभाव पड़ता है. हमारे साहित्यकार, पत्रकार, फिल्मी कलाकार या टीवी आर्टिस्ट जो कुछ भी परोसते है, उसी से समाज के वर्तमान स्वरूप का निर्माण हुआ है. यह बहस हमेशा ऐसे ही चलती रहेगी कि संचार माध्यमों ने समाज को खराब किया है या समाज का पतन ही हमारे मीडिया के कार्यक्रमों में मुखरित होता है. यही कहावत है – अंडा पहले या मुर्गी?
यहां एक बात ध्यान देने लायक है. हमारे नैतिक मूल्यों में जितनी तेजी से गिरावट पिछले दस-पंद्रह सालों में आयी है, उतनी शायद पिछले हजार वर्षों में भी नहीं आयी. कहीं इसके पीछे दूरदर्शन का बेतहाशा प्रसार तो नहीं? पत्र-पत्रिकाओं की पाठक संख्या टी.वी. देखने वालों के मुकाबले नगण्य है. अत: टी.वी. पर जो कुछ भी दिखलाया जाएगा उसका व्यापक असर समाज के हर वर्ग पर होना निश्चित है. शायद इसीलिए विगत पंद्रह वर्षों में टी.वी. एवं फिल्मों के माध्यम से जो कूड़ा-कचरा हमने समाज को दिया है, उसका परिणाम सामने है. दिखावे की संस्कृति जहां पहले समाज के एक अति छोटे उच्च वर्ग तक ही सीमित थी, वही आज टी.वी. की कृपा से पूरा समाज ही भोगवादी और हिप्पोक्रैट बनने की राह पर चल पड़ा है. स्वार्थ ने हमें संवेदनाशून्य बना दिया है – अपनों के लिए नहीं, दूसरों के लिए. कला के नाम पर नग्नता, अश्लीलता एवं कड़वी वास्तविकता का चित्रण हमें बहुत महंगा पड़ रहा है. क्या प्रेमचन्द जी की कहानियों में उस समय के समाज का यथार्थ चित्रण नहीं है? उन्होंने यथार्थ चित्रण के साथ-साथ आदर्शों का भी ध्यान रखा. केवल गरीबी, शोषण और अन्याय का चित्रण कर लोगों के अंदर निराशा नहीं भरी. हर कहानी में उन्होंने यथार्थ और आदर्श का सुन्दर समन्वय किया ताकि समाज अपनी बुराइयां समझे और उन्हें दूर करने के लिए आशावान रहकर प्रयास करें. ऐसे साहित्यकार रचनात्मक थे, विध्वंसक नहीं. साहित्य में किस प्रकार “सत्यम्” के साथ-साथ “शिवम् और सुन्दरम्” का समावेश किया जा सकता है – यह कोई उनकी कहानियों में आसानी से देख सकता है. आज यदि फिल्म, टीवी एवं पत्र-पत्रिकाएं इस बात का ख्याल रखें कि उनकी प्रस्तुतियों में हमारी संस्कृति का सौन्दर्य एवं जीवन के नैतिक आदर्श लुप्त न हो जाएं तो वे समाज को वर्तमान पतन के गड्ढे से निकाल कर फिर पुरानी बुलंदियों पर पहुंचा सकते हैं. उन्हें ‘सत्यम शिवम सुन्दरम’ के निर्वाह के लिए अपनी रचनाओं में हल्की कृत्रिमता लाने का खतरा भी उठाना पड़ेगा जिसके लिए कला शास्त्रियों की आलोचना का शिकार होना होगा. लेकिन, समाज इन कलाशास्त्रियों से ऊपर है.
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