Skip to main content

शेयर मार्केट: जुआ संस्कृति या कार्य संस्कृति

जुआघरों से ज्यादा खतरनाक है शेयर मार्केट :
यूनिट ट्रस्ट एवं इसके यूनिटधारकों को हुए भयंकर नुकसान पर एक महीने तक भयंकर चिल्लपों मची-सदन में हंगामा हुआ, वित्त मंत्री के इस्तीफे की मांग हुई – एक दो गिरफ्तारियां हुईं और उसके बाद सब कुछ शांत हो गया. अखबारों से यूनिट ट्रस्ट का नाम ऐसे उड़नछू हुआ, जैसे गधे के सिर से सींग. यूनिट ट्रस्ट में हुए भयावह नुकसान को घोटाले का नाम देना, सच्चाई से मुंह मोड़ना है. शेयर बाजार विशुद्ध रूप से एक जुआघर है. चाहे कितने ही बड़े–बड़े फाइनेंस विशेषज्ञ इससे जुड़े हों – लाखों किताबें और पत्रिकाएं हों, पूरा डाटा बैंक बनाकर कम्पनियों की स्थिति का विश्लेषण अप टू डेट किया जा रहा हो, लेकिन जिस समय मंदी आती है, सारे शेयर औंधे मुंह नीचे गिर पड़ते हैं. जिस समय तेजी आती है, सभी शेयरों की कीमतों में गगनचुम्बी वृद्धि होने लगती है. जब भाव बढ़ते है – ये विशेषज्ञ अपनी भविष्यवाणियों की दुहाइयां देना शुरू कर देते हैं – मूंछ पर ताव देते हैं – और अधिक वृद्धि की बातें तर्क दे-देकर करने लगते हैं. नतीजा होता है कि शेयर धारक अपने शेयरों से चिपका रह जाता है – बेच ही नहीं पाता. अधिक लाभ पाने की नीयत एवं लोभ से मुक्त होना इतना आसान नहीं होता. जुए के सभी खेल ऐसे ही लोभ से परिचालित होते हैं – यह मानवीय कमजोरी है, जिससे 90 फीसदी व्यक्ति छूटकारा नहीं पा सकते. अधिक लाभ की मृगमरीचिका उसे लोभ के रेगिस्तान में भटकाती है, तड़पाती है, परेशान करती है. चार सौ रुपये के शेयर पांच हजार रुपये में बेच कर हुए लाभ से भी संतुष्ट नहीं. यदि बाजार में दाम दस हजार हो गया, घाटे की हालत में तो वैसे ही मन खराब होना है. शेयर मार्केट में खेलने वाला कभी संतुष्ट नहीं हो सकता, मानसिक रूप से रूग़्ण रहेगा ही.
जिन शेयर धारकों ने अपनी बुद्धि एवं विवेक का इस्तेमाल कर शेयर बाजार में पैसे लगाये – वे तो सरकार को कोई दोष नहीं दे सकते – नुकसान हुआ है, बर्बाद हो गये हैं – क्या कहें, किससे कहें. लेकिन यूनिट ट्रष्ट सरकारी संस्था द्वारा संचालित है – जब तक इसके यूनिटधारकों को बीस प्रतिशत से 24 प्रतिशत डिविडेंड मिलता रहा, उन्होंने किसी से नहीं पूछा कि यूनिट ट्रष्ट कहां की आय से इतना अधिक लाभांश बांट रहा है, सामान्य ब्याज दर से दो-ढाई गुने. उस समय भी सभी धारकों की मालूम था कि ट्र्ष्ट ने शेयर बाजार में पैसे लगाये हैं, वहीं से अनाप-शनाप आमदनी हो रही है, जिसे धारकों में बांटा जा रहा ट्र्स्ट के प्रबंधन से जुड़े पदाधिकारी भी आदमी हैं, मानवीय कमजोरियां भी उनमें होंगी. ईमानदार रहते हुए भी उनके द्वारा किये आकलन में गलती हो सकती है. नयी कंपनी के सस्ते शेयर में ट्र्स्ट का धन लगा दिया, विश्वास था कि कंपनी चलेगी और मुनाफा देगी. कंपनी डूब गयी और ट्रस्ट का धन बर्बाद हो गया. हां, कभी –कभी ये पदाधिकारी अपने लाभ या रिश्तेदारों के लाभ के लिए भी गलत निर्णय लेंगे. जान बूझ कर किसी फरेबी कंपनी के शेयर ऊंचे दाम पर खरीद लिए – शेयर खरीदने के कारण बाजार में भी दाम बढ़ने लगे – दुगुना और तिगुना हो जाना तो मामूली बात है. पदाधिकारियों ने अपनी पीट थपथपाई कि कितना सही निवेश किया. कंपनी के मालिकों ने बाजार में ऊंचे से ऊंचे दामों पर अपने शेयर सलटा कर मुनाफा कमा लिया और छोड़ कंपनी को भाग्य के भरोसे. कंपनी के शेयर टूट कर दस-बीस रुपयों में आ गये, आम निवेशक के पैसे गये. यूनिटधारकों के पैसे डूबे, पदाधिकारियों की चांदी हुई और रिश्तेदारों ने दीवाली मनायी.
कम्पनियां वेतन घटा रही हैं, लोगों को भी निकाल रही हैं:
तीन-चार साल पूर्व भी शेयर बाजार जब औंधे मुंह नीचे गिरा था, यूनिट ट्रष्ट संकट में आ गया था, शोर-गुल हुआ था, सरकार ने कई हजार करोड़ रुपयों का सहारा दिया. उसी समय यूनिट धारकों और सरकार को चेत जाना था. वित्त मंत्री का कहना है कि उनसे पूर्ववर्ती सरकार के समय में यूनिट ट्रष्ट ने अपने फंड का बड़ा हिस्सा शेयर बाजार में लगाया. इसमें उसका कोई दोष नहीं. यदि वित्त मंत्री इतने ही बड़े विशेषज्ञ हैं तो बाजार बढ़ने पर उन्होंने यूनिट ट्रस्ट पर दबाव डाल कर उसका निवेश शेयर बाजार में घटाने की कोशिश क्यों नहीं की? कहने का तात्पर्य है कि जिन लोगों ने यूनिट ट्रस्ट में पैसे लगाये. उन्होंने समझ-बुझ कर लगाये. जहां भी अधिक लाभ होता है, वहीं खतरा अधिक होता है. यह बात भी सभी जानते हैं. सो जब लाभ मिला तो वाह-वाह और जब नुकसान की नौबत आयी तो सरकार को जिम्मेदार ठहरा दिया, सरकार फिर से तैयार हो गयी यूनिट ट्रस्ट को सहारा देने के लिए, ताकि ट्रस्ट में जो रिटायर्ड अफसरों और कर्मचारियों के पैसे लगे हैं, वे डूब न जायें. शेयर मार्केट जुआघर है, सीधे निवेश कीजिए या म्युचुअल फंड के माध्यम से या सरकारी म्युचुअल फंड से, जब शेयर मार्केट पटखनी खाता है, सभी को नुकसान होगा ही, नुकसान उठाने के लिए भी तैयार रहना चाहिए. जब जुआ खेलने निकल पड़े, तो बरबादी के लिए भी तैयार रहिये. उस समय सरकार को दोष देने से क्या फायदा? यह मार्केट तो ऐसा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति को छींक आयी और सौ-दो सौ प्वाइंट लुढ़्क गया. यदि सच कहा जाये तो जुए से भी खतरनाक हो गया है शेयर मार्केट, जुआ खेलने वालों की तो निंदा होती है, शेयर मार्केट में खेलने वाले वित्त विशेषज्ञ कहलाते हैं, सम्मान पाते है. खैर सरकार ने भी गलती की है. पिछली बार यूनिट ट्रस्ट को संकट में उबारने के बाद कुछ कड़े कदम उठा कर इसकी कार्यप्रणाली को बदलना चाहिए था. सुरक्षित निवेश के इसके लुभावने नारों को बंद करा देना था. यूनिट धारकों को नुकसान की चेतावनी भी साथ-साथ देनी थी. बेहतर तो तब हो जब सरकार ऐसे संस्थान ही बंद करा दें. कंपनियों के 10 रुपये के शेयर की कीमत बाजार में 10 हजार और 20 हजार हो जाना ऐसे ही हास्यास्पद है. इस बार तो पचासों कंपनियों के शेयर सौ गुना से हजार गुने तक बढ़ गये. नयी थ्योरी आयी, ग्रोथ स्टॉक की पुराने औजार इ.पी.एस. और पी.इ. अनुपात वगैरह कूड़ेदान में डाल दिये गये. किसी कंपनी के इस वर्ष 10 रुपये के शेयर पर 50 रुपये कमाये और हर साल 50 से 100 ग्रोथ का आश्वासन दे रही है, तो पांच वर्षों में उसकी आमदनी आकाश भी फाड़ देगी. लोगों ने इसी ग्रोथ थ्योरी के बल पर इन कंपनियों के शेयरों की कीमत अभी से सैंकड़ों गुना बढ़ा दी. यह नहीं सोचा कि इतने अधिक लाभवाले क्षेत्र में और भी कंपनियां आयेंगी, कम्पीटीशन बढ़ेगा और ग्रोथ रूक जायेगी. ये वित्त विशेषज्ञ भी कमाल की कल्पना शक्ति और बरगलाने की ताकत रखते है. बाजार बढ़ा और सी.एफ.ए. तथा एम.बी.ए. की डिग्रीवाले छात्रों की मांग और वेतन में भी गगनचुम्बी वृद्धि हो गयी. अहमदाबाद कॉलेज से निकलने वाले एम.बी.ए. को एक करोड़ रुपये की तनख्वाह का ऑफर मिला. कितने ही बुद्धिमान हों ये नये छोकरे क्या करके दिखला देंगे. इतनी तनख्वाह क्यों? जब शेयर बाजार का गुब्बारा फूटा, चारों ओर अफरा-तफरी मच गयी. कंपनियों से लोग हटाये जाने लगे. पहले इन कंपनियों ने नहीं सोचा था कि इतनी ऊंची तनख्वाह देकर अपने यहां लोगों की बहाली करके वे कैसे लाभ कमायेंगी और जीवित रहेंगी. आज पूरी दुनियां में मंदी का भयंकर दौर आया है. हर देश में बेरोजगारी की समस्या सुरसा के मुंह की तरह सुख-शांति निगलने को तैयार है. 40-50 हजार रुपये महीने की न्यूनतम तनख्वाह से दो-ढाई लाख रुपयों की तनख्वाह की मौज पाने के बाद ये सूचना तकनीकी विशेषज्ञ, इंजीनियर और एम.बी.ए. अब 10-15 हजार रुपये की नौकरी हजम नहीं कर पा रहे है, कंपनियों ने एकाएक महसूस किया कि उन्होंने बहुत ऊंची तनख्वाह देकर गलती कर रही थी, वे तनख्वाह घटा रही हैं, लोगों को भी निकाल रही हैं.
ई-कॉमर्स का आइडिया फेल हो गया:
शेयर बाजारों की अस्थिरता ने इस मंदी को लाने और बढ़ाने में बड़ी भूमिका अदा की है. लोग कहेंगे कि कंपनियों की हालत पतली हुई, जिसके कारण शेयर बाजार टूटा. मेरा विचार है – पिछले दो वर्षों में शेयर बाजार ने इन कंपनियों के शेयरों का भाव, इतने उच्च एवं कल्पनातीत स्तर पर ला दिया था कि ये कंपनियां अपनी औकात ही भूल गयीं और इन्होंने सुनहले भविष्य की आशा में ऊल-जलूल निर्णय लेने शुरू कर दिये. छोटी-छोटी कई कंपनियों को ई-कॉमर्स के नाम पर दो सौ – तीन सौ करोड़ में खरीदना शुरू कर दिया. ई-कॉमर्स का आईडिया फेल हो गया और उसी में ढेर हो गयीं ये कंपनियां. यदि शेयर बाजार ने इनके शेयरों के भाव में अनाप-शनाप वृद्धि न की होती, तो शायद ये कंपनियां अपनी औकात में रहतीं और ये गलतियां नहीं करतीं. कहते हैं कि शेयर मार्केट स्वस्थ इकोनॉमी के लिए आवश्यक है. मुझे तो लगता है कि इकोनॉमी की हत्या करनी हो, तो शेयर मार्केट की गतिविधियों को हवा दीजिये. आम जनता की पसीने की कमाई कपूर बन गयी, लोगों की कमर टूट गयी. बच्चे, बूढ़े, गृहिणियां, क्लर्क, पानवाले, खोमचे वाले – सब इसके आकर्षण में बर्बाद हो गये, कहीं तो नियंत्रण होना चाहिये. अधिकतर लोग यही समझते हैं कि यदि किसी देश का शेयर मार्केट तेजी पर है, तो वहां की आर्थिक स्थिति बहुत बढ़िया है. यही कारण है कि सरकारें सरकारी वित्तीय संस्थानों के माध्यम से मार्केट को हवा देती रहती हैं, ताकि शेयर मार्केट में तेजी जारी रहे और सरकार की वाहवाही होती रहे. इस विचारधारा की पोल सार्वजनिक रूप से खोल कर, इसके नुकसानों से आम जनता को प्रशिक्षित करना चाहिये. इंदिरा जी के समय तक सरकारी शिकंजों में जकड़ी अर्थव्यवस्था की मजबूती का सूचक ये शेयर बाजार नहीं समझे जाते थे. यह सार्वजनिक जुआघर तो राजीव गांधी और वी.पी. सिंह के काल में सरकार की प्रतिष्ठा का ध्वजवाहक बन गया. उसके बाद तो मनमोहन सिंह और परवर्ती वित्त मंत्रियों ने हमेशा इस बात पर ध्यान दिया कि शेयर मार्केट बुलंदी पर रहे.
कितनी बड़ी नासमझी वित्त विशेषज्ञों ने की. आर्थिक उदारीकरण के नाम पर विदेशी निवेशकों ने जो भी पैसा यहां लगाया, यहां के शेयर मार्केट में लगाया. यहां कारखाने नहीं खोले, टेक्नोलॉजी नहीं दी – यहां के कारखानों में निवेश नहीं किया, वेंचर कैपिटलिस्ट भी यहां से दूर रहे. हमारी सरकार ने भी बैंकों में शेयर सर्टिफिकेट गिरवी रखकर कर्ज लेने की प्रणाली को छूट देकर सरल बना दिया. जुआड़ियों ने शेयर खरीदे, उन्हें बैंक में गिरवी रख कर ऊंची ब्याज दर पर कर्ज लिया, उससे फिर शेयर खरीदा – इन शेयरों को भी गिरवी रखा – यह चक्र चलता रहा. बस बैंकों का अधिकाधिक पैसा शेयर बाजार में आता गया, आग में घी पड़ता गया, आंच तेज होती रही – सेंसेक्स रोज रिकार्ड तोड़ने लगा और सरकार समझती रही कि देश की अर्थव्यवस्था अभेद्य हो गयी है, खुलेआम ढोल भी पीटती रही. विदेशी निवेशकों ने अपना पैसा निकालने के लिए शेयर बेचे, बाजार टूटने लगा, बैंकों से कर्ज लेकर शेयर खरीदने वाले भारतीय निवेशक ब्याज दे-देकर दिवालिया हो गया. अपने अकूत धन के बल पर ये विदेशी निवेशक यहां के शेयर मार्केट से हजारों करोड़ रुपये कमा कर निकल गये.
जुआ संस्कृति छोड़ कार्य संस्कृति को महत्व देना होगा :
देश की अर्थव्यवस्था दूसरे तरीके से भी चौपट हुई. कम्पनियों के शेयरों के दाम जब आकाश चूमने लगे, तो उन कम्पनियों को गलतफहमी हो गयी. वे समझने लगीं कि सुनहले भविष्य की असीम संभावनाएं हैं – उनकी प्रबंधन शैली एकदम ठीक है – सुधार की जरूरत नहीं. सुधार किया भी तो अनाप – शनाप खर्चें बढ़कर, टिपटॉप विलासितापूर्ण ऑफिस बनाकर और अत्यधिक तनख्वाह पर नौकरी देकर. कॉलेजों से निकलने वाले नये रंगरूट विशेषज्ञों की क्षमता का गलत आकलन कर उन्हें करोड़पति बना दिया, अनुभवी और किफायत से काम करने वालों को पुराना एवं मिसफिट घोषित कर निकाल-बाहर किया गया इन कम्पनियों में. अमेरिका और जापान की नकल में पागल हम भारतीयों ने शेयर मार्केट को ही सब कुछ समझ लिया. अमेरिका और जापान जैसे देशों ने अपने यहां कारखाने लगाये, उनकी उत्पादकता बढ़ायी, गुणवत्ता में वृद्धि करते रहे, रिसर्च डेवलपमेंट के जरिये अपने प्रोडक्ट में सुधार करते रहे, उन्हें लोगों की नित्य प्रति बदलती जरूरतों के मुताबिक ढालते रहे, अधिक उपयोगी और सुविधापूर्ण बनाते रहे. जब भी कोई नयी चीज निकाली उस पर खूब मुनाफा कमाया, जब दूसरी जगहों पर बनने लगी, तो अपने प्रोडक्ट का दाम कई गुणा कम करके उन देशों में पनपनेवाले नये उद्योगों को तबाह कर दिया. इनके यहां शेयर मार्केट नये उद्यमों में निवेश करवाने के साधन हैं, लेकिन सरकारों का विशेष ध्यान इनकी सेहत पर नहीं रहता. अर्थव्यवस्था की सेकेंडरी गतिविधि के रूप में इन शेयर बाजारों को देखा जाता है. हमारी भारतीय सरकारों और वित्त मंत्रियों ने शेयर मार्केट को ही अर्थव्यवस्था का त्वमेव माता च पिता त्वमेव समझ लिया विगत 12-13 वर्षों में. सरकार जुआ खेला रही है – लॉटरियों का प्रचलन घटा, तो शेयर मार्केट ने सभी को आकर्षित कर लिया. सरकार को अपना नजरिया बदलना ही होगा. देश की अर्थव्यवस्था को जुआड़ियों के चंगुल से निकालना ही होगा. जुआ संस्कृति जहां होगी, कार्यसंस्कृति वहां पनप ही नहीं सकती. हमारे देश में फलित ज्योतिष और जुआ संस्कृति का वर्चस्व हर युग में रहा है, इसीलिए कार्यसंस्कृति को महत्व कभी नहीं मिला. हां जिस समय यहां का आम आदमी कुटीर उद्योगों से जुड़कर अपनी मेहनत से कमा रहा था, उस समय यह देश सोने की चिड़िया अवश्य कहलाता था. वक्त फिर आ गया है, जुआ संस्कृति से छुटकारा पाने का – सबसे पहले शेयर बाजार की गतिविधियों को सीमित करना होगा, उस पर अंकुश लगाकर अनाप-शनाप तेजी और मंदी के अवसरों को कम करना होगा – दिवास्वप्न दिखलाने वाले चिटफंड कंपनियों, प्लांटेशन कंपनियों आदि पर नियंत्रण लगाना होगा तभी लोग जुए की मानसिकता से उबर कर मेहनत एवं बुद्धि से धन अर्जित करने की ओर ध्यान दे पाएंगे और यह देश फिर से सोने की चिड़िया बन सकेगा.

Comments

Popular posts from this blog

“हर घड़ी शुभ घड़ी, हर वार शुभ वार”

रांची के हरमू स्थित श्मशान घाट का नाम ‘मुक्तिधाम’ है जिसे मारवाड़ी सहायक समिति ने बहुत सुंदर बनाया है, बारिश एवं धूप से चिताओं की सुरक्षा हेतु बड़े- बड़े शेड बने हैं, चिता बुझने का इंतजार करने वाले लोगों के लिये बैठने की आरामदायक व्यवस्था है, जिंदगी की क्षणभंगुरता को व्यक्त करते एवं धर्म से नाता जोड़ने की शिक्षा देते दोहे एवं उद्धरण जगह- जगह दीवारों पर लिखे हैं. हर तरह के लोग वहां जाते हैं, दोहे पढ़ते हैं, कुछ देर सोचते भी हैं, मुक्तिधाम से बाहर निकलते ही सब कुछ भूल जाते हैं. इन दोहों का असर दिमाग पर जीवन से भी अधिक क्षणभंगुर होता है.मुक्तिधाम में गुरु नानकदेव रचित एक दोहा मुझे बहुत अपील करता है- “हर घड़ी शुभ घड़ी, हर वार शुभ वार; नानक भद्रा तब लगे जब रूठे करतार.” पता नहीं दूसरे क्या समझते व सोचते हैं. आज से पचास साल पहले लोग यात्रा पर निकलने से पूर्व मुहूर्त दिखला लेते थे, जिस दिशा में जाना है, उधर उस दिन दिशाशूल तो नहीं, पता कर लेते थे. अमुक- अमुक दिन दाढी नहीं बनवानी, बाल एवं नाखून नहीं कटवाने, इसका भी कड़ाई से पालन करते थे. मूल नक्षत्र में कोई पैदा हो गया, तो अनिष्ट की आशंका दूर करने हेतु ...

रैगिंग- क्या, क्यों और क्यों नहीं ?

हर वर्ष नये एडमिशन के बाद पूरे देश के अनेक इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट और कुछ अन्य कॉलेजों में जब नये छात्र प्रवेश लेते हैं, तो पुराने सीनियर छात्र उन्हें नये माहौल में ढालने के नाम पर उनकी रैगिंग करते हैं. रैगिंग का मतलब ही होता है किसी की इतनी खिंचाई करना कि उसके व्यक्तित्व और स्वाभिमान के चीथड़े- चीथड़े हो जाएं. कई सीनियर छात्रों के द्वारा किसी एक नये छात्र को घेरकर ऊलजलूल सवाल करना और हर जबाब को गलत बताते हुए खिल्ली उड़ाना, ऊटपटांग हरकतें करवाना, गालीगलौज और अश्लील बातें करके नये छात्रों को मानसिक और शारीरिक यंत्रणा देना ही रैगिंग है. रैगिंग के परिणाम स्वरूप हर वर्ष दो-चार छात्र आत्महत्या कर लेते हैं, कुछ मानसिक रूप से गंभीर बीमार हो जाते हैं. वैसे तो अधिकांश नये छात्र रैगिंग के फलस्वरूप अल्ट्रामॉडर्न बन जाते हैं, लेकिन कुछ लड़कों को रैगिंग के दौरान जबर्दस्त झटका लगता है. वे जो कुछ बचपन से किशोरावस्था तक पहुंचने में सीखे हुए होते हैं, सब एक झटके में धराशायी हो जाता है. यहां तो हर वाक्य में “मां-बहन” को लपेटती हुई बुरी- बुरी गालियां दी जाती हैं, सिखाई और रटवाई जाती हैं, वर्जित सेक्स ...

आखिर कितना बडा अपराध कर दिया रवि राज ने ?

सुनहले भविष्य का सपना आंखों में संजोए 21 वर्ष का होनहार कस्बाई युवा रवि राज शिकार हो गया है बचकानी गफलत का, क्रूर मीडिआ ने उसे कुछ इस प्रकार बार- बार पेश किया है जैसा किसी आतंकवादी को भी नहीं किया जाता. उसके सिर पर कपडा डालकर चारों ओर से उसे घेरकर ढेर सारे पुलिस के जवान कोर्ट में पेश करने के लिये ले जा रहे हैं – दिन में पचास बार इसी दृश्य को दिखलाकर क्या मकसद पूरा हुआ ? कोर्ट में उसपर मुकदमा चलेगा, लंबा भी खिंच सकता है, उसे कुछ होने का नहीं, छूट जायेगा क्योंकि उसने ऐसा कोई अपराध किया ही नहीं. लेकिन शायद पुलिस और मीडिआ का यह व्यवहार उस होनहार लडके को हमेशा के लिये नॉर्मल जिन्दगी से दूर कर दे, लडका डिप्रेशन में भी जा सकता है, आत्महत्या कर सकता है या फिर स्थायी रूप से अपराधों की दुनिया में जा सकता है. एक तरफ तो तिहाड जेल में शातिर अपराधियों को सुधारने के प्रोग्राम चलाये जाते हैं, दूसरी ओर सस्ती सनसनी के लिये इतने नाजुक मामले को पुलिस और मीडिआ इतने क्रूर और नासमझ तरीके से हैंडिल करती है और पूरा देश चस्के लेता है. जो कुछ भी इंटरनेट पर सर्वसुलभ था, उसकी सी. डी. बनाकर उसने बाजी डॉटकॉम पर बे...