राज्य-गठन के आठ वर्षों में झारखंड में चार मुख्य मंत्री हुए, चारों आदिवासी, आगे भी आदिवासी ही होंगे, अधिकांश मंत्री भी आदिवासी ही रहे, काबिल या नाकाबिल होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, बस आदिवासी होने का ठप्पा होना चाहिये. ऐसा कोई कानून नहीं है, केवल आदिवासियों के तुष्टिकरण के लिये, उन्हें फुसलाने के लिये ये प्रथा चल पडी है. हम एक गलत सोच के शिकार हैं कि आदिवासी ही आदिवासियों की समस्याओं को समझकर उनका निदान निकाल सकते हैं. झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्य साथ-साथ बने, यहां 26.3% आदिवासी हैं जबकि छत्तीसगढ़ में 31.8%. उस लिहाज से तो छत्तीसगढ़ में भी आदिवासी मुख्यमंत्री ही होना चहिए था जबकि गैरआदिवासी डॉ रमन सिंह ने विगत 5 वर्षों में वहां मुख्य मंत्री के रूप मे सुशासन और विकास की गंगा बहा दी है और चार आदिवासी मुख्यमंत्रियों ने झारखंड को अराजकता के गर्त में पहुंचा दिया है, यहाँ तक कि राष्ट्रपति शासन ही लग गया. छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के विकास की योजनाएं मूर्त रूप ले रही हैं और यहाँ तो अबतक कोई योजना ही नहीं बन पायी. पता नहीं आदिवासी मुख्यमंत्री ही हो की जिद से अभी तक हमें छुटकारा क्यों नहीं मिल पाया है. आदिवासी संस्कृति, आदिवासी अस्मिता एवं अस्तित्व की रक्षा के लिये आदिवासी नेतृत्व आवश्यक है, इस बात में कितना दम है इसे आँकने के पहले आइये हम यह तो देखें कि किस आदिवासी संस्कृति और अस्मिता की बातें ये लोग करते हैं
सही हो या गलत, भला लगे या बुरा, लेकिन यह कटु सत्य है कि सभ्यता को वर्तमान स्वरूप तक पहुंचाने में आदिवासियों का कोई योगदान नहीं है. हजारों सालों तक वे विकसित होते समुदायों से हमेशा कटे रहे, दूर रहे.यह भी हो सकता है कि डरा- धमका कर सभ्यता के हर दौर में उन्हें पलायन को मजबूर किया गया हो. आज जब मुख्य धारा में उनके आने का संयोग बन रहा है तो उनके ही स्वार्थी नेता अपनी संस्कृति के लुप्त एवं दूषित हो जाने का भय दिखलाकर रुकावटें खड़ी कर रहे हैं. आदिवासी संस्कृति को बचाने के नाम पर उन्हें आज की सभ्यता-संस्कृति से दूर रखना उन्हें अजायबघर और चिड़ियाघर की चीजें बनाए रखने की तरह है. मानव सभ्यता के विकास के क्रम में आराम, मनोरंजन, एवं सुरक्षा के जो नये- नये साधन हासिल हुए, उनमें से आदिवासियों को क्या अपनाना चाहिए और क्या नहीं, इस पर अभी तक किसी ने प्रकाश नहीं डाला. आधुनिक संसाधनों का जमकर उपभोग करो, साथ ही आधुनिक सभ्यता-संस्कृति को, उनको विकसित करनेवाले वैज्ञानिकों-इजीनियरों को गालियां भी देते चलो, यही तो राज और रिवाज है इन आदिवासी नेताओं के अस्तित्व का जिसका वे नियमित रियाज करते रहते हैं.
क्या आदिवासियों के पहनावे में परिवर्तन वांछनीय होगा, यदि वे पत्ते या पेड़ों की छाल लपेटते हैं, या वे सिर्फ एक लंगोटी पहनते हैं और उनकी औरतें ब्लाउज से दूर भागती हैं तो क्या उन्हें कुर्ता-पैजामा या कमीज-पैंट और उनकी महिलाओं को साड़ी- ब्लाउज पहनाने से उनकी संस्कृति खतरे में नहीं पड़ जाएगी? यदि वे कच्चा माँस या भोजन करने के अभ्यस्त हैं, या सिर्फ मांड़-भात, नमक और हड़िया पर उनका गुजारा होता है, तो क्या उन्हें आधुनिक हजारों व्यंजनों से परिचित कराना और उनका चस्का लगाना उनकी संस्कृति को विकृत करना नहीं होगा? इस तरह के अनेक सवाल उनके बर्तनों, घरों और अन्य दैनिक जरूरतों के साधनों के संबन्ध में उठेंगे. फिर बात आएगी यातायात, संचार, मनोरंजन, चिकित्सा और आराम के आधुनिक साधनों के इस्तेमाल की. प्रश्न उठेगा कि बिजली का इस्तेमाल वे कैसे और क्यों करेंगे. क्या होगा उनकी शिक्षा का, व भाषा का, सबकुछ तो एकदम अलग है, क्या छोड़ेंगे, क्या अपनाएंगे और क्यों अपनाएंगे? अब बारी आएगी संगीत, कला और साहित्य की. इन क्षेत्रों में अभी भी वे प्रारंभिक दौर में ही हैं, क्या उन्हें आधुनिक उपकरणों एवं विकास के अन्य सोपानों के इस्तेमाल से परहेज न होगा. एक और समस्या है, अलग अलग क्षेत्र के आदिवासियों की संस्कृति में भी विभिन्नता है, उनमें सामंजस्य कैसे स्थापित होगा?
क्या छोड़ें, क्या रखें और क्या नया अपनाएं ये आदिवासी :
वैसे तो आदिवासियों को ऐतिहासिक धरोहर घोषित कर यथास्थिति बनाए रखने में उनके नेताओं का अपना फायदा है, लेकिन यह निरीह आदिवासियों पर अन्याय है. उनके लिये तमाम आरक्षणों एवं सुविधाओं का प्रावधान किया गया, लेकिन लाभ उनतक नहीं पहुंच पाया, क्योंकि उनका दोहन और शोषण पहले दूसरे लोग करते थे, अब तो अपने लोग ही बढ़-चढ़ कर उनके नाम पर बटोरने में लगे हैं.
जल-जंगल-जमीन पर आदिवासियों का कितना अधिकार हो, इसपर बहस चल ही रही थी, आंदोलन हो रहे थे कि नये और बड़े सवाल उठ खड़े हुए - जंगल के उत्पाद पर किसका स्वामित्व हो, जंगल की जमीन के नीचे की खनिज संपदा किसकी होनी चाहिए. अभी तक तो यह संपदा राज्य की होती थी, अब उसपर रह रहे आदिवासियों के स्वामित्व की बातें उठ रही हैं. पहले भी उनकी जमीन का अधिग्रहण होता रहा, उन्हें मुआवजा मिला, नौकरी भी मिली, लेकिन सब कुछ आलस्य और मौज में हड़िया- दारू की भेंट चढ़ गया, मन हुआ तो काम पर गये, वरना पीकर घर पर ही पड़े रहे. ऐसी हालत में कौन उद्दमी इन्हें अपने यहां काम पर रखकर खुश रहेगा. जबतक इन्हें शिक्षित नहीं किया जाएगा, इनकी सोच में बदलाव नहीं आएगा, कुछ भी दे दिया जाए, कितना भी दे दिया जाए ये वापस दयनीय स्थिति में आ जाएंगे. ईसाई मिशनरियां अपने विद्यालयों में इन्हें उचित शिक्षा देकर एवं गिरजाघरों में सही मार्गदर्शन कर इनकी जीवन शैली एवं जीवन स्तर में गुणात्मक सुधार ले आती हैं. इन मिशनरियों की तरह ही लगन और ईमानदारी से अन्य संस्थाओं को काम करना होगा. हजारों सालों से जिस जड़ता का शिकार ये लोग रहे, उससे बाहर निकलना बहुत मुश्किल होता है, ईमानदार कोशिश कहीं भी नहीं हो रही, अपने और पराए दोनों ही लोग बस उन्हें सीढी बनाकर अपना विकास कर रहे हैं.
इनकी समस्याओं को समझने एवं उनका निदान खोजने में कोई आदिवासी नेता ही सक्षम होगा यह बहुत बड़ा भ्रम है जिसका शिकार नवोदित राज्य झारखंड अपने निर्माणकाल के प्रथम दिन से हो गया है. यही वजह है कि आदिवासियों का रत्ती भर भी आर्थिक विकास यहां आठ वर्षों में नहीं हो पाया, हां, कुछ आदिवासी नेता अपने परिवार के साथ करोड़पति और अरबपति अवश्य हो गये. आदिवासियों में अपने अधिकारों के लिये पहली बार कुछ जागरुकता आयी है, लेकिन लूट खसोट एवं भ्रष्टाचार में लिप्त सरकारी कर्मचारियों, पदाधिकारियों और राजनेताओं से त्रस्त होकर वे या तो नक्सलवादी दलों में शामिल हो रहे हैं या फिर अपराध के रास्ते पकड़ रहे हैं. उनके आसपास के गैरआदिवासी अपनी जमीनें बेच- बेचकर लाखों में खेलने लगे, वे बेचारे न तो अपनी जमीन बेच पा रहे, न सरकारी योजनाओं का लाभ उन तक पहुंच रहा, न आरक्षण का ही कोई फायदा उन्हें मिल रहा. उनके बच्चों की निःशुल्क शिक्षा के लिये सरकारी आवासीय विद्यालय हैं, सरकारी धन उपलब्ध कराया जा रहा है, लेकिन नतीजा शून्य है, शिक्षकों एवं शिक्षा-पदाधिकारियों की लूट ने इन विद्यालयों को मुरगी के दरबों से बदतर बना दिया है, बच्चे वहां बनने की जगह बिगड़ रहे हैं.
इन भोलेभाले आदिवासियों और बाकी लोगों की मानसिक क्षमता एवं मोटिवेशन में इतना बड़ा गैप हो गया है कि वे आधुनिक समाज में मिसफिट हो रहे हैं. जंगल से निकलकर मुख्य धारा में आने की कोशिश में उनकी स्थिति धोबी के कुत्ते जैसी हो गयी है जो न घर का रहा, न घाट का. साथ में अपनी संस्कृति (कौन सी संस्कृति?) को बचाकर रखने का दबाव अलग से बना दिया गया है. एक बड़े भ्रम के भंवर में सब फँस गए हैं, क्या छोड़ें, क्या रखें और क्या नया अपनाएं, कौन स्पष्ट करेगा ? इन आदिवासियों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिये, उनका विकास हो और उनकी संस्कृति की अच्छी बातें भी बरकरार रहें, यह सब काम एक ऐसा निस्वार्थ विद्वान व्यक्ति ही कर सकता है जो आदिवासियों के साथ लंबे समय से जुड़ा हो, जिसके अंदर प्रशासकीय गुण हों, जो विजनरी भी हो. यदि ऐसा व्यक्ति झारखंड में नहीं और बाहर उपलब्ध है तो बाहर से ही ले आकर मुख्य मंत्री बनादेना चाहिए.
सही हो या गलत, भला लगे या बुरा, लेकिन यह कटु सत्य है कि सभ्यता को वर्तमान स्वरूप तक पहुंचाने में आदिवासियों का कोई योगदान नहीं है. हजारों सालों तक वे विकसित होते समुदायों से हमेशा कटे रहे, दूर रहे.यह भी हो सकता है कि डरा- धमका कर सभ्यता के हर दौर में उन्हें पलायन को मजबूर किया गया हो. आज जब मुख्य धारा में उनके आने का संयोग बन रहा है तो उनके ही स्वार्थी नेता अपनी संस्कृति के लुप्त एवं दूषित हो जाने का भय दिखलाकर रुकावटें खड़ी कर रहे हैं. आदिवासी संस्कृति को बचाने के नाम पर उन्हें आज की सभ्यता-संस्कृति से दूर रखना उन्हें अजायबघर और चिड़ियाघर की चीजें बनाए रखने की तरह है. मानव सभ्यता के विकास के क्रम में आराम, मनोरंजन, एवं सुरक्षा के जो नये- नये साधन हासिल हुए, उनमें से आदिवासियों को क्या अपनाना चाहिए और क्या नहीं, इस पर अभी तक किसी ने प्रकाश नहीं डाला. आधुनिक संसाधनों का जमकर उपभोग करो, साथ ही आधुनिक सभ्यता-संस्कृति को, उनको विकसित करनेवाले वैज्ञानिकों-इजीनियरों को गालियां भी देते चलो, यही तो राज और रिवाज है इन आदिवासी नेताओं के अस्तित्व का जिसका वे नियमित रियाज करते रहते हैं.
क्या आदिवासियों के पहनावे में परिवर्तन वांछनीय होगा, यदि वे पत्ते या पेड़ों की छाल लपेटते हैं, या वे सिर्फ एक लंगोटी पहनते हैं और उनकी औरतें ब्लाउज से दूर भागती हैं तो क्या उन्हें कुर्ता-पैजामा या कमीज-पैंट और उनकी महिलाओं को साड़ी- ब्लाउज पहनाने से उनकी संस्कृति खतरे में नहीं पड़ जाएगी? यदि वे कच्चा माँस या भोजन करने के अभ्यस्त हैं, या सिर्फ मांड़-भात, नमक और हड़िया पर उनका गुजारा होता है, तो क्या उन्हें आधुनिक हजारों व्यंजनों से परिचित कराना और उनका चस्का लगाना उनकी संस्कृति को विकृत करना नहीं होगा? इस तरह के अनेक सवाल उनके बर्तनों, घरों और अन्य दैनिक जरूरतों के साधनों के संबन्ध में उठेंगे. फिर बात आएगी यातायात, संचार, मनोरंजन, चिकित्सा और आराम के आधुनिक साधनों के इस्तेमाल की. प्रश्न उठेगा कि बिजली का इस्तेमाल वे कैसे और क्यों करेंगे. क्या होगा उनकी शिक्षा का, व भाषा का, सबकुछ तो एकदम अलग है, क्या छोड़ेंगे, क्या अपनाएंगे और क्यों अपनाएंगे? अब बारी आएगी संगीत, कला और साहित्य की. इन क्षेत्रों में अभी भी वे प्रारंभिक दौर में ही हैं, क्या उन्हें आधुनिक उपकरणों एवं विकास के अन्य सोपानों के इस्तेमाल से परहेज न होगा. एक और समस्या है, अलग अलग क्षेत्र के आदिवासियों की संस्कृति में भी विभिन्नता है, उनमें सामंजस्य कैसे स्थापित होगा?
क्या छोड़ें, क्या रखें और क्या नया अपनाएं ये आदिवासी :
वैसे तो आदिवासियों को ऐतिहासिक धरोहर घोषित कर यथास्थिति बनाए रखने में उनके नेताओं का अपना फायदा है, लेकिन यह निरीह आदिवासियों पर अन्याय है. उनके लिये तमाम आरक्षणों एवं सुविधाओं का प्रावधान किया गया, लेकिन लाभ उनतक नहीं पहुंच पाया, क्योंकि उनका दोहन और शोषण पहले दूसरे लोग करते थे, अब तो अपने लोग ही बढ़-चढ़ कर उनके नाम पर बटोरने में लगे हैं.
जल-जंगल-जमीन पर आदिवासियों का कितना अधिकार हो, इसपर बहस चल ही रही थी, आंदोलन हो रहे थे कि नये और बड़े सवाल उठ खड़े हुए - जंगल के उत्पाद पर किसका स्वामित्व हो, जंगल की जमीन के नीचे की खनिज संपदा किसकी होनी चाहिए. अभी तक तो यह संपदा राज्य की होती थी, अब उसपर रह रहे आदिवासियों के स्वामित्व की बातें उठ रही हैं. पहले भी उनकी जमीन का अधिग्रहण होता रहा, उन्हें मुआवजा मिला, नौकरी भी मिली, लेकिन सब कुछ आलस्य और मौज में हड़िया- दारू की भेंट चढ़ गया, मन हुआ तो काम पर गये, वरना पीकर घर पर ही पड़े रहे. ऐसी हालत में कौन उद्दमी इन्हें अपने यहां काम पर रखकर खुश रहेगा. जबतक इन्हें शिक्षित नहीं किया जाएगा, इनकी सोच में बदलाव नहीं आएगा, कुछ भी दे दिया जाए, कितना भी दे दिया जाए ये वापस दयनीय स्थिति में आ जाएंगे. ईसाई मिशनरियां अपने विद्यालयों में इन्हें उचित शिक्षा देकर एवं गिरजाघरों में सही मार्गदर्शन कर इनकी जीवन शैली एवं जीवन स्तर में गुणात्मक सुधार ले आती हैं. इन मिशनरियों की तरह ही लगन और ईमानदारी से अन्य संस्थाओं को काम करना होगा. हजारों सालों से जिस जड़ता का शिकार ये लोग रहे, उससे बाहर निकलना बहुत मुश्किल होता है, ईमानदार कोशिश कहीं भी नहीं हो रही, अपने और पराए दोनों ही लोग बस उन्हें सीढी बनाकर अपना विकास कर रहे हैं.
इनकी समस्याओं को समझने एवं उनका निदान खोजने में कोई आदिवासी नेता ही सक्षम होगा यह बहुत बड़ा भ्रम है जिसका शिकार नवोदित राज्य झारखंड अपने निर्माणकाल के प्रथम दिन से हो गया है. यही वजह है कि आदिवासियों का रत्ती भर भी आर्थिक विकास यहां आठ वर्षों में नहीं हो पाया, हां, कुछ आदिवासी नेता अपने परिवार के साथ करोड़पति और अरबपति अवश्य हो गये. आदिवासियों में अपने अधिकारों के लिये पहली बार कुछ जागरुकता आयी है, लेकिन लूट खसोट एवं भ्रष्टाचार में लिप्त सरकारी कर्मचारियों, पदाधिकारियों और राजनेताओं से त्रस्त होकर वे या तो नक्सलवादी दलों में शामिल हो रहे हैं या फिर अपराध के रास्ते पकड़ रहे हैं. उनके आसपास के गैरआदिवासी अपनी जमीनें बेच- बेचकर लाखों में खेलने लगे, वे बेचारे न तो अपनी जमीन बेच पा रहे, न सरकारी योजनाओं का लाभ उन तक पहुंच रहा, न आरक्षण का ही कोई फायदा उन्हें मिल रहा. उनके बच्चों की निःशुल्क शिक्षा के लिये सरकारी आवासीय विद्यालय हैं, सरकारी धन उपलब्ध कराया जा रहा है, लेकिन नतीजा शून्य है, शिक्षकों एवं शिक्षा-पदाधिकारियों की लूट ने इन विद्यालयों को मुरगी के दरबों से बदतर बना दिया है, बच्चे वहां बनने की जगह बिगड़ रहे हैं.
इन भोलेभाले आदिवासियों और बाकी लोगों की मानसिक क्षमता एवं मोटिवेशन में इतना बड़ा गैप हो गया है कि वे आधुनिक समाज में मिसफिट हो रहे हैं. जंगल से निकलकर मुख्य धारा में आने की कोशिश में उनकी स्थिति धोबी के कुत्ते जैसी हो गयी है जो न घर का रहा, न घाट का. साथ में अपनी संस्कृति (कौन सी संस्कृति?) को बचाकर रखने का दबाव अलग से बना दिया गया है. एक बड़े भ्रम के भंवर में सब फँस गए हैं, क्या छोड़ें, क्या रखें और क्या नया अपनाएं, कौन स्पष्ट करेगा ? इन आदिवासियों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिये, उनका विकास हो और उनकी संस्कृति की अच्छी बातें भी बरकरार रहें, यह सब काम एक ऐसा निस्वार्थ विद्वान व्यक्ति ही कर सकता है जो आदिवासियों के साथ लंबे समय से जुड़ा हो, जिसके अंदर प्रशासकीय गुण हों, जो विजनरी भी हो. यदि ऐसा व्यक्ति झारखंड में नहीं और बाहर उपलब्ध है तो बाहर से ही ले आकर मुख्य मंत्री बनादेना चाहिए.
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