प्रभात खबर अखबार के घुमतूं संवाददाता अविनाशजी गये थे कुंभ की रिपोर्टिंग करने और खो गये इलाहाबाद की गलियों में, कैद हो गये मजनू के पिंजरे में ( पुलिस ने एक पिंजरा बना रखा था जिसमें लड़कियों से छेड-अछाड़ करने वाले छोकरों को कुछ देर के लिये बंद कर देती थी). इलाहाबाद को समझना इतना आसान नहीं है अविनाशजी! इतने कम समय में कदापि संभव नहीं. आपको इलाहाबाद में हर जगह खालीपन नजर आया, जो सही भी है, लेकिन उसका कारण मजनूं का पिंजरा नहीं.
हां, इलाहाबाद आज इतिहास के ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहाँ गौरवशाली अतीत के लिए आहें भरते बंगालियों का वर्तमान कोलकाता कुछ ही पीछे छूटा है. इतिहास का वह दौर, जब हिंदी साहित्य का हर खूबसूरत पन्ना या तो इलाहाबाद में लिखा जाता था, या उसमें इस शहर का और इसके जीवंत लोगों का जिक्र होता था. महादेवीजी का हर कालजयी पात्र, धर्मवीर भारती के चंदर और सुधा, बच्चन की मधुशाला, फिराक गोरखपुरी के कशिश भरे शेर, ‘अश्क’ के उपन्यासों के मध्यवर्गीय चरित्र, पंतजी का प्रकृति-चित्रण, निराला के राम की शक्तिपूजा, अमृतराय के अनूदित विदेशी चरित्र, सिविल लाइंस का इंडियन कॉफी हाऊस, ‘परिमल’ की साहित्यिक गोष्ठियां, हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्वर्णिम उपलब्धियां - सब कुछ तो हाल-हाल की ही बातें हैं.
नेहरु, शास्त्री और बहुगुणा का इलाहाबाद, मदनमोहन मालवीय और पुरुषोत्तम दास टंडन का इलाहाबाद. कांग़्रेस की ह्रदय स्थली. इलाहाबाद की शहरी सीट समाजवादी छुन्नन गुरु के जीवित रहते कोई उनसे छीन नहीं पाया. चाचा नेहरु के इलाहाबाद में हम बच्चे ‘छुन्नन गुरु की क्या पहचान, हाथ में डंडा मुंह में पान’ गा-गाकर उनके प्रचार और विजय- जुलूस में शामिल होते थे, क्योंकि वे शामिल थे चौबीस घंटे हर परिवार के सुख-दुख में. नहीं जल पाया कभी वहां जनसंघ का दीपक, तब रुप बदल कर आना पड़ा कमल बन कर.
चाट-मिठाई, लस्सी-रबड़ी-मलाई और हरी नमकीन की दालमोट, समोसे, कचौड़ी-दमालू वाले लोकनाथ की पतली गलियों और ऊँची दुकानोंवाला इलाहाबाद जहाँ हर व्यक्ति दूसरे सभी लोगों से जुड़ा था- चाचा, ताऊ, फूफा, बाबा, भैया, ताई, चाची, भौजाई, दादी जैसे रिश्तों से मन नहीं भरे तो भैया, लाला और गुरु जैसे प्रेम में पगे संबोधन हर एक के लिए सुलभ थे, भले ही वह अजनबी ही क्यों न हो. सदियों से चला आ रहा ‘जय रामजी की’ वाला अभिवादन आज भी ‘जय श्रीराम’ में नहीं बदला.
हर साल इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अकेले ही पंद्रह-बीस आइएएस निकलते थे. डॉ जीएन झा और एएन झा छात्रावासों में प्रवेश पा जानेवाला छात्र अपने को आइएएस ही समझता था. प्रयाग संगीत समिति के द्धारा आयोजित नाट्य और संगीत प्रतियोगिताओं में पूरे भारत से प्रतिभागी आकर भाग लेने को ही अपना सौभाग्य समझते थे और पुरस्कृत होनेवाले प्रतिभागी अपने को धन्य समझते हुए वापस लौटते थे.
कहां खो गया वह इलाहाबाद, पिछले 15-20 वर्षों में! कड़ाके की ठंढ हो या मूसलाधार बारिश. हर दिन गंगा-जमुना नहानेवालों ने मुंह अधेरे डुबकी लगाने का व्रत जीवन की आखिरी सांस तक न तोड़ा. हर साल कार्तिक महीने में तारों की छांव में ही हजारों कदम बढ़ जाते हैं जमुना के घाटों की ओर. कटकटाते माघ के पूरे महीने गंगा के किनारे कुटिया बनाकर कल्पवास करते हैं हजारों लोग, एक नया आध्यात्मिक शहर ही बस जाता है वहां, अनेक साधु-संत और प्रवचक बड़े-बड़े भव्य पंडालों में दूर-दूर से आए अपने भक्तों के आवास, भोजन और सुविधाओं का पूरा प्रबन्ध कर देते हैं, भंडारे खुल जाते हैं, धर्म पर दिनरात चर्चा जारी रहती है. दशहरे पर पैजाबा और पथरचट्टी की रामलीलाएं, रात की चौकियां, दिन में निकलनेवाले रामदल, पूरे दस दिन शहर सोता ही नहीं था. जन्माष्टमी पर घर-घर में सजनेवाली झांकियां और दर्शन के लिए निकलते आबाल-वृद्ध नर-नारी, कहीं कोई चंदा उगाही नहीं, कोई विसर्जन जुलूस नहीं, कोई हंगामा नहीं. वसंत पंचमी आयी, आकाश में पेंच लड़ने लगे रंग-बिरंगी पतंगों में, शर्त लगा कर. दुर्गापूजा, कालीपूजा और सरस्वती पूजा सिर्फ कुछ बंगाली मोहल्लों में. वह भी सादगी से पारंपरिक माहौल में. बंधवा के लेटे हुए हनुमानजी हों या रामबाग के बजरंग बली, या फिर गली-मोहल्लों में स्थापित संकटमोचन, बहुत ही श्रद्धा से माथा टेकते, घंटियां बजाते और हनुमान चालीसा गुनगुनाते लोग नजर आ जायेंगे. विगत बीस वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है इलाहाबाद में, हिंदी साहित्य का केंद्र बने रहने की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है इलाहाबाद को. अंग्रेजी का तिरस्कार कर आधुनिकता की दौड़ में पिछड़ गया यह शहर. केवल एजी ऑफिस, हाईकोर्ट, संगम और रेलवे के मंडलीय ऑफिस की बैसाखियों पर कितनी दूर चलती इसकी गाड़ी? दिगभ्रमित-सा खड़ा है, सहमा-ठिठका. अंग्रजी माध्यम स्कूलों की उपेक्षा, बार-बार बदलती सरकारें, आरक्षण, धर्म और जाति के चंगुल में छटपटाती इलाहाबाद की गंगा-जमुनी आत्मा - सभी ने भरमाया है इलाहाबाद को.
झारखंड के राज्यपाल महामहिम प्रभात कुमारजी हो या एसपी अरविंद पांडेय, हर एक का दिल दरक रहा होगा इलाहाबाद की दुर्दशा पर. अविनाशजी को धन्यवाद कि उन्होंने अपनी चिरपरिचित काव्यात्मक शैली में इलाहाबाद की यादों को ताजा कर दिया.
हां, इलाहाबाद आज इतिहास के ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहाँ गौरवशाली अतीत के लिए आहें भरते बंगालियों का वर्तमान कोलकाता कुछ ही पीछे छूटा है. इतिहास का वह दौर, जब हिंदी साहित्य का हर खूबसूरत पन्ना या तो इलाहाबाद में लिखा जाता था, या उसमें इस शहर का और इसके जीवंत लोगों का जिक्र होता था. महादेवीजी का हर कालजयी पात्र, धर्मवीर भारती के चंदर और सुधा, बच्चन की मधुशाला, फिराक गोरखपुरी के कशिश भरे शेर, ‘अश्क’ के उपन्यासों के मध्यवर्गीय चरित्र, पंतजी का प्रकृति-चित्रण, निराला के राम की शक्तिपूजा, अमृतराय के अनूदित विदेशी चरित्र, सिविल लाइंस का इंडियन कॉफी हाऊस, ‘परिमल’ की साहित्यिक गोष्ठियां, हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्वर्णिम उपलब्धियां - सब कुछ तो हाल-हाल की ही बातें हैं.
नेहरु, शास्त्री और बहुगुणा का इलाहाबाद, मदनमोहन मालवीय और पुरुषोत्तम दास टंडन का इलाहाबाद. कांग़्रेस की ह्रदय स्थली. इलाहाबाद की शहरी सीट समाजवादी छुन्नन गुरु के जीवित रहते कोई उनसे छीन नहीं पाया. चाचा नेहरु के इलाहाबाद में हम बच्चे ‘छुन्नन गुरु की क्या पहचान, हाथ में डंडा मुंह में पान’ गा-गाकर उनके प्रचार और विजय- जुलूस में शामिल होते थे, क्योंकि वे शामिल थे चौबीस घंटे हर परिवार के सुख-दुख में. नहीं जल पाया कभी वहां जनसंघ का दीपक, तब रुप बदल कर आना पड़ा कमल बन कर.
चाट-मिठाई, लस्सी-रबड़ी-मलाई और हरी नमकीन की दालमोट, समोसे, कचौड़ी-दमालू वाले लोकनाथ की पतली गलियों और ऊँची दुकानोंवाला इलाहाबाद जहाँ हर व्यक्ति दूसरे सभी लोगों से जुड़ा था- चाचा, ताऊ, फूफा, बाबा, भैया, ताई, चाची, भौजाई, दादी जैसे रिश्तों से मन नहीं भरे तो भैया, लाला और गुरु जैसे प्रेम में पगे संबोधन हर एक के लिए सुलभ थे, भले ही वह अजनबी ही क्यों न हो. सदियों से चला आ रहा ‘जय रामजी की’ वाला अभिवादन आज भी ‘जय श्रीराम’ में नहीं बदला.
हर साल इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अकेले ही पंद्रह-बीस आइएएस निकलते थे. डॉ जीएन झा और एएन झा छात्रावासों में प्रवेश पा जानेवाला छात्र अपने को आइएएस ही समझता था. प्रयाग संगीत समिति के द्धारा आयोजित नाट्य और संगीत प्रतियोगिताओं में पूरे भारत से प्रतिभागी आकर भाग लेने को ही अपना सौभाग्य समझते थे और पुरस्कृत होनेवाले प्रतिभागी अपने को धन्य समझते हुए वापस लौटते थे.
कहां खो गया वह इलाहाबाद, पिछले 15-20 वर्षों में! कड़ाके की ठंढ हो या मूसलाधार बारिश. हर दिन गंगा-जमुना नहानेवालों ने मुंह अधेरे डुबकी लगाने का व्रत जीवन की आखिरी सांस तक न तोड़ा. हर साल कार्तिक महीने में तारों की छांव में ही हजारों कदम बढ़ जाते हैं जमुना के घाटों की ओर. कटकटाते माघ के पूरे महीने गंगा के किनारे कुटिया बनाकर कल्पवास करते हैं हजारों लोग, एक नया आध्यात्मिक शहर ही बस जाता है वहां, अनेक साधु-संत और प्रवचक बड़े-बड़े भव्य पंडालों में दूर-दूर से आए अपने भक्तों के आवास, भोजन और सुविधाओं का पूरा प्रबन्ध कर देते हैं, भंडारे खुल जाते हैं, धर्म पर दिनरात चर्चा जारी रहती है. दशहरे पर पैजाबा और पथरचट्टी की रामलीलाएं, रात की चौकियां, दिन में निकलनेवाले रामदल, पूरे दस दिन शहर सोता ही नहीं था. जन्माष्टमी पर घर-घर में सजनेवाली झांकियां और दर्शन के लिए निकलते आबाल-वृद्ध नर-नारी, कहीं कोई चंदा उगाही नहीं, कोई विसर्जन जुलूस नहीं, कोई हंगामा नहीं. वसंत पंचमी आयी, आकाश में पेंच लड़ने लगे रंग-बिरंगी पतंगों में, शर्त लगा कर. दुर्गापूजा, कालीपूजा और सरस्वती पूजा सिर्फ कुछ बंगाली मोहल्लों में. वह भी सादगी से पारंपरिक माहौल में. बंधवा के लेटे हुए हनुमानजी हों या रामबाग के बजरंग बली, या फिर गली-मोहल्लों में स्थापित संकटमोचन, बहुत ही श्रद्धा से माथा टेकते, घंटियां बजाते और हनुमान चालीसा गुनगुनाते लोग नजर आ जायेंगे. विगत बीस वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है इलाहाबाद में, हिंदी साहित्य का केंद्र बने रहने की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है इलाहाबाद को. अंग्रेजी का तिरस्कार कर आधुनिकता की दौड़ में पिछड़ गया यह शहर. केवल एजी ऑफिस, हाईकोर्ट, संगम और रेलवे के मंडलीय ऑफिस की बैसाखियों पर कितनी दूर चलती इसकी गाड़ी? दिगभ्रमित-सा खड़ा है, सहमा-ठिठका. अंग्रजी माध्यम स्कूलों की उपेक्षा, बार-बार बदलती सरकारें, आरक्षण, धर्म और जाति के चंगुल में छटपटाती इलाहाबाद की गंगा-जमुनी आत्मा - सभी ने भरमाया है इलाहाबाद को.
झारखंड के राज्यपाल महामहिम प्रभात कुमारजी हो या एसपी अरविंद पांडेय, हर एक का दिल दरक रहा होगा इलाहाबाद की दुर्दशा पर. अविनाशजी को धन्यवाद कि उन्होंने अपनी चिरपरिचित काव्यात्मक शैली में इलाहाबाद की यादों को ताजा कर दिया.
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