171 साल पूर्व मैकॉले ने अँग्रेजी भाषा के माध्यम से हिन्दुस्तानियों को शिक्षा देने की नीति का मसौदा बनाया और उसे लागू कराया. उन्होंने गहन अध्ययन एवं चिंतन के बाद ही यह शिक्षा नीति बनायी थी, इसके उद्देश्यों को स्पष्ट शब्दों में परिभाषित करते हुए उन्होंने हिन्दुस्तानियों की तरक्की पर इसके दूरगामी प्रभावों की स्पष्ट भविष्यवाणी की थी, ब्रिटिश साम्राज्य के हिमायतियों ने उनकी नीति का विरोध करते हुए अंदेशा व्यक्त किया था कि हिन्दुस्तानियों को अँग्रेजी भाषा पढाकर उन्हें आधुनिकता के संपर्क में आने का अवसर देना साम्राज्य के लिये ही आत्मघातक कदम साबित होगा. लेकिन मैकॉले करोंडों की विशाल आबादी को आधुनिक ज्ञान से वंचित रखना मानवता की मूल भावना के खिलाफ समझते थे, इसीलिये उन्होंने अपने ही देशवासियों के तमाम विरोधों को झेलते हुए भी अपनी शिक्षा नीति को हिन्दुस्तान में लागू कर ही दिया.
उनके उद्देश्यों को जाने बिना, उनके मसौदे को पढ़े बिना हम एक वाक्य में उनके सद्प्रयासों को खारिज कर देते हैं कि मैकॉले ने ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूत एवं चिरस्थाई बनाने के लिये ऐसी शिक्षा नीति बनाई जो साल दर साल अँग्रेजी लिखने-पढ़ने-बोलने वाले हिन्दुस्तानी क्लर्क बनाती रहे. लेकिन हम भूल जाते हैं कि इसी शिक्षा नीति ने तिलक, गाँधी, नेहरू, सुभाष, पटेल, जिन्ना, भगत सिंह, विवेकानंद, महर्षि अरविन्द, टैगोर, जगदीश चन्द बोस, सी. वी रमन, भाभा, विश्वेसरैय्या, दादा साहेब फाल्के, जनरल थिमैय्या आदि जैसे युगांतरकारी सैकड़ों राजनेता, वैज्ञानिक, साहित्यकार, शिक्षाविद, प्रशासनिक पदाधिकारी, सैन्य कमांडर, इंजीनियर, संगीतज्ञ एवं कलाकार हिन्दुस्तान को दिये और यही उद्देश्य था मैकॉले का जिसमें उन्हें पूर्ण सफलता मिली.
172 वर्ष पूर्व 10 जून 1834 को थॉमस बैबिंगटन मैकॉले ने पन्द्रह तोपों की सलामी लेते हुए हिन्दुस्तान की धरती पर ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि के रूप में कदम रखे, सिर्फ पौने चार साल यहाँ रहकर दिसंबर 1837 में अपनी तनख्वाह से बची 20 हजार पाउंड की रकम लेकर वापस इंगलैंड चले गये. यहाँ आने से पूर्व वे दो बार हाउस ऑफ कॉमंस के लिये चुने गये, एक अच्छे लेखक के रूप में विख्यात होते हुए भी लेखन से उनकी आमदनी दो चार सौ पाउंड ही थी, अपना अकेले का गुजारा चलता नहीं था, शादी के बाद फैमिली को क्या सपोर्ट करते. जब सुप्रीम काउंसिल ऑफ इंडिया में शामिल होकर हिंदुस्तान आने का प्रस्ताव आया तो जोड़ घटाकर देखा कि वहाँ 10 हजार पाउंड की सालाना तनख्वाह से चार साल में सब खर्चे काटकर 20 हजार पाउंड बच जाएंगे जिनसे आर्थिक तंगी खत्म हो जाएगी, इच्छा न रहते हुए भी प्रस्ताव स्वीकार कर लिया मैकॉले ने, साथ ही सदियों तक हिन्दुस्तानियों की गालियाँ सुनने का इंतजाम भी कर लिया.
सिर्फ पौने चार साल के हिन्दुस्तान प्रवास में अनथक मेहनत करके मैकॉले ने दो ऐसे तोहफे हिन्दुस्तानियों को दिये जिन्होंने इस देश का भाग्य ही बदल दिया. “इंडियन पेनल कोड” का निर्माण और “अँग्रेजी के माध्यम से ही उच्च शिक्षा की अनिवार्यता” को लागू कर उन्होंने अपने विचार से तो हवन किया, लेकिन उनके हाथ इतने जल गये कि आज 171 सालों के बाद भी उन्हें कब्र में पीडित कर रहे होंगे. आज हिन्दुस्तान में शिक्षा के क्षेत्र की सारी समस्याओं और परेशानियों के लिये उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जाता है, गालियां दी जाती हैं. गालियाँ देने का काम ही किया है उन्होंने. यदि वे न आते , तो शायद आज भी हम अपने संस्कृत, अरबी और फारसी के धर्म ग्रंथों, साहित्य और दर्शन की पांडुलिपियों में आधुनिक विज्ञान के आविष्कारों के स्रोत तलाश- तलाश कर अपनी पीठ थपथपा रहे होते, विश्व में इंफॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी के शीर्ष पर होने की जगह व्याकरण, नीति संहिता और घंटू शास्त्र रट रहे होते और अपने बच्चों को रटा रहे होते, सिलिकॉन वैली में भारतीय मेधा की दुंदुभी बजाने की जगह विदेशों से लौटे अपने भाइयों को जाति से बहिष्कृत या धर्मच्युत घोषित कर रहे होते, गंगाजल से नहला रहे होते.
उदार और प्रगतिवादी डेमोक्रैट थे लॉर्ड मैकॉले
वैसे तो बिना कुछ जाने किसी की निन्दा करना हम हिन्दुस्तानियों का स्वभाव है, फिर भी 2 फरवरी 1735 को प्रस्तावित एवं 7 मार्च 1735 को स्वीकृत लॉर्ड मैकॉले की शिक्षा नीति पर चर्चा करने से पूर्व आइये उनके स्वभाव, व्यक्तित्व एवं आचरण के बारे में कुछ जान लें.
लॉर्ड मैकॉले के मन में गलत या सही यह बात गहराई तक जड़ जमाए हुई थी कि हिन्दुस्तानी संस्कृति, यहां की सामाजिक संरचना, आर्थिक एवं राजनैतिक व्यवस्था, धार्मिक कार्यकलाप, यहां के लोगों का अपने आउटडेटेड ज्ञान पर अभिमान एवं उनकी बासी मान्यताएं उस समय के पश्चिमी देशों के मुकाबले बहुत पिछड़े थे और यही कारण था कि आधे ग्लोब की दूरी तय कर के आये मुठ्ठी भर अँग्रेजों ने करोंड़ों हिन्दुस्तानियों एवं उनके विशाल भूभाग पर कब्जाकर उन्हें अपना गुलाम बना लिया था. वे यहाँ के निवासियों की भेदभाव वाली मानसिकता से दुखी थे, जब वे दक्षिण भारत में क्रिश्चियन धर्म अपनाने वाले हिन्दुस्तानियों को भी निम्न जातियों से आये क्रिश्चियनों के साथ भेदभाव करते देखते थे तो और अधिक दुखी हो जाते थे, उन्हें लगता था कि यदि नये धर्म की अच्छाइयों को नहीं अपनाया तो ऐसे धेर्म परिवर्तन से क्या फायदा. वैसे उनके अनुसार प्रशासक को धर्म निरपेक्ष होना चाहिये, धर्म परिवर्तन को वे कोई महत्व नहीं देते थे. वे सच्चे, उदार और प्रगतिवादी डेमोक्रैट थे और लोगों को भी वैसा ही बनाना चाहते थे.
लॉर्ड मैकॉले का विचार था कि हिन्दुस्तान की स्थानीय भाषाएं इतनी विकसित और सक्षम नहीं थीं कि उनके माध्यम से विज्ञान, गणित, टेक्नॉलॉजी, अर्थशास्त्र, संविधान जैसे आधुनिक विषयों की शिक्षा दी जा सके. यदि कुछ विशेष मेधावी हिंदुस्तानियों को अँग्रेजी सिखाकर, अँग्रेजी के माध्यम से उन्हें इन आधुनिक विषयों की शिक्षा दी जाये तो वे अँग्रेजों और करोड़ों आम हिन्दुस्तानियों के बीच सेतु की भूमिका निभा सकेंगे. यही लोग स्थानीय भाषाओं में आधुनिक विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के शब्दों, मान्यताओं और परिभाषाओं के लिये जगह बनाकर उन्हे सक्षम और समृद्ध बना सकेंगे और तब इन्हीं स्थानीय बोलियों के माध्यम से वे आधुनिक विषयों की जानकारी आम लोगों को दे सकेंगे. प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम यही लोग बनाएँगे, प्राथमिक शिक्षा स्थानीय भाषाओं में दी जाएगी, साथ में थोड़ी अँग्रेजी भी पढ़ाई जाएगी ताकि अधिक मेधावी लोग अनिवार्य रूप से उच्च शिक्षा अँग्रेजी में प्राप्त कर सकें, पश्चिम में नित्य हो रहे आविष्कारों, परिवर्तनों और प्रगति की फर्स्टहैंड जानकारी रख सकें और उसका इस्तेमाल हिन्दुस्तान की तरक्की में कर सकें.
कलकत्ता के एक कॉलेज में संस्कृत और अरबी पढ़नेवालों को अँग्रेज सरकार की तुष्टीकरण नीति के तहत सरकारी कोष से वजीफा दिया जाता था जबकि अँग्रेजी पढ़्ने के इच्छुक छात्रों को फीस देनी पड़ती थी. वजीफा देने के बाद भी छात्र नहीं मिलते थे, क्योंकि संस्कृत और अरबी पढ़नेवालों को जीवनयापन के लिये कोई नौकरी या व्यवसाय उपलब्ध नहीं था. सरकारी कामकाज अँग्रेजी में किये जा रहे थे, वहाँ इनके लिये कोई अवसर नहीं था, सिवाय चपरासी आदि बनने के.
लॉर्ड मैकॉले का विचार था कि पश्चिमी देशों ने विज्ञान और टेक्नॉलोजी में इतनी अधिक प्रगति कर ली थी कि हिन्दुस्तान जैसे देश सदियों पीछे छूट गये थे. इस गैप को पाटकर उन्नत देशों के साथ आने के लिये जरूरी था कि हिन्दुस्तान के मेधावी लोग जल्दी से जल्दी पाश्चात्य विद्वानों के संपर्क में आयें जिसके लिये अँग्रेजी का समुचित ज्ञान आवश्यक था. इसीलिये लॉर्ड मैकॉले ने उच्च शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी को बना दिया. उन्होंने कई जगहों पर स्पष्ट लिखा है कि पश्चिम के संपर्क में आने पर ही हिन्दुस्तानियों में प्रशासनिक क्षमता विकसित होगी और वे ‘समता और स्वतंत्रता’ की कद्र के साथ न्यायालय, संसद, विश्वविद्यालय, और अन्य डेमोक्रैटिक संस्थानों का महत्व समझ कर इस देश में भी उन्हें विकसित करने में सहयोग करेंगे.
मैकॉले के सम्मान में स्मारक बनने चाहिये आधुनिक भारत में
अँग्रेजों का एक बड़ा वर्ग लॉर्ड मैकॉले की इस शिक्षा योजना के खिलाफ था, वे सोचते थे कि यदि अँग्रेजों को लँबे समय हिन्दुस्तान पर राज्य करना है तो हिन्दुस्तानियों को आधुनिक शिक्षा से दूर रखने में ही भलाई है, अन्यथा वे पाश्चात्य विद्वानों से प्रभावित होकर समाज के सभी वर्गों को समानता का दर्जा देने लगेंगे, उनके अंदर संगठन क्षमता आ जायेगी और तब एक विशाल जनसमूह का स्वातंत्र्य आंदोलन ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिला देगा. लेकिन लॉर्ड मैकॉले क्षुद्र स्वार्थ के लिये इतने विशाल जन समुदाय को ज्ञान की रोशनी से वंचित रखने के पक्ष में कदापि नहीं थे, तमाम विरोधों के बावजूद उन्होंने यहां अँग्रेजी को उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में स्थापित किया, अँग्रेजी पढ़ने के इच्छुक लोगों को सुविधाएं देकर प्रोत्साहित किया.
लॉर्ड मैकॉले ने तो एक जगह यह भी लिखा है कि जिस दिन हिन्दुस्तानी अपने लिये डेमोक्रैटिक गवर्नमेंट की माँग करेंगे वह दिन अँग्रेजों के लिये गर्व का दिन होना चाहिये, न कि भय, निराशा या अफसोस का.
1857 के सिपाही विद्रोह की घटना ने लॉर्ड मैकॉले को अंदर तक हिला दिया, पल्टनों के द्वारा जगह जगह पर अँग्रेज महिलाओं और बच्चों के लोमहर्षक कत्लेआम ने पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में हर अँग्रेज के अंदर हिंसक प्रतिशोध की भावना भर दी. पेशावर में तोप के मुंह पर निर्दोष हिन्दुस्तानियों को बाँधकर उड़ा देने की घटना ने एवं दिल्ली में अँग्रेजों के द्वारा किये जा रहे क्रूर कत्लेआम ने उन्हें दुखी कर दिया. उन्हें दुख इस बात का हो रहा था कि अँग्रेज अपने स्वभाव के विपरीत असभ्य और बर्बर आचरण कर रहे थे. वे आशंकित थे कि कहीं यह अँग्रेजों का राष्ट्रीय चरित्र न बन जाये.
ऐसे थे लॉर्ड मैकॉले जिन्होंने होम करते हाथ जला लिये. हम कितना भी ‘राम राज्य’, स्वर्णिम गुप्त काल, मौर्य काल या फिर अकबर और अशोक के अद्भुत शासन तंत्र के साथ साथ अपने लिच्छवी गणराज्य के लिये ‘मियाँ मिठ्ठू’ बन लें लेकिन इस बात से शायद ही कोई ईमानदार और निष्पक्ष व्यक्ति इंकार करेगा कि जिस समय अँग्रेज यहाँ आये ‘सोने की चिड़िया’ यह पूरा हिन्दुस्तान प्रशासनिक, शैक्षणिक, एवं सामाजिक पतन के गर्त में था. शिक्षा का मतलब सिर्फ पुराने धार्मिक ग्रंथों को रटना भर रह गया था, नयी रचनाओं और नये आविष्कारों पर विराम लग गया था. संस्कृत विद्यालयों और मदरसों से पढ़कर निकले लोग जीविका के लिये भी तरसते थे, अधिक दक्षिणा का जुगाड़ करने के लिये धार्मिक कर्मकांडों में भी ऊटपटाँग परिवर्तन ताबड़ तोड़ कर रहे थे, अन्धविश्वास फैल रहा था जिसका कुपरिणाम आज भी समाज भुगत रहा है. अँग्रेजों की “बाँटो और राज्य करो” की नीति को कितनी भी गालियाँ हम दें , लेकिन हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा कि हमने स्वयं ही अपने समाज को लिंग, धर्म, जाति, संप्रदाय और वर्ग के अनेक आधारों पर बाँट रखा था, विशाल जनसंख्या को अछूत घोषित कर रखा था, आधी आबादी को पर्दे में ‘असूर्यमपश्या’ बनाकर ड्योढ़ी के अंदर कैद कर रखा था. अँग्रेजों ने तो सिर्फ हमारी इन्हीं कारस्तानियों का फायदा ही उठाया. क्या आज के हमारे अपने राजनेता और राजनैतिक दल सत्ता में रहने के लिये अँग्रेजों से भी गयी गुजरी हरकतें नहीं कर रहे, क्या आज आंदोलनकारियों को पुलिस अपनी गोलियों से नहीं भूनती, क्या गरीबों की जरूरत की नमक जैसी चीजों पर भी टैक्स लगाकर गाँधी की डाँडी यात्रा को अपमानित नहीं किया जाता. गाँधी से लेकर भगत सिंह तक भारत की आजादी के लिये लड़नेवाले अधिकांश महापुरुषों और नेताओं ने इसी बदनाम मैकॉले शिक्षा पद्धति से शिक्षा प्राप्त की थी, अँग्रेज विद्वानों एवं उनकी किताबों ने इन सभी को आजादी की लड़ाई के लिये प्रेरित ही नहीं किया, बल्कि लड़ाई की पूरी पद्धति एवं संसाधन दिये, चाहे वे उग्रवादी हों या अहिंसावादी. यदि हम पिछले 172 सालों से उस शिक्षा पद्धति को गलत समझते रहे हैं, तो इतने लंबे समय में भी क्यों नहीं बदल पाए. गालियाँ स्वयं को दें, बेचारे मैकॉले को बली का बकरा बनाते हुए बार बार उन्हें ही क्यों गरियायें. अब तो चैन से कब्र में सोने दें मैकॉले को.
वैसे तो लॉर्ड मैकॉले पूरे चैन एवं संतुष्टि से अपनी कब्र में सो रहे होंगे क्योंकि भारत को आजादी मिलने में प्रत्यक्ष या परोक्ष अँग्रेजी का ही मुख्य योगदान रहा, यहाँ के लोगों ने डेमोक्रैसी की ढेरों जनप्रतिनिधि संस्थाओं को सम्मान देते हुए अपनाया, तमाम विषमताओं के बावजूद पूरे देश में गवर्नेंस का एक ढाँचा स्वीकार किया, स्थानीय भाषाओं यानि वर्नाकुलर में आधुनिक ज्ञान को करोंड़ों आम जनों के लिये सुलभ बनाया. यहाँ के मेधावी लोगों ने उन्नत देशों में भी काम करके वहाँ की श्रेष्ठ प्रतिभाओं से मुकाबला कर अपना लोहा मनवा दिया. आज यह देश दुनिया में सुपर पावर बनने के रास्ते पर है, उनकी भारत संबंधी सारी इच्छाएं पूरी हुईं, अँग्रेजी के ही प्रभाव से हिन्दी, बँगला, गुजराती, मराठी, मलयालम आदि स्थानीय भाषाएं समृद्ध होकर आधुनिक शिक्षा का माध्यम बनीं, ‘अँग्रेजी’ में कमजोर जापान, रूस, जर्मनी और फ्रांस जैसे अति उन्नत देश भी अँग्रेजी में कुशल हिन्दुस्तानियों का मुकाबला करने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं. लोग लॉर्ड मैकॉले को गालियाँ देते रहें, उनका कुछ नहीं बिगड़ने का. वैसे तो आज आधुनिक भारत के निर्माण में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें दोषी ठहराने की जगह उनके सम्मान में स्मारक बनाने चाहिये.
उनके उद्देश्यों को जाने बिना, उनके मसौदे को पढ़े बिना हम एक वाक्य में उनके सद्प्रयासों को खारिज कर देते हैं कि मैकॉले ने ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूत एवं चिरस्थाई बनाने के लिये ऐसी शिक्षा नीति बनाई जो साल दर साल अँग्रेजी लिखने-पढ़ने-बोलने वाले हिन्दुस्तानी क्लर्क बनाती रहे. लेकिन हम भूल जाते हैं कि इसी शिक्षा नीति ने तिलक, गाँधी, नेहरू, सुभाष, पटेल, जिन्ना, भगत सिंह, विवेकानंद, महर्षि अरविन्द, टैगोर, जगदीश चन्द बोस, सी. वी रमन, भाभा, विश्वेसरैय्या, दादा साहेब फाल्के, जनरल थिमैय्या आदि जैसे युगांतरकारी सैकड़ों राजनेता, वैज्ञानिक, साहित्यकार, शिक्षाविद, प्रशासनिक पदाधिकारी, सैन्य कमांडर, इंजीनियर, संगीतज्ञ एवं कलाकार हिन्दुस्तान को दिये और यही उद्देश्य था मैकॉले का जिसमें उन्हें पूर्ण सफलता मिली.
172 वर्ष पूर्व 10 जून 1834 को थॉमस बैबिंगटन मैकॉले ने पन्द्रह तोपों की सलामी लेते हुए हिन्दुस्तान की धरती पर ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि के रूप में कदम रखे, सिर्फ पौने चार साल यहाँ रहकर दिसंबर 1837 में अपनी तनख्वाह से बची 20 हजार पाउंड की रकम लेकर वापस इंगलैंड चले गये. यहाँ आने से पूर्व वे दो बार हाउस ऑफ कॉमंस के लिये चुने गये, एक अच्छे लेखक के रूप में विख्यात होते हुए भी लेखन से उनकी आमदनी दो चार सौ पाउंड ही थी, अपना अकेले का गुजारा चलता नहीं था, शादी के बाद फैमिली को क्या सपोर्ट करते. जब सुप्रीम काउंसिल ऑफ इंडिया में शामिल होकर हिंदुस्तान आने का प्रस्ताव आया तो जोड़ घटाकर देखा कि वहाँ 10 हजार पाउंड की सालाना तनख्वाह से चार साल में सब खर्चे काटकर 20 हजार पाउंड बच जाएंगे जिनसे आर्थिक तंगी खत्म हो जाएगी, इच्छा न रहते हुए भी प्रस्ताव स्वीकार कर लिया मैकॉले ने, साथ ही सदियों तक हिन्दुस्तानियों की गालियाँ सुनने का इंतजाम भी कर लिया.
सिर्फ पौने चार साल के हिन्दुस्तान प्रवास में अनथक मेहनत करके मैकॉले ने दो ऐसे तोहफे हिन्दुस्तानियों को दिये जिन्होंने इस देश का भाग्य ही बदल दिया. “इंडियन पेनल कोड” का निर्माण और “अँग्रेजी के माध्यम से ही उच्च शिक्षा की अनिवार्यता” को लागू कर उन्होंने अपने विचार से तो हवन किया, लेकिन उनके हाथ इतने जल गये कि आज 171 सालों के बाद भी उन्हें कब्र में पीडित कर रहे होंगे. आज हिन्दुस्तान में शिक्षा के क्षेत्र की सारी समस्याओं और परेशानियों के लिये उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जाता है, गालियां दी जाती हैं. गालियाँ देने का काम ही किया है उन्होंने. यदि वे न आते , तो शायद आज भी हम अपने संस्कृत, अरबी और फारसी के धर्म ग्रंथों, साहित्य और दर्शन की पांडुलिपियों में आधुनिक विज्ञान के आविष्कारों के स्रोत तलाश- तलाश कर अपनी पीठ थपथपा रहे होते, विश्व में इंफॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी के शीर्ष पर होने की जगह व्याकरण, नीति संहिता और घंटू शास्त्र रट रहे होते और अपने बच्चों को रटा रहे होते, सिलिकॉन वैली में भारतीय मेधा की दुंदुभी बजाने की जगह विदेशों से लौटे अपने भाइयों को जाति से बहिष्कृत या धर्मच्युत घोषित कर रहे होते, गंगाजल से नहला रहे होते.
उदार और प्रगतिवादी डेमोक्रैट थे लॉर्ड मैकॉले
वैसे तो बिना कुछ जाने किसी की निन्दा करना हम हिन्दुस्तानियों का स्वभाव है, फिर भी 2 फरवरी 1735 को प्रस्तावित एवं 7 मार्च 1735 को स्वीकृत लॉर्ड मैकॉले की शिक्षा नीति पर चर्चा करने से पूर्व आइये उनके स्वभाव, व्यक्तित्व एवं आचरण के बारे में कुछ जान लें.
लॉर्ड मैकॉले के मन में गलत या सही यह बात गहराई तक जड़ जमाए हुई थी कि हिन्दुस्तानी संस्कृति, यहां की सामाजिक संरचना, आर्थिक एवं राजनैतिक व्यवस्था, धार्मिक कार्यकलाप, यहां के लोगों का अपने आउटडेटेड ज्ञान पर अभिमान एवं उनकी बासी मान्यताएं उस समय के पश्चिमी देशों के मुकाबले बहुत पिछड़े थे और यही कारण था कि आधे ग्लोब की दूरी तय कर के आये मुठ्ठी भर अँग्रेजों ने करोंड़ों हिन्दुस्तानियों एवं उनके विशाल भूभाग पर कब्जाकर उन्हें अपना गुलाम बना लिया था. वे यहाँ के निवासियों की भेदभाव वाली मानसिकता से दुखी थे, जब वे दक्षिण भारत में क्रिश्चियन धर्म अपनाने वाले हिन्दुस्तानियों को भी निम्न जातियों से आये क्रिश्चियनों के साथ भेदभाव करते देखते थे तो और अधिक दुखी हो जाते थे, उन्हें लगता था कि यदि नये धर्म की अच्छाइयों को नहीं अपनाया तो ऐसे धेर्म परिवर्तन से क्या फायदा. वैसे उनके अनुसार प्रशासक को धर्म निरपेक्ष होना चाहिये, धर्म परिवर्तन को वे कोई महत्व नहीं देते थे. वे सच्चे, उदार और प्रगतिवादी डेमोक्रैट थे और लोगों को भी वैसा ही बनाना चाहते थे.
लॉर्ड मैकॉले का विचार था कि हिन्दुस्तान की स्थानीय भाषाएं इतनी विकसित और सक्षम नहीं थीं कि उनके माध्यम से विज्ञान, गणित, टेक्नॉलॉजी, अर्थशास्त्र, संविधान जैसे आधुनिक विषयों की शिक्षा दी जा सके. यदि कुछ विशेष मेधावी हिंदुस्तानियों को अँग्रेजी सिखाकर, अँग्रेजी के माध्यम से उन्हें इन आधुनिक विषयों की शिक्षा दी जाये तो वे अँग्रेजों और करोड़ों आम हिन्दुस्तानियों के बीच सेतु की भूमिका निभा सकेंगे. यही लोग स्थानीय भाषाओं में आधुनिक विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के शब्दों, मान्यताओं और परिभाषाओं के लिये जगह बनाकर उन्हे सक्षम और समृद्ध बना सकेंगे और तब इन्हीं स्थानीय बोलियों के माध्यम से वे आधुनिक विषयों की जानकारी आम लोगों को दे सकेंगे. प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम यही लोग बनाएँगे, प्राथमिक शिक्षा स्थानीय भाषाओं में दी जाएगी, साथ में थोड़ी अँग्रेजी भी पढ़ाई जाएगी ताकि अधिक मेधावी लोग अनिवार्य रूप से उच्च शिक्षा अँग्रेजी में प्राप्त कर सकें, पश्चिम में नित्य हो रहे आविष्कारों, परिवर्तनों और प्रगति की फर्स्टहैंड जानकारी रख सकें और उसका इस्तेमाल हिन्दुस्तान की तरक्की में कर सकें.
कलकत्ता के एक कॉलेज में संस्कृत और अरबी पढ़नेवालों को अँग्रेज सरकार की तुष्टीकरण नीति के तहत सरकारी कोष से वजीफा दिया जाता था जबकि अँग्रेजी पढ़्ने के इच्छुक छात्रों को फीस देनी पड़ती थी. वजीफा देने के बाद भी छात्र नहीं मिलते थे, क्योंकि संस्कृत और अरबी पढ़नेवालों को जीवनयापन के लिये कोई नौकरी या व्यवसाय उपलब्ध नहीं था. सरकारी कामकाज अँग्रेजी में किये जा रहे थे, वहाँ इनके लिये कोई अवसर नहीं था, सिवाय चपरासी आदि बनने के.
लॉर्ड मैकॉले का विचार था कि पश्चिमी देशों ने विज्ञान और टेक्नॉलोजी में इतनी अधिक प्रगति कर ली थी कि हिन्दुस्तान जैसे देश सदियों पीछे छूट गये थे. इस गैप को पाटकर उन्नत देशों के साथ आने के लिये जरूरी था कि हिन्दुस्तान के मेधावी लोग जल्दी से जल्दी पाश्चात्य विद्वानों के संपर्क में आयें जिसके लिये अँग्रेजी का समुचित ज्ञान आवश्यक था. इसीलिये लॉर्ड मैकॉले ने उच्च शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी को बना दिया. उन्होंने कई जगहों पर स्पष्ट लिखा है कि पश्चिम के संपर्क में आने पर ही हिन्दुस्तानियों में प्रशासनिक क्षमता विकसित होगी और वे ‘समता और स्वतंत्रता’ की कद्र के साथ न्यायालय, संसद, विश्वविद्यालय, और अन्य डेमोक्रैटिक संस्थानों का महत्व समझ कर इस देश में भी उन्हें विकसित करने में सहयोग करेंगे.
मैकॉले के सम्मान में स्मारक बनने चाहिये आधुनिक भारत में
अँग्रेजों का एक बड़ा वर्ग लॉर्ड मैकॉले की इस शिक्षा योजना के खिलाफ था, वे सोचते थे कि यदि अँग्रेजों को लँबे समय हिन्दुस्तान पर राज्य करना है तो हिन्दुस्तानियों को आधुनिक शिक्षा से दूर रखने में ही भलाई है, अन्यथा वे पाश्चात्य विद्वानों से प्रभावित होकर समाज के सभी वर्गों को समानता का दर्जा देने लगेंगे, उनके अंदर संगठन क्षमता आ जायेगी और तब एक विशाल जनसमूह का स्वातंत्र्य आंदोलन ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिला देगा. लेकिन लॉर्ड मैकॉले क्षुद्र स्वार्थ के लिये इतने विशाल जन समुदाय को ज्ञान की रोशनी से वंचित रखने के पक्ष में कदापि नहीं थे, तमाम विरोधों के बावजूद उन्होंने यहां अँग्रेजी को उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में स्थापित किया, अँग्रेजी पढ़ने के इच्छुक लोगों को सुविधाएं देकर प्रोत्साहित किया.
लॉर्ड मैकॉले ने तो एक जगह यह भी लिखा है कि जिस दिन हिन्दुस्तानी अपने लिये डेमोक्रैटिक गवर्नमेंट की माँग करेंगे वह दिन अँग्रेजों के लिये गर्व का दिन होना चाहिये, न कि भय, निराशा या अफसोस का.
1857 के सिपाही विद्रोह की घटना ने लॉर्ड मैकॉले को अंदर तक हिला दिया, पल्टनों के द्वारा जगह जगह पर अँग्रेज महिलाओं और बच्चों के लोमहर्षक कत्लेआम ने पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में हर अँग्रेज के अंदर हिंसक प्रतिशोध की भावना भर दी. पेशावर में तोप के मुंह पर निर्दोष हिन्दुस्तानियों को बाँधकर उड़ा देने की घटना ने एवं दिल्ली में अँग्रेजों के द्वारा किये जा रहे क्रूर कत्लेआम ने उन्हें दुखी कर दिया. उन्हें दुख इस बात का हो रहा था कि अँग्रेज अपने स्वभाव के विपरीत असभ्य और बर्बर आचरण कर रहे थे. वे आशंकित थे कि कहीं यह अँग्रेजों का राष्ट्रीय चरित्र न बन जाये.
ऐसे थे लॉर्ड मैकॉले जिन्होंने होम करते हाथ जला लिये. हम कितना भी ‘राम राज्य’, स्वर्णिम गुप्त काल, मौर्य काल या फिर अकबर और अशोक के अद्भुत शासन तंत्र के साथ साथ अपने लिच्छवी गणराज्य के लिये ‘मियाँ मिठ्ठू’ बन लें लेकिन इस बात से शायद ही कोई ईमानदार और निष्पक्ष व्यक्ति इंकार करेगा कि जिस समय अँग्रेज यहाँ आये ‘सोने की चिड़िया’ यह पूरा हिन्दुस्तान प्रशासनिक, शैक्षणिक, एवं सामाजिक पतन के गर्त में था. शिक्षा का मतलब सिर्फ पुराने धार्मिक ग्रंथों को रटना भर रह गया था, नयी रचनाओं और नये आविष्कारों पर विराम लग गया था. संस्कृत विद्यालयों और मदरसों से पढ़कर निकले लोग जीविका के लिये भी तरसते थे, अधिक दक्षिणा का जुगाड़ करने के लिये धार्मिक कर्मकांडों में भी ऊटपटाँग परिवर्तन ताबड़ तोड़ कर रहे थे, अन्धविश्वास फैल रहा था जिसका कुपरिणाम आज भी समाज भुगत रहा है. अँग्रेजों की “बाँटो और राज्य करो” की नीति को कितनी भी गालियाँ हम दें , लेकिन हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा कि हमने स्वयं ही अपने समाज को लिंग, धर्म, जाति, संप्रदाय और वर्ग के अनेक आधारों पर बाँट रखा था, विशाल जनसंख्या को अछूत घोषित कर रखा था, आधी आबादी को पर्दे में ‘असूर्यमपश्या’ बनाकर ड्योढ़ी के अंदर कैद कर रखा था. अँग्रेजों ने तो सिर्फ हमारी इन्हीं कारस्तानियों का फायदा ही उठाया. क्या आज के हमारे अपने राजनेता और राजनैतिक दल सत्ता में रहने के लिये अँग्रेजों से भी गयी गुजरी हरकतें नहीं कर रहे, क्या आज आंदोलनकारियों को पुलिस अपनी गोलियों से नहीं भूनती, क्या गरीबों की जरूरत की नमक जैसी चीजों पर भी टैक्स लगाकर गाँधी की डाँडी यात्रा को अपमानित नहीं किया जाता. गाँधी से लेकर भगत सिंह तक भारत की आजादी के लिये लड़नेवाले अधिकांश महापुरुषों और नेताओं ने इसी बदनाम मैकॉले शिक्षा पद्धति से शिक्षा प्राप्त की थी, अँग्रेज विद्वानों एवं उनकी किताबों ने इन सभी को आजादी की लड़ाई के लिये प्रेरित ही नहीं किया, बल्कि लड़ाई की पूरी पद्धति एवं संसाधन दिये, चाहे वे उग्रवादी हों या अहिंसावादी. यदि हम पिछले 172 सालों से उस शिक्षा पद्धति को गलत समझते रहे हैं, तो इतने लंबे समय में भी क्यों नहीं बदल पाए. गालियाँ स्वयं को दें, बेचारे मैकॉले को बली का बकरा बनाते हुए बार बार उन्हें ही क्यों गरियायें. अब तो चैन से कब्र में सोने दें मैकॉले को.
वैसे तो लॉर्ड मैकॉले पूरे चैन एवं संतुष्टि से अपनी कब्र में सो रहे होंगे क्योंकि भारत को आजादी मिलने में प्रत्यक्ष या परोक्ष अँग्रेजी का ही मुख्य योगदान रहा, यहाँ के लोगों ने डेमोक्रैसी की ढेरों जनप्रतिनिधि संस्थाओं को सम्मान देते हुए अपनाया, तमाम विषमताओं के बावजूद पूरे देश में गवर्नेंस का एक ढाँचा स्वीकार किया, स्थानीय भाषाओं यानि वर्नाकुलर में आधुनिक ज्ञान को करोंड़ों आम जनों के लिये सुलभ बनाया. यहाँ के मेधावी लोगों ने उन्नत देशों में भी काम करके वहाँ की श्रेष्ठ प्रतिभाओं से मुकाबला कर अपना लोहा मनवा दिया. आज यह देश दुनिया में सुपर पावर बनने के रास्ते पर है, उनकी भारत संबंधी सारी इच्छाएं पूरी हुईं, अँग्रेजी के ही प्रभाव से हिन्दी, बँगला, गुजराती, मराठी, मलयालम आदि स्थानीय भाषाएं समृद्ध होकर आधुनिक शिक्षा का माध्यम बनीं, ‘अँग्रेजी’ में कमजोर जापान, रूस, जर्मनी और फ्रांस जैसे अति उन्नत देश भी अँग्रेजी में कुशल हिन्दुस्तानियों का मुकाबला करने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं. लोग लॉर्ड मैकॉले को गालियाँ देते रहें, उनका कुछ नहीं बिगड़ने का. वैसे तो आज आधुनिक भारत के निर्माण में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें दोषी ठहराने की जगह उनके सम्मान में स्मारक बनाने चाहिये.
प्रभाकर जी, गूगल पर कुछ तलाशते हुआ आपके ब्लॉग पर संयोगवश आ पहुंचा, लेकिन आपके ब्लॉग को पढ़कर टिप्पणी करने को जी चाहा।
ReplyDeleteमैं आपके इस पोस्ट में लिखी इस बात से सहमत हूं कि मैकॉले को अब गालियां नहीं दी जानी चाहिए, क्योंकि जैसे गुलाम वह बनाना चाहता था, कमोबेश हम वैसे बन चुके हैं।
आपको बताना चाहता हूं कि मैकॉले (अ)शिक्षा नीति के पूर्व के भारत के बारे में। आइस्क्रीम के शौकीन देशों को जब ये भी नहीं पता था कि बर्फ को Manually बनाया भी जा सकता है, तब मेरे देश में बर्फ बना ली गई थी। इतना ही नहीं, विश्व का सबसे पहला विश्वविद्यालय इसी देश में था, जहां अनेकों देशों के अनेक विद्यार्थी पढ़ने आया करते थे। शायद आपने भी ह्वेनसांग और इब्नबतूता के विषय में थोड़ा बहुत पढ़ा हो। हैदर अली (टीपु सुल्तान के पिता) के समय में इस देश में दक्षिण भारत में लगभग डेढ़ लाख उच्च शिक्षा के केन्द्र थे, जिन्हें उस समय के कॉलेज कहा जा सकता है। जिनमें Chemistry, Astro-Physics, Vedic Mathematic जैसे विषय पढ़े-पढ़ाए जाते थे। ज्योतिष पूरी दुनिया को भारत ने दिया। शून्य पूरी दुनिया को भारत ने दिया। दशमलव Decimal पूरी दुनिया को भारत ने दिया। स्थापत्य कला का जैसा विकास भारत में हो चुका था, वैसा कभी किसी देश में नहीं हुआ। ज्यामिती Geometry, त्रिकोणमिती Trigonometry भारत ने दी। विश्व में सबसे पहले हमने कृषि Agriculture की शुरूआत की।
दिल्ली के निकट कुतुब परिसर में महरौली की लाट के विषय में तो आपको जानकारी होगी ही, मैकॉले पद्धति से बने वैज्ञानिक आज तक उसके घटक तत्वों के बारे मे पता नहीं लगा सके। आपने शायद एक कथा पढ़ी हो हमारे तक्षशिला विश्वविद्यालय के एक शिष्य ने जब अपने गुरूजी से पूछा कि क्या अब वह घर जा सकता है ? तब गुरूजी ने उसे कहा कि पहले तुम कोई ऐसा पौधा ढूंढकर लाओ, जिसका कोई उपयोग न हो। तब वह छात्र गया और तीन दिन बाद लौटकर आया। गुरूजी से क्षमा मांगते हुए कहा कि क्षमा करें, परन्तु मैं ऐसी कोई वनस्पति नहीं ढूंढ सका, जिसका कोई उपयोग न हो। तब गुरूजी ने उसे कहा, कि अब तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हो चुकी है, तुम अब समाज के कल्याण के लिए जा सकते हो। इसका अर्थ समझे आप, उस समय वनस्पति शास्त्र Botany और चिकित्सा शास्त्र Medical Science का इतना विकास हो चुका था कि वे उपलब्ध सभी वनस्पतियों का उपयोग करना जानते थे।
मैं अन्त में यही कहना चाहता हूँ कि सिलिकन वैली में किसी दूसरे देश की गुलामी करने में स्वयं को धन्य न समझें।