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मैं छात्र नेता बना

इंटरमीडिएट के बाद मैंने डिग्री कालिज में प्रवेश लिया, महत्वाकांक्षाओं और संकल्पों के साथ. घर से दूर छात्रावास में रहने का पहला अनुभव था. पहले ही दिन सीनियर छात्रों के द्धारा तंग किया गया. बड़ी लानत-मलानत हुई.
एक ने कहा, “साला बड़ा उजड्ड दीखता है! अबे, काठ के उल्लू, क्या बाप ने मुर्गीखाना समझ कर भेज दिया है ? यह सिर का एरियल क्या...” एक भद्दी सी गाली मिली. दूसरा चिल्लाया, बेटा, 70 परसेंट लेने से कोई फायदा नहीं. आजकल नालेज और परसेंटेज को कोई नहीं पूछता. होनी चाहिए स्मार्टनेस और धांसू परसनैलटी या फिर सोर्स. यदि इसी तरह 18 इंच मोहरी की पैंट पहने और सिर पर एरियल रखे घूमते रहोगे, तो कोई चवन्नी भर को भी न पूछेगा.”
“अरे, छोड़ो यार, ये साले बलियाटिक क्या जानें पहनना और ओढ़ना. सारी उमर तो भैंस चराने में बीती. चले आए यहां डिग्री लेने.”

“चल बे चल साले. अगर कल यह एरियल और मूंछ नजर आई तो यहीं पर उखाड़ कर फेंक दूंगा,” कह कर उस ने मेरी मूंछें कस कर मरोड़ दीं. मैं दर्द से बिलबिला पड़ा. मन तो हुआ कि इसी जगह पर निपट लिया जाए, पर उन की संख्या अधिक देख कर खून का घूंट पी गया. सब से ज्यादा खल रहे थे मेरी जाति, परिवार और क्षेत्र के प्रति उन के अपशब्द. उसी जगह पर मैं ने प्रतिज्ञा की, ‘इन सालों को दिखला दूंगा कि एक बलियाटिक भी कितना दमखम रखता है.’

दूसरे दिन उन लोगों ने मेरी मूंछें जबरदस्ती मुड़वा दीं और पतली मोहरी की पैंट पहनने का आदेश दिया. खैर धीरे-धीरे गालियां, अपमान और तिरस्कार भरी बातों के साथ-साथ रैंगिग का पीरियड खत्म हुआ. सब कुछ खत्म हुआ – पर बलियाटिक और गंवार कह कर जगह-जगह पर अपमानित करना खत्म नहीं हुआ. थोड़ा बढ़ ही गया क्योंकि पहले केवल सीनियर छात्र ही ऐसा करते थे अब अपनी क्लास के लड़के भी, अपने को स्मार्ट समझने वाले भी उन में शामिल हो गए.

मेस में, ‘साले कितना खाते हैं ? बाप रे बाप ! चार के बराबर एक का खाना!’ ‘देखो तो, साला चम्मच से किस तरह खा रहा है. अरे! कभी बाप ने भी चम्मच पकड़ा हो तब न, इन्हें तो कलछुल से खाना चाहिए’, ‘यार मेरा तो जी मिचलाने लगता है इन उजड्डों को खाना खाते देख कर.’
उन की बातचीत के ये टुकड़े आज भी मेरे मन की गहराइयों में उफान ला देते हैं. मेरी तरह और भी कई लड़के गांवों से आए थे. हम जब आपस में ठेठ देहात या मातृभाषा में बात करते, तो उस पर वे हंसते थे और हमारा मजाक उड़ाते थे. हम में और इन में एक विभाजन रेखा थी जो कभी भी मिटने वाली नहीं थी. खेल के मैदान में भी इन बातों से छुटकारा नहीं मिलता था. नए-नए खेल देखकर सीखने की इच्छा होती, पर वे हमारा मजाक बनाते. इसी डर से हम कोई खेल सीखने भी नहीं जाते, शाम का वक्त अपने कमरों में घुटते हुए बीतता. ‘मां-बाप’ पर गुस्सा आता, अपनी तकदीर को लानत भेजता. बचपन में कोई खेल खेलने का कभी मौका ही नहीं मिला, क्योंकि गांव में इन सब का प्रचलन ही न था. बचपन के जिस वातावरण में हम पले, वहां आज के खेलों, तौर-तरीकों, पहनावे-ओढ़ावे, औपचारिकता और बात-चीत के लिए कोई स्थान ही न था.
क्लास में शिक्षकों की हमारे प्रति उदासीनता स्पष्ट दृष्टिगोचर थी. किसी प्रश्न का सही उतर जानते हुए भी खड़े हो कर अंगरेजी में जवाब देने की हिम्मत नहीं होती थी. एक तो हिचक और ऊपर से फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने में असमर्थता. शिक्षकों के ताने सहने पड़ते थे. कांवेंट से आए लड़कों का प्रभाव शिक्षकों पर काफी अच्छा रहता था. उठ कर खड़े हो गए और फर्राटे से अंग्रेजी में बोलना शुरु कर दिया, भले ही सही उत्तर न हो पर अध्यापक अंग्रेजी के जाल में फंस जाता और हम सही उत्तर जानते हुए भी जाहिलों-काहिलों की तरह बैठे रहते थे. कभी हिम्मत कर के उत्तर देने को खड़े भी होते तो अटकते-अटकते दो-चार शब्द ही बोल पाते. सारी क्लास हंसने लगती थी. चश्मे के पीछे से अध्यापक की आंखों का उपहास भी नजर आने लगता था और हमें बैठ जाना पड़ता था.

शहरी तौर तरीके

सब कुछ तीखी ओर पैनी नजरों से देखता रहा मैं, एकाएक ख्याल आया कि कॉलेज में गांवों से आए लोग काफी संख्या में हैं. क्यों न गुटबंदी कर के इन स्मार्ट जानवरों का सामना किया जाए ? ड्रेनपाइप पैंट मैं भी पहनने लगा था, होटलों और बारों में भी जाना शुरु कर दिया था – केवल प्रतिक्रिया स्वरुप. अब पैसा खर्च करता. घर के लोगों को पैसे के लिए लिखा और कुछ ही दिनों में पैसा हाजिर. जिदंगी को शहरी तौर-तरीकों पर ढालने की कोशिश कर रहा था. दूसरे शब्दों में फारवर्ड बनने की तैयारी थी. दूसरों की भी यही हालत थी. धीरे-धीरे कैंटीनें आबाद होने लगीं. मेरा पैसा दोस्तों को चाय पिलाने और पान खिलाने में पानी की तरह बहने लगा. इसी के बल पर तो समर्थकों की एक लंबी संख्या तैयार हो सकती थी. अत्यधिक खर्च के कारण कैंटीनों और पान की दुकानों पर उधार खाते में वृद्धि होने लगी. मेरे आगे-पीछे चमचों और हमदर्दों की बारात सी लग गई. प्रतिद्धंदी मुझे ‘यादव साहब’ कहने लगे, दूसरों के लिये मैं किशन प्रसाद यादव से “के.पी.” हो गया.
हमारे प्रिंसिपल साहब देश के विख्यात विद्धान थे. पर उन में कई ऐब थे. दिल के साफ होते हुए भी उनका व्यवहार बहुत ही अस्थिर और अप्रत्याशित रहता. उन में मेधा का बाहुल्य था, पर बोलने में कमजोर थे. एक अच्छे स्कॉलर तो थे, पर अच्छे अधिशासक नहीं थे. मेरा एक मित्र अर्थाभाव के कारण कालिज फीस देर से जमा कर रहा थी. वह प्रिंसिपल साहब के पास जुर्माने की रकम कम कराने के लिए जाना चाहता था, पहले तो प्रिंसिपल के चैंबर में उसे प्रवेश नहीं मिला और जब बिना अनुमति के वह चैंबर में घुस गया, तो प्रिंसिपल साहब ने झिड़क कर भगा दिया. बेचारा सीधा-सादा छात्र बाहर खड़ा अपने को धिक्कारता रहा. इसी समय उस ने देखा कि एक लीडर महोदय बिना पूछताछ चैंबर में घुसे और अपना जुर्माना पूरा माफ करा लाए. वह मेरे पास आया और उस ने सारा किस्सा सुनाया. मैं ने उसे साथ लिया और धड़-धड़ाते हुए प्रिंसिपल के कमरे में घुस गया. शायद मैं उस समय बहुत ही जोश और गुस्से से भरा था. प्रिंसिपल को दो-चार गालियाँ सुनाईं और जुर्माना माफ करने को कहा.

विजय की मुसकान
प्रिंसिपल ने भींगी बिल्ली बन कर सब कुछ कर दिया और मैं विजय की मुसकान के साथ बाहर आ गया. वह पहला दिन था जब मेरी हिचक टूटी. बात फैल गई और कालिज कैंपस में मैं एक भावी छात्र नेता के रुप में प्रतिष्ठित हो गया.

कैंटीनों में बैठकबाजी होती और हमारे ठहाके गूंजते रहते. कालिज में कोई भी फंकशन होता, मैं अपने ग्रुप के साथ प्रबंध समिति में शामिल हो जाता. मेस में या किसी भी जगह अब लोग कुछ भी कहने में कतराते थे. पीठ पीछे कहते ही रहते थे, जिस की खबरें मुझे अपने चमचों से मिल जाती थीं. मुसकरा कर टाल देता था, पर अंदर एक आग सुलग रही थी.
इसी समय एक सेमेस्टर की परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ. इस बार सप्लीमैंटरी में फेल हुए छात्रों की संख्या अन्य छात्रों से कहीं अधिक थी. छात्रों में आक्रोश भर आया. लीडरों की बन गई. आगामी चुनावों के लिए जौहर दिखलाने का सुनहरा मौका हाथा आया. पुराने खर्राटे नेताओं ने हमारी क्लास को भी साथ लेना चाहा. मुझ से गुप्त मंत्रणाएं होने लगी और इस प्रकार मैं भी प्लेट फार्म पर आ गया. मुझे इंटरमीडिएट तक डिबेट में कुशल होने का भरपूर फायदा मिला. नारेबाजी और सभाओं का बाजार गरम हुआ. प्रिंसिपल का घेराव किया गया. पुलिस आई, लाठीचार्ज हुआ. सिर फूटे और वारंट कटे. छात्र नेता अंडरग्राउंड हो गए. कालिज अनिश्चित काल के लिए बंद हो गया.इस प्रकार छात्र नेताओं की अग्रिम पंक्ति में मैं भी आ गया.
मेरे समर्थकों की संख्या बढ़ती गई और ज्यादा समर्थक पैदा करने के नए-नए तरीके मैं ईजाद करता गया. किसी को जलपान से, किसी को छोटे-मोटे काम से, किसी को डरा-धमका कर वश में करता रहा. कई हथकंडे सीख गया. इतने दिनों के व्यक्तिगत व्यावहारिक अनुभव के बाद यह निश्चित हो गया कि लोग भेड़ों की तरह होते हैं. अधिकतर छात्र केवल अपनी पढ़ाई-लिखाई से मतलब रखने वाले होते हैं, उन्हें अपने कैरियर की चिंता होती है. उन के अंदर आदर्शो और सिद्धांतों की हिचकिचाहट और झिझक होती है और यही कारण है कि वे आगे नहीं आते. नेताओं की कारवाइयों से मन ही मन कुढ़ते रहते हैं, पर विरोध करने के लिए आगे नहीं आते. क्योंकि वे जानते हैं कि हल्का विरोध करने पर वे पिट जाएंगे और पूरा विरोध करने का मतलब है नेता बनना और छात्र नेताओं को लोग केवल उद्दंड, अनुशासनहीन और गुंडे समझते हैं, छात्र नेता बन कर ये छात्र शिक्षकों की नजरों में गिरना नहीं चाहते, गिरकर अपना कैरियर बिगाड़ना नहीं चाहते, फलस्वरुप अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं, एक-दूसरे से शिकायतें करते रहते हैं, भुनभुनाते और जलते रहते हैं, पर कुछ बोल नहीं पाते. अंत में उन्हें छात्र नेताओं में से ही किसी के पीछे चाहे-अनचाहे चलना पड़ता है. यदि किसी ने कभी संयोगवश विरोध कर भी दिया, तो उस बेचारे की शामत आ गई. यदि उस के पीछे किसी पार्टी का जोर रहा तब तो गनीमत वरना चार के साथ जा कर पीट दिया.

छात्र वर्ग की कमजोरियां
इस प्रकार छात्रों की एक के बाद एक कमजोरियां मालूम होने लगी. मेरा प्रभाव क्षेत्र बढ़ता गया. जिंदगी की गति मंद हो गई, पर दिन उसी प्रकार से सरकते गए. थर्ड इयर तक आते आते कालिज के वरिष्ठतम नेता पास हो कर बाहर जा चुके थे और मैं उन की जगह ले चुका था. इस बीच अनेक बार हड़ताल, प्रदर्शन के साथ दूसरी वारदातें हो चुकी थीं.
कालिज में दो दल बन चुके थे, जिन्हें ‘कंट्री’ और ‘जेंट्री’ के नाम से जाना जाता था. मुझे कहना न होगा कि मैं ‘कंट्री’ ग्रुप को लीड करता था, दोनों ग्रुपों में छिटपुट संघर्ष होते रहते थे. मुझे कहने में कोई संकोच नहीं कि खेलकूद एवं अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में पीछे रह जाने का हमारा मलाल अपने शक्ति प्रदर्शन में बाहर आता था. सीना निकाल कर अकड़ते हुए चलना या छोटी-छोटी बात पर किसी को चीर कर फेंक देने की धमकियों से हम अपनी वरिष्ठता सिद्ध करने की कोशिश करते थे. आज उस समय की स्थितियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण बहुत ही रोचक लगता है. जब भी मूड होता, हम पाश्चात्य तौर-तरीकों के नाम पर अनेक चीजों का बहिष्कार कर देते. मेस में चम्मच का परित्याग कर कुर्सियों पर पालथी मार कर बैठने और चीखते-चिल्लाते हुए खाना खाने में हमें बड़ा संतोष मिलता था. ‘जेंट्री’ ग्रुप वाले बैलबाटम में घुसे, जींस में कसे और एक की जगह दो चम्मच इस्तेमाल करते हुए हमारी हरकतों को कोसते रहते. अपने- अपने पब्लिक स्कूलों एवं कान्वेंटों की दुहाई देते हुए हमें लानत-मलानत भेजते रहते. हम उन्हें परेशान देख कर और भी उत्साहित होते और उन्हें चिढ़ाने वाली हमारी चेष्टाओं में वृद्धि हो जाती.

सामदामदंड भेद
कालेज के छात्र संघ के चुनावों की घोषणा हुई- नामांकन पत्र दाखिल किए गए. इस बार मैं अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहता था- मुझे प्रेसीडेंट पद के लिए जीतना ही था. अपने दल के नेताओं की सभाएं होने लगीं. राजनैतिक पार्टियों द्धारा इन चुनावों में किए गए हस्तक्षेप के बारे में काफी कुछ सुन रहा था पर इस बार पूरा परिचय मिला. अनेक पार्टियों से प्रलोभन मिले. मैं भविष्य में एक प्रसिद्ध राजनीतिक नेता हो कर संसद का चुनाव लड़ने का स्वप्न देखने लगा. राजनीतिक दलों को मैंने अपने अलग ही तरीके से निबटाया. सभी से अच्छे संबंध भी बने रहे और मेरा काम भी हो गया. कालेज के चुनावों में भी बड़े-बड़े हथकंडे दिखाने पड़ते हैं. जाति के नाम पर, प्रांत के नाम पर और दोस्तों के नाम पर लोगों को फोड़ना पड़ता है. बिसात बिछी रहती है, मुहरे मरते रहते हैं. चुनावों में गधे को भी मामा कहना पड़ता है. साम-दाम-दंड भेद हर एक का प्रयोग जोर-शोर से होता है. शिक्षकों की तरफ से भी बड़े-बड़े सुझाव मिलते हैं, क्योंकि उन की राजनीति के मुहरे भी छात्र ही होते हैं. चुनाव जीतने के बाद अपनी सामर्थ्य दिखलाने के लिए एक बार हड़ताल करा देना आज एक आम बात बन चुकी है.
कालिज की स्थिति दिनोंदिन खराब ही होती गई. इस के उत्तरदायी शिक्षक और छात्र दोनों थे. इन सब के अतिरिक्त मुख्य कारण थी विगत वर्षो की भीषण बेरोजगारी. सभी जानते थे कि डिग्री मिलने के बाद सड़कों पर चप्पलें घिसनी पड़ेंगी. नौकरी मिलने में योग्यता या अच्छे अंकों की कोई आवश्यकता नहीं है. इसीलिए अधिक पढ़ाई करने की या कालिज से पास हो कर बाहर निकलने की आवश्यकता बहुत ही कम लोग महसूस करते थे. यही कारण या कि बिना अध्ययन एवं इम्तिहान के ही पास होने की इच्छा लोगों के अंदर बलवती हो उठी थी. इम्तिहान की तारीखें निकलतीं और छात्रों का एक ग्रुप ‘पोस्टपोनमेंट’ के लिए निकल पड़ता. नारे लगते, रात भर के लिए होस्टलों की बिजली बंद कर दी जाती और लड़कों का एक हजूम प्रिंसिपल साहब के पास जाता और उन्हें धमकियां दी जातीं. हमारे प्रिंसिपल साहब भी कुछ विचित्र प्रकृति के थे. लड़कों के हंगामों से बहुत डरते थे. उन्हें अपने परिवार एवं अपने प्राणों की चिंता आवश्यकता से अधिक थी. दो-चार लड़कों के कहने पर ही इम्तिहान की तारीखें बढ़ाने को तैयार हो जाते.

झूठा दिखावा
शुरु के कुछ दिनों को छोड़ कर अध्ययनकाल में मैं ने अपनी जेब से एक पैसा भी खर्च नहीं किया. चार-पांच लड़कों का ग्रुप था. ग्रुप के एक दो सदस्य किसी ने किसी मेस के सेक्रेटरी अवश्य बन जाते थे और फिर हर चीज में बंधा-बंधाया कमीशन मिलने लगता. हमारे वार्डन भी कुछ डकारते और कालिज में कहीं भी खाने-पीने का आयोजन होता, हम अवश्य पहुंच जाते. करना कुछ नहीं पड़ता था, पर अपने को प्रबंध करने के नाम पर बहुत व्यस्त दिखलाते थे. जूनियर छात्रों को पकड़ कर उन से इंतजाम के सारे बाहरी काम करवाते, नाश्ता वगैरह दे कर उन्हें अपना अनुगृहीत भी करते. हर पार्टी में चार-पांच सौ की बचत होती और ऊपर से शिक्षकों पर हमारी सक्रियता एवं कार्यकुशलता का सिक्का भी जम जाता. पैसा बनाने के दूसरे स्रोत भी थे, वजीफा और दूसरी दान संस्थाओं द्धारा दिए गए अनुदानों में घपलेबाजी. न जाने कितनी संस्थाओं के वजीफे कालिज में आते, पर क्लर्कों को मिलाकर हम सब हजम कर जाते, किसी को कानों-कान खबर भी न होती. पर हमारे खर्च कुछ इस कदर बढ़े-चढ़े थे कि इतनी आय से भी पूरा न पड़ता था. चाय की दुकानों पर, पान की दुकानों पर हमारे उधार-खाते खुले और खातों में बकाया रकम पांच-पांच सौ तक पहुंच गई. कोई दुकानदार चूं भी न कर पाता था. आखिर बोले तो कैसे ? बोलता तो पिट जाता और उस की दुकान में आग लग जाती. सब कुछ चलता रहा और लड़कों पर हमारा दबदबा बढ़ता रहा. कालिज की अंतिम परीक्षाओं में मुझे प्रथम श्रेणी मिली.
आज स्थिति यह है कि मैं उसी कालिज में शिक्षक हूं और इस जगह से छात्रों की दुनिया कुछ अजब और अलग ही दिखलाई पड़ती है. कल तक जो हरकतें मैं स्वयं करता था आज वही सब अपने छात्रों को करते देख कर सहन नहीं होता. सारे दोस्त गलत नजर आते हैं और छात्रों की इन सारी अनुशासनहीन कारवाइयों का एक कारण मैं स्वयं को मानता हूं. कालिज की हालत दिनोंदिन खराब होती जा रही है और कल तक जो छात्र मेरे नेतृत्व में जान देने को भी तैयार रहते थे आज मुझे गालियां देते हैं. मैं मानता हूं कि छात्रों को ये रास्ते दिखाने का मुख्य दायित्व मुझ पर है. परिस्थितियों ने मुझे छात्र नेता बनाया और कालिज के अधिकारियों ने प्रोत्साहित किया. मैं सच कहता हूं. यदि प्रारंभ में ही अधिकारीगण कठोर कदम उठा कर मुझ जैसे टटपुंजिए नेताओं को कालिज से निकाल बाहर करते तो स्थिति हाथ से बाहर न जाती और उन्हें पछताना न पड़ता.

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