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विश्वास जीवन का आधार, अंध-विश्वास सबकुछ बंटाधार

हमारे जीवन में जब तक सब कुछ ठीक चलता रहता है, स्वयं पर हमारा विश्वास बना रहता है. जैसे ही परेशानियां आनी शुरू होती हैं हमारा अपना विश्वास डगमगाने लगता है और हम किसी सहारे की तलाश करने लगते हैं. ये परेशानियां बीमारियों के रूप में, दुर्घटनाओं के रूप में या आर्थिक नुकसान के रूप में सामने आती हैं और उनसे निपटने के लिये हमारे शुभचिंतक हमें किसी तांत्रिक से, ज्योतिषी से , ओझा से संपर्क करने को कहते हैं, या फिर किसी विशेष मंदिर में जाने को, या फिर कोई व्रत-उपवास या अनुष्ठान करने या मनौती मानने की सलाह देते हैं. हम मानकर सब-कुछ कर भी लेते हैं. 50% सफल हो जाते हैं, 50% नहीं भी होते. यदि ये सब तरीके न आजमाते तो भी नतीजा यही होता. भगवान में, धर्म में, बुजुर्गों में एवं धर्मगुरुओं में श्रद्धा एवं विश्वास जरूरी होते हैं, लेकिन बिना तर्क की कसौटी पर कसे उनकी बातों को मान लेना हमारे लिये घातक है जबकि हम जानते हैं कि आज के हिसाब से उनका ज्ञान बहुत कम है. जहां नैतिकता और अनैतिकता में फर्क करना है, वहां तो उनकी बातें ठीक होंगी, लेकिन बाकी मामलों में उनके ठीक होने की कोई गारंटी नहीं.
कुछ प्रश्न मन में जब-तब उठते हैं जिनका मैने यहां उल्लेख कर दिया है, कुछ प्रश्न , कुछ शंकाएं आपके मन में भी होंगी, दूसरों को बताइए और उत्तर मांगिए. उनके उत्तर से सहमत न हों तो तर्क दीजिए, चर्चा कीजिए. तर्क न आ रहे हों तो भी साफ-साफ कहिए “ भाई आपकी बात गले की नीचे नहीं उतर रही, ठीक से समझाइए, मेरे पास इसके विरोध में तर्क तो नहीं, लेकिन लग रहा है कि बात कहीं गलत है.” मेरे मन में उठने वाले प्रश्न एवं शंकाएं निम्नांकित हैं, क्या आपके पास इनके उत्तर हैं
1. क्या भूत-प्रेत-डाइन-चुड़ैल के अस्तित्व पर आज के जमाने में विश्वास किया जाए, क्योंकि हमारे बुजुर्ग उनसे मुलाकात के किस्से सुनाते हैं जिनपर हमें विश्वास तो नहीं होता, लेकिन हम उन्हें झूठा नहीं कह सकते. क्या डाइन के नाम पर झारखंड के गांवों के आदिवासी समाज में औरतों का शोषण नहीं हो रहा, इसे कब तक चलने दिया जाएगा?
2. गांवों में आज भी झाड़-फूंक के बहाने ओझा-गुनी लोग लोगों को बेवकूफ बनाते हैं और उचित चिकित्सा के अभाव में अनेक लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं.
3. शकुन-अपशकुन के नाम पर छींकने, बिल्ली के रास्ता काटने, शुभ कार्य के लिये निकलते समय विधवा-बांझ के सामने आ जाने को हम कब तक खराब समझते रहेंगे.
4. मुहुर्त देखकर कुछ काम करना आज भी क्यों जरूरी है, बहुत से कार्यों के लिये मुहूर्त देखना अब बन्द हो गया, क्या उससे हमारा नुकसान हुआ है?
5. अब यात्रा के लिये निकलते समय कोई दिशा-शूल की बात नहीं करता, क्या कोई नुकसान हुआ?
6. समुद्र को पारकर दूसरे देश जानेवालों को समाज से बहिष्कृत कर देते थे, अब तो लोग रोज ही विदेशों की सैर कर रहे हैं, कितना नुकसान हो रहा है, क्या हमारे बुजुर्ग गलत नहीं थे?
7. बुजुर्गों की हर बात को पत्थर की लकीर मानकर उसपर अमल करना कहां तक ठीक है, जबकि उनका ज्ञान एकदम अल्प और सीमित है, समय से वे बहुत पीछे चल रहे हैं?
8. धर्मगुरुओं की बातों को बिना प्रश्न किए, बिना तर्क की कसौटी पर कसे मान लेना कितना उचित है, अधिकांश गुरुओं के सत्संग में लड़कियों और महिलाओं की ही भीड़ क्यों होती है, जब-तब इनके आश्रमों से दुराचार की खबरें क्यों आती रहती हैं?
9. ज्योतिषियों की कितनी बातें ठीक निकलती हैं, क्या उनके अनुसार चलकर हम तरक्की कर सकते हैं? क्या बिना पढ़ाई किए कोई छात्र सिर्फ ज्योतिषियों की सलाह मानकर अंगूठी वगैरह पहन कर परीक्षाओं में अच्छा कर लेगा?
• प्रभाकर अग्रवाल

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