लगभग पांच साल पहले एक स्थानीय क्लब के सदस्यों के साथ अनगड़ा ब्लॉक के एक गांव में जाने का मौका मिला. बीस- पचीस लोग रहे होंगे, एक ट्रेकर पर बड़े बड़े कड़ाहे और पतीले लादे गये, चावल –दाल एवं सब्जियों के कुछ बोरे भी चढ़ाए गये, बीस –पचीस किलोमीटर के बाद मुड़े तो तीन चार किलोमीटर कच्ची सड़क मिली, फिर एक स्कूल आया जहां सभी बच्चे इकठ्ठे होकर हमारा इंतजार कर रहे थे. कुछ गांव वाले भी मौजूद थे. इसके बाद तो हम लोगों के चार-पांच घंटे वहां कैसे कट गये पता भी नहीं लगा. बच्चों के बीच हमने कई मनोरंजक, कई शिक्षाप्रद, कुछ शारीरिक कौशल की प्रतियोगिताएं कराईं और अच्छा प्रदर्शन करनेवाले बच्चों को पुरस्कृत भी किया गया.
इसी बीच में किसी ने पुकार लगाई कि चलो भाई खाना तैयार. पत्तलें बिछ गयीं, बच्चों को खिलाया गया, दाल-भात-सब्जी और सलाद, साथ में खीर भी. उसके बाद हमलोगों की बारी आई, भूख जोरों से लगी थी पेट में चूहे “लांग जंप, हाई जंप और न जाने कौन कौन सा जंप” कर रहे थे. पत्तल में स्टीमिंग राइस परोसा गया, ऊपर से चने की दाल और आलू-परवल की रसेदार सब्जी, साथ में टमाटर की मीठी पंचफोड़न वाली चटनी, तले हुए पापड़ और प्याज-मूली का सलाद. लाजबाब, हमलोग उधर प्रतियोगिताएं कराने में लगे थे, इधर पाककला में माहिर कुछ लोग भोजन बनाने में जुट गये थे, भोजन बना भी खूब स्वादिष्ट, मेरे लिये इस माहौल में पत्तल में स्टीमिंग राइस खाने का यह पहला मौका था, स्वाद तो ऐसा कि फाइव स्टार होटल भी फीके पड़ जाएं, पांच कोर्स का पचास आइटमों वाला मेनू भी इस खाने के आगे पानी भरे.
यह थी देशप्रिय क्लब की पिकनिक जिसने हम सब को पिकनिक के साथ-साथ ग्रामीण बच्चों के लिये भी कुछ करने का अविस्मरणीय सुख दिया. जिसका भी यह आइडिया था, बढ़िया था. मैं तो कार्य-व्यस्तता के कारण दूसरी बार नहीं जा पाया, लेकिन शायद यह कार्यक्रम बाद में भी दो -तीन या अधिक बार किया गया. इस पिकनिक की रिपोर्ट किसी अखबार को नहीं भेजी गयी, न कोई फोटो ही खींची गयी. सदस्यों को इस छोटे से कार्यक्रम का प्रचार करना हास्यास्पद लगा, कोई बड़ा काम किया हो तो अखबार में रिपोर्ट भेजी भी जाए.
अब एक दूसरी घटना का जिक्र भी करना चाहूंगा. मैं अपने काम से शहर के एक नामी-गिरामी स्कूल में गया हुआ था, वहां शहर की प्रतिष्ठित तथाकथित समाजसेवी महिलाओं का जमघट लगा था. पहले से खोदकर रखे गड्ढों मे ‘वृक्षारोपण कार्यक्रम’ के तहत पौधे लगाए जा रहे थे. रंग-बिरंगी महंगी साड़ियों में सजी-धजी, भारी-भरकम गहनों से लदी, विदेशी परफ्यूम की खुशबू बिखेरती इन सभी महिलाओं की लीडर मिसेज ‘क’ प्रेस फोटोग्राफरों को डायरेक्शन देने में व्यस्त थीं. दो पत्रकार भी मौजूद थे, मिसेज ‘ख’ खातिरदारी में उनपर विशेष रूप से मेहरबान थीं. “अरे भाई, शहर की प्रतिष्ठित माउचक दुकान के गुलाबजामुन हैं , आपको लेने ही पड़ेंगे” बोलकर खास आग्रह करते हुए उनसे चिपकी जा रही थीं. “अरे बाबू, क्लब के बैनर को ऊपर उठाओ, फोटो में नहीं आ रहा” दूर से चीखीं मिसेज ‘ग’. कैसे चुप रहतीं मिसेज ‘घ’, बोल ही पड़ीं, “ जो लोग साल भर में एक दिन आते हैं, उनकी तो फोटो छप जाती है, जो साल भर खटते-मरते हैं उनका नाम तक नहीं छपता, फोटो तो बहुत दूर की बात है, इस बार ऐसा हुआ तो बलवा हो जाएगा”. इसके बाद तो “तू-तू, मैं-मैं” का ऐसा दौर चला, मारपीट छोड़कर सबकुछ हो गया. मिसेज ‘क’ ने बात संभाली ,मामला शांत हुआ और प्रिंसिपल की उपस्थिति में “पर्यावरण संरक्षण” पर भाषणबाजी हुई, घिसे-पिटे जुमले उछले. महिलाओं ने बढ़िया नाश्ता किया और फिर अपनी-अपनी महंगी गाड़ियों से धुआं उगलती विदा हो गयीं. दूसरे दिन अखबारों में बड़ी फोटो के साथ विस्तृत रिपोर्ट भी छप गयी. यह समाजसेवा का दूसरा चेहरा था.
मिसेज ‘क’ और ‘ख’ जैसी महिलाएं करोड़पति परिवारों से आती हैं, इनमें से प्रत्येक यदि सालभर में लाख-पचास हजार रुपए भी जरूरतमंदों के लिये खर्च कर दे तो समाज कहां से कहां पहुंच जाए. लेकिन इससे कई गुना अधिक तो ये शान, शौकत और फिजूलखर्ची में उड़ा देती हैं. इन महिलाओं के घर पर लक्ष्मी बरस रही हैं, लेकिन धन के लिये इनकी हवस खत्म ही नहीं होती. कोई घर पर बुटिक चला रही हैं, कोई डेकोरेशन के सामान या आर्टिफिसियल ज्वेलरी बेच रही हैं, कोई नेटवर्क सेलिंग में लगी हैं. हरएक का यही कहना है कि अपना पॉकेट खर्च निकाल रही है. अरे भाई, अपना हुनर, समय और कुछ पैसा जरूरतमंदों को ऊपर उठाने में लगा दो, लेकिन क्यों करेंगी ये ऐसा. इनकी समाज सेवा तो करुणा से प्रेरित नहीं, वह तो दिखावा है, अखबार में छपने की चाहत पूरा करने का साधन है. इनके अपने घरों में अत्यंत कम तनख्वाह पर काम करने वाले नौकरों और बाइयों के तन पर फटे-पुराने कपड़े होते हैं, जाड़े में ठिठुरते उनके बच्चे सरकारी स्कूलों में जाते हैं, किताब कॉपियों के लिये तरसते हैं. कुछ तो घरॉ में,होटलों में काम करते हुए अपना बचपन पीछे छोड़ देते हैं, स्कूल का मुंह भी नहीं देखते. लेकिन ये तथाकथित समाजसेवी महिलाएं एवं पुरुष इन सबसे अनजान बने ऐसी जगहों पर कंबल बांट रहे होते हैं जहां अधिकाधिक प्रचार मिले, स्कूलों में स्लेट, पेंसिल बांटते हुए फोटो खिंचवा रहे होते हैं.
हमारी सारी आर्थिक और सामाजिक गतिविधियां हमारे और हमारे परिवार के लिये अधिकाधिक सुख-सुविधाएं बटोरने के लिये ही होती हैं. जब लगने लगता है कि अपने पास काफी धन हो गया और आनेवाली कई पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित हो गया, तब इच्छा होने लगती है कि अब कुछ नाम भी हो जाए, परोपकारियों में गिनती हो. कुछ हजार रुपए गरीबों की भलाई के लिये निकाल दिये या कुछ हजार देकर अस्पताल, धर्मशाला या स्कूल के कमरे बनवाकर संगमरमर पट्टिका पर अपना नाम खुदवा कर पुण्य बटोर लिया. ऐसे लोगों में व्यापारियों, भ्रष्ट अफसरों, वकीलों- डॉक्टरों की भरमार होती है. ये भारी – भरकम चंदे देकर संस्थाओं के सर्वोच्च पदों पर प्रतिष्ठित हो जाते हैं, सभाओं-समारोहों मे बतौर मुख्य अतिथि भी आमंत्रित होते हैं.
आज ये कहीं कंबल बांट रहे हैं, तो कहीं पुराने कपड़े, कोई दरिद्रनारायण भोज का आयोजन कर रहा है, तो कोई गुरुद्वारे में लंगर का खर्च उठा रहा है. कहीं मुफ्त दवा के साथ मेडिकल कैंप लग रहा है, तो कहीं पेय जल सेवा शिविर. सैकड़ों की तादाद में तथाकथित समाजसेवी संस्थाएं ये सब काम लगातार कर रही हैं, अखबारों में तस्वीरों के साथ इनकी खबरें छपती रहती हैं, देखकर लगता है कि कितना दर्द है इनके दिलों में गरीबों के लिये. लेकिन न तो गरीबी कम हो रही है, न जरूरतें. या तो कहीं तरीके में त्रुटि है, या जरूरत के अनुपात में प्रयास बहुत कम हैं या फिर यह सब बड़े लोगों की चोंचलेबाजी है जिसका कोई असर समाज पर नहीं पड़नेवाला.
अधिकतर समाजसेवी क्लबों का सालाना बजट ऐसे कामों के लिये लाख-पचास हजार से अधिक नहीं होता, जबकि उनका हर सदस्य अकेले इससे अधिक खर्च करने की हैसियत रखता है. वह करता भी है, लेकिन ऐश-मौज, शराब-पार्टी या फिर ब्रांडेड कपड़ों-जूतों, गहनों और ब्युटी पार्लरों में. जिस समाजसेवक के घर या प्रतिष्ठान में उसके अपने नौकर-चाकर भूखे-नंगे हों और दो जून रोटी के लिये अपने बच्चों को तालीम दिलाने की जगह काम पर लगाने को मजबूर हों, उसकी समाज-सेवा सिर्फ एक छद्म है, फ़रेब है. जिस महिला के कलेजे में अपने घर पर काम करनेवाली बाई एवं उसके बच्चों की दयनीय हालत को देखकर हूक नहीं उठती, उसकी समाजसेवा महज एक फैशन है. “चवन्नी उछालकर रुपए का शोर मचानेवाली समाज-सेवा” अब बन्द होनी चाहिए.
यदि गरीबों को देखकर दिल में वाकई दर्द उठता है, तब तो समाज सेवा के लिये आगे बढ़ें, अन्यथा महज फैशन के लिए, आत्मप्रचार के लिये की जाने वाली समाज सेवा से सामाजिक संगठनों को दूर रहना चाहिए. वे जो कपड़े- कंबल, कॉपी-पेंसिल आदि बांटने का काम करते हैं , उनसे समाज का नुकसान हो रहा है, जिन्हे कुछ दिया जाता है, उनका आत्मसम्मान टूटता है, हीन भावना आती है, परावलंबी बनने की प्रवृत्ति पनपती है. यदि कुछ करना है तो उन्हें स्वावलंबी बनाने की कोशिश करनी चाहिए- कुछ परोक्ष कर्ज देकर, सही प्रशिक्षण देकर, उनके काम में प्रत्यक्ष-परोक्ष मदद करके. यदि वे व्यवसाय कर रहे हैं , तो उनके उत्पादों की बिक्री का इंतजाम करना चाहिए, उधार कच्चा माल दिलवाना चाहिए. उनकी क्षमता का आकलन करके थोड़े प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए ताकि उनका स्किल लेवल बढ़े, फिर उन्हें उनके लायक काम दिलवा देना चाहिए. सरकारी दफ्तरों, स्कूलों और अस्पतालों की कार्य-संस्कृति को सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए ताकि ये जरूरी सेवाएं, सुविधाएं गरीबों को आसानी से उपलब्ध हो सकें. एक चीनी कहावत है, किसी की वास्तविक मदद करनी है तो उसे मुफ्त में मछली देने की जगह मछली पकड़ना सिखाना चाहिए. लेकिन क्या हम वाकई समाजसेवा के लिये अपना समय देना चाहेंगे या सिर्फ नाम छपवाने के लिए कुछ सिक्के उछालने में ही संतुष्ट हो जाएंगे ताकि हम अखबारों के पन्नों पर चमकें ?
इसी बीच में किसी ने पुकार लगाई कि चलो भाई खाना तैयार. पत्तलें बिछ गयीं, बच्चों को खिलाया गया, दाल-भात-सब्जी और सलाद, साथ में खीर भी. उसके बाद हमलोगों की बारी आई, भूख जोरों से लगी थी पेट में चूहे “लांग जंप, हाई जंप और न जाने कौन कौन सा जंप” कर रहे थे. पत्तल में स्टीमिंग राइस परोसा गया, ऊपर से चने की दाल और आलू-परवल की रसेदार सब्जी, साथ में टमाटर की मीठी पंचफोड़न वाली चटनी, तले हुए पापड़ और प्याज-मूली का सलाद. लाजबाब, हमलोग उधर प्रतियोगिताएं कराने में लगे थे, इधर पाककला में माहिर कुछ लोग भोजन बनाने में जुट गये थे, भोजन बना भी खूब स्वादिष्ट, मेरे लिये इस माहौल में पत्तल में स्टीमिंग राइस खाने का यह पहला मौका था, स्वाद तो ऐसा कि फाइव स्टार होटल भी फीके पड़ जाएं, पांच कोर्स का पचास आइटमों वाला मेनू भी इस खाने के आगे पानी भरे.
यह थी देशप्रिय क्लब की पिकनिक जिसने हम सब को पिकनिक के साथ-साथ ग्रामीण बच्चों के लिये भी कुछ करने का अविस्मरणीय सुख दिया. जिसका भी यह आइडिया था, बढ़िया था. मैं तो कार्य-व्यस्तता के कारण दूसरी बार नहीं जा पाया, लेकिन शायद यह कार्यक्रम बाद में भी दो -तीन या अधिक बार किया गया. इस पिकनिक की रिपोर्ट किसी अखबार को नहीं भेजी गयी, न कोई फोटो ही खींची गयी. सदस्यों को इस छोटे से कार्यक्रम का प्रचार करना हास्यास्पद लगा, कोई बड़ा काम किया हो तो अखबार में रिपोर्ट भेजी भी जाए.
अब एक दूसरी घटना का जिक्र भी करना चाहूंगा. मैं अपने काम से शहर के एक नामी-गिरामी स्कूल में गया हुआ था, वहां शहर की प्रतिष्ठित तथाकथित समाजसेवी महिलाओं का जमघट लगा था. पहले से खोदकर रखे गड्ढों मे ‘वृक्षारोपण कार्यक्रम’ के तहत पौधे लगाए जा रहे थे. रंग-बिरंगी महंगी साड़ियों में सजी-धजी, भारी-भरकम गहनों से लदी, विदेशी परफ्यूम की खुशबू बिखेरती इन सभी महिलाओं की लीडर मिसेज ‘क’ प्रेस फोटोग्राफरों को डायरेक्शन देने में व्यस्त थीं. दो पत्रकार भी मौजूद थे, मिसेज ‘ख’ खातिरदारी में उनपर विशेष रूप से मेहरबान थीं. “अरे भाई, शहर की प्रतिष्ठित माउचक दुकान के गुलाबजामुन हैं , आपको लेने ही पड़ेंगे” बोलकर खास आग्रह करते हुए उनसे चिपकी जा रही थीं. “अरे बाबू, क्लब के बैनर को ऊपर उठाओ, फोटो में नहीं आ रहा” दूर से चीखीं मिसेज ‘ग’. कैसे चुप रहतीं मिसेज ‘घ’, बोल ही पड़ीं, “ जो लोग साल भर में एक दिन आते हैं, उनकी तो फोटो छप जाती है, जो साल भर खटते-मरते हैं उनका नाम तक नहीं छपता, फोटो तो बहुत दूर की बात है, इस बार ऐसा हुआ तो बलवा हो जाएगा”. इसके बाद तो “तू-तू, मैं-मैं” का ऐसा दौर चला, मारपीट छोड़कर सबकुछ हो गया. मिसेज ‘क’ ने बात संभाली ,मामला शांत हुआ और प्रिंसिपल की उपस्थिति में “पर्यावरण संरक्षण” पर भाषणबाजी हुई, घिसे-पिटे जुमले उछले. महिलाओं ने बढ़िया नाश्ता किया और फिर अपनी-अपनी महंगी गाड़ियों से धुआं उगलती विदा हो गयीं. दूसरे दिन अखबारों में बड़ी फोटो के साथ विस्तृत रिपोर्ट भी छप गयी. यह समाजसेवा का दूसरा चेहरा था.
मिसेज ‘क’ और ‘ख’ जैसी महिलाएं करोड़पति परिवारों से आती हैं, इनमें से प्रत्येक यदि सालभर में लाख-पचास हजार रुपए भी जरूरतमंदों के लिये खर्च कर दे तो समाज कहां से कहां पहुंच जाए. लेकिन इससे कई गुना अधिक तो ये शान, शौकत और फिजूलखर्ची में उड़ा देती हैं. इन महिलाओं के घर पर लक्ष्मी बरस रही हैं, लेकिन धन के लिये इनकी हवस खत्म ही नहीं होती. कोई घर पर बुटिक चला रही हैं, कोई डेकोरेशन के सामान या आर्टिफिसियल ज्वेलरी बेच रही हैं, कोई नेटवर्क सेलिंग में लगी हैं. हरएक का यही कहना है कि अपना पॉकेट खर्च निकाल रही है. अरे भाई, अपना हुनर, समय और कुछ पैसा जरूरतमंदों को ऊपर उठाने में लगा दो, लेकिन क्यों करेंगी ये ऐसा. इनकी समाज सेवा तो करुणा से प्रेरित नहीं, वह तो दिखावा है, अखबार में छपने की चाहत पूरा करने का साधन है. इनके अपने घरों में अत्यंत कम तनख्वाह पर काम करने वाले नौकरों और बाइयों के तन पर फटे-पुराने कपड़े होते हैं, जाड़े में ठिठुरते उनके बच्चे सरकारी स्कूलों में जाते हैं, किताब कॉपियों के लिये तरसते हैं. कुछ तो घरॉ में,होटलों में काम करते हुए अपना बचपन पीछे छोड़ देते हैं, स्कूल का मुंह भी नहीं देखते. लेकिन ये तथाकथित समाजसेवी महिलाएं एवं पुरुष इन सबसे अनजान बने ऐसी जगहों पर कंबल बांट रहे होते हैं जहां अधिकाधिक प्रचार मिले, स्कूलों में स्लेट, पेंसिल बांटते हुए फोटो खिंचवा रहे होते हैं.
हमारी सारी आर्थिक और सामाजिक गतिविधियां हमारे और हमारे परिवार के लिये अधिकाधिक सुख-सुविधाएं बटोरने के लिये ही होती हैं. जब लगने लगता है कि अपने पास काफी धन हो गया और आनेवाली कई पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित हो गया, तब इच्छा होने लगती है कि अब कुछ नाम भी हो जाए, परोपकारियों में गिनती हो. कुछ हजार रुपए गरीबों की भलाई के लिये निकाल दिये या कुछ हजार देकर अस्पताल, धर्मशाला या स्कूल के कमरे बनवाकर संगमरमर पट्टिका पर अपना नाम खुदवा कर पुण्य बटोर लिया. ऐसे लोगों में व्यापारियों, भ्रष्ट अफसरों, वकीलों- डॉक्टरों की भरमार होती है. ये भारी – भरकम चंदे देकर संस्थाओं के सर्वोच्च पदों पर प्रतिष्ठित हो जाते हैं, सभाओं-समारोहों मे बतौर मुख्य अतिथि भी आमंत्रित होते हैं.
आज ये कहीं कंबल बांट रहे हैं, तो कहीं पुराने कपड़े, कोई दरिद्रनारायण भोज का आयोजन कर रहा है, तो कोई गुरुद्वारे में लंगर का खर्च उठा रहा है. कहीं मुफ्त दवा के साथ मेडिकल कैंप लग रहा है, तो कहीं पेय जल सेवा शिविर. सैकड़ों की तादाद में तथाकथित समाजसेवी संस्थाएं ये सब काम लगातार कर रही हैं, अखबारों में तस्वीरों के साथ इनकी खबरें छपती रहती हैं, देखकर लगता है कि कितना दर्द है इनके दिलों में गरीबों के लिये. लेकिन न तो गरीबी कम हो रही है, न जरूरतें. या तो कहीं तरीके में त्रुटि है, या जरूरत के अनुपात में प्रयास बहुत कम हैं या फिर यह सब बड़े लोगों की चोंचलेबाजी है जिसका कोई असर समाज पर नहीं पड़नेवाला.
अधिकतर समाजसेवी क्लबों का सालाना बजट ऐसे कामों के लिये लाख-पचास हजार से अधिक नहीं होता, जबकि उनका हर सदस्य अकेले इससे अधिक खर्च करने की हैसियत रखता है. वह करता भी है, लेकिन ऐश-मौज, शराब-पार्टी या फिर ब्रांडेड कपड़ों-जूतों, गहनों और ब्युटी पार्लरों में. जिस समाजसेवक के घर या प्रतिष्ठान में उसके अपने नौकर-चाकर भूखे-नंगे हों और दो जून रोटी के लिये अपने बच्चों को तालीम दिलाने की जगह काम पर लगाने को मजबूर हों, उसकी समाज-सेवा सिर्फ एक छद्म है, फ़रेब है. जिस महिला के कलेजे में अपने घर पर काम करनेवाली बाई एवं उसके बच्चों की दयनीय हालत को देखकर हूक नहीं उठती, उसकी समाजसेवा महज एक फैशन है. “चवन्नी उछालकर रुपए का शोर मचानेवाली समाज-सेवा” अब बन्द होनी चाहिए.
यदि गरीबों को देखकर दिल में वाकई दर्द उठता है, तब तो समाज सेवा के लिये आगे बढ़ें, अन्यथा महज फैशन के लिए, आत्मप्रचार के लिये की जाने वाली समाज सेवा से सामाजिक संगठनों को दूर रहना चाहिए. वे जो कपड़े- कंबल, कॉपी-पेंसिल आदि बांटने का काम करते हैं , उनसे समाज का नुकसान हो रहा है, जिन्हे कुछ दिया जाता है, उनका आत्मसम्मान टूटता है, हीन भावना आती है, परावलंबी बनने की प्रवृत्ति पनपती है. यदि कुछ करना है तो उन्हें स्वावलंबी बनाने की कोशिश करनी चाहिए- कुछ परोक्ष कर्ज देकर, सही प्रशिक्षण देकर, उनके काम में प्रत्यक्ष-परोक्ष मदद करके. यदि वे व्यवसाय कर रहे हैं , तो उनके उत्पादों की बिक्री का इंतजाम करना चाहिए, उधार कच्चा माल दिलवाना चाहिए. उनकी क्षमता का आकलन करके थोड़े प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए ताकि उनका स्किल लेवल बढ़े, फिर उन्हें उनके लायक काम दिलवा देना चाहिए. सरकारी दफ्तरों, स्कूलों और अस्पतालों की कार्य-संस्कृति को सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए ताकि ये जरूरी सेवाएं, सुविधाएं गरीबों को आसानी से उपलब्ध हो सकें. एक चीनी कहावत है, किसी की वास्तविक मदद करनी है तो उसे मुफ्त में मछली देने की जगह मछली पकड़ना सिखाना चाहिए. लेकिन क्या हम वाकई समाजसेवा के लिये अपना समय देना चाहेंगे या सिर्फ नाम छपवाने के लिए कुछ सिक्के उछालने में ही संतुष्ट हो जाएंगे ताकि हम अखबारों के पन्नों पर चमकें ?
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