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बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भारत को अपना चारागाह बना रही हैं

उदारीकरण के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिये जब दरवाजे खोले गये ,तो यही सपने दिखाये गये थे कि उनके क्रियाकलापों से देश में समृद्धि आयेगी क्योंकि प्रोफेशनल मैनेजमेंट एवं आधुनिकतम टेक्नोलॉजी के माध्यम से उत्पादकता बढ़ेगी, उत्पादों की गुणवत्ता विश्व स्तर की हो जायेगी, निर्यात कई गुना बढ़ जाने से देश का विदेशी मुद्रा-कोष लबालब भर जायेगा, और लोगों को नये रोजगार मिलेंगे जिससे उनका जीवन स्तर ऊपर उठ जायेगा.
आम मान्यता यही है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के काम काज में देश के सभी कानूनों का पालन किया जाता है, नीति संहिता पर कड़ाई से अमल होता है और अकाउंट्स में पारदर्शिता रखी जाती है. यही कहा जाता रहा है कि इनकी तुलना में देशी कंपनियां तो बनियों के हाथ की कठपुतली हैं जिनके माध्यम से देशी मालिक अपने श्रमिकों का शोषण करते हैं, अकाउंट्स में हेराफेरी करके टैक्स की चोरी करते हैं, विभिन्न चालाकियों से अपनी तिजोरी को भरने के लिये कंपनी के शेयरधारकों को चूना लगाते हैं. इस बात में काफी सच्चाई तो है, लेकिन हाल के वर्षों में यह बात भी उभर कर सामने आयी है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दामन भी बेदाग नहीं हैं, ये बहुत बड़े पैमाने पर धाँधली करती हैं जिसका व्यापक असर उस देश की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पर पड़ता है. ये कंपनियां अपने माल की बिक्री बढ़ाने के लिये तरह तरह के हथकंडे अपनाती हैं, सामाजिक मुद्दों से ऊपर- ऊपर तो वे सरोकार दिखाती हैं ,लेकिन जब ये मुद्दे उनके स्वार्थ से टकराते हैं ,तब ये उन्हें दरकिनार करने में जरा भी नहीं चूकतीं.
इनसे यही उम्मीद थी कि यहाँ के सस्ते श्रमिक बल और साधनों का उपयोग कर ये अपना अधिकाधिक माल निर्यात करेंगी, लेकिन इन्होंने तो हमें ही बाजार में तब्दील कर अपना चारागाह बना लिया. कुटीर उद्योगों पर आधारित हमारी सदियों पुरानी अर्थव्यवस्था को ही तहस नहस कर दिया, बेरोजगारों की फौज खड़ी कर दी, लोगों की आदतें खराब कर उन्हें फिजूलखर्च और भोगवादी बना दिया. हिन्दुस्तान लीवर ने हमारे यहां साबुन बनाने के कुटीर उद्योगों को नेस्तनाबूद कर दिया, ब्रिटैनिया के कारण छोटी छोटी बेकरियों पर गाज गिरी, तत्काल लाभ के नारे के साथ दवा कंपनियों ने पहले तो जनसुलभ आयुर्वेदिक दवाइयों पर से जनता का विश्वास तोड़ा और अब अपनी दवाइयों को महँगा कर उनकी कमर तोड़ रही हैं. इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास अकूत धन होता है, पहले तो अपना माल घाटे में बेचकर ये स्थानीय उद्योगों को बंद कराती हैं, आकर्षक विज्ञापन करके और फ्री सैंपुल बाँटकर लोगों में अपने प्रोडक्ट की लत डालती हैं और जब उनका एकछत्र राज्य स्थापित हो जाता है तब खुलकर बाजार का दोहन करती हैं. सुनते हैं कि आइ. टी. सी. कंपनी अगरबत्ती बनाने जा रही है, उसे इस बात से क्या मतलब कि हजारों कुटीर उद्योग बंद हो जायेंगे और लाखों लोग बेकार हो जायेंगे. एक कदम और आगे बढ़कर यह कंपनी तो अपनी बिक्री बढ़ाने के लिये गांवों में चौपाल नाम से डिपार्टमेंटल स्टोर्स खोल रही है ताकि कर्ज लेकर भी हमारे गरीब ग्रामीण चमकते - दमकते विदेशी सामान खरीदने की लत पाल लें और झूठे शहरी दिखावे की आपसी होड़ में बर्बाद हो जायें, छोटे उद्योग बंद हो जायें, लाखों लोग बेरोजगार होकर इनके गुलाम हो जायें ताकि अधिक सस्ते में इन्हें श्रमिक मिल सकें और इनका मुनाफा बदस्तूर बढ़ता जाये.
पारदर्शी हिसाब किताब इनकी सबसे बड़ी विशेषता मानी जाती है, लेकिन एनरॉन तथा कई अन्य कंपनियों के अकाउंट्स में पाई गयी गड़बड़ी ने इसपर भी सवालिया निशान लगा दिये हैं. अफसरों और नेताओं को धनराशि देकर और उनके लाडले रिश्तेदारों को अपनी विदेशी शाखाओं में ऊंची तन्ख्वाह पर नौकरी देकर इनके द्वारा अनुचित लाभ उठाने की बात किसी से छिपी नही, बोफोर्स जैसे अनेक उदाहरण जगजाहिर हैं. पेप्सी और कोकाकोला में पायी जाने वाली फफूँद और यूरिया ने इनकी तथाकथित गुणवत्ता को भी कटघरे में खड़ा कर दिया है. इन्हें तो सिर्फ अपना माल यहां बेचने से मतलब है, इनके प्रोडक्ट से लोगों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर क्या बुरा असर पड़ता है उससे इन्हें कोई मतलब नहीं. यहाँ की दो चार लड़कियों को विश्वसुन्दरी के खिताब क्या दे दिये, सारी लड़कियाँ ही इतराने लगीं. महानगरोँ में ब्यूटी क्वीन प्रतियोगिताएं आयोजित कर, क्लब-डेटिंग-डिस्को संस्कृति को स्मार्ट फैशन बनाकर , वैलेंटाइन डे धूमधाम से हर साल मनवा कर एवं भोगवादी संस्कृति की चकाचौंध दिखलाकर इन्होंने यहां के युवा वर्ग के सोचने की दिशा ही बदल दी है ताकि यहाँ इनके हर माल के लिये विस्तृत बाजार तैयार हो सके.
आइ एस ओ 9001 आदि अनेक अंतर्राष्ट्रीय मानकों से सुसज्जित इन कंपनियों से उम्मीद की जाती है कि ये सभी श्रमिक कानूनों का पालन करते हुए मजदूरों को उनका प्राप्य सब कुछ देंगी, उनकी आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा के लिये कदम उठायेंगी. लेकिन अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियां बहुत चालाकी से सारे कानूनों का उल्लंघन कर अधिकाधिक लाभ कमाने में लगी हैं. इनके यहां स्थाई मजदूरों की संख्या तो कम होती जा रही है और कैजुअल तथा ठेका श्रमिकों की बहाली बदस्तूर बढ़ती जा रही है ताकि न तो उनके और उनके परिवार के लिये कल्याणकारी योजनाओं पर अमल करना पड़े, न उनके भविष्य की सुरक्षा के लिये कोई खर्च करना पड़े. यहां की गरीब जनता का यह शोषण नहीं तो क्या है ? तुर्रा तो यह कि ये अपनी अनुषंगी इकाइयों को भी प्रेरित और बाध्य करती हैं कि वे अपने यहां अस्थाई मजदूर रखें, कम से कम वेतन देकर काम चलाएं, ई.एस.आइ और ई.पी.एफ आदि सुविधाएं देने से बचें ताकि उनके द्वारा तैयार माल की लागत कम बैठे. गौर करें, आइ एस ओ जैसे अंतर्राष्ट्रीय मानकों के तहत नियम है कि कंपनियां तो अपने यहां सभी कानूनों का पालन करें ही अपनी अनुषंगी इकाइयों, आपूर्तिकर्ताओं और ठेकेदारों को भी इन कानूनों और नैतिक आदर्शों का उल्लंघन न करने दें.
यही बात पर्यावरण संरक्षण पर भी लागू है, लेकिन ये कंपनियां अधिकाधिक लाभ कमाने के पीछे हद तक दीवानी हैं, इन्हें जरा भी चिंता नहीं कि इनकी गतिविधियों का कितना हानिकारक असर पर्यावरण पर पड़ रहा है. भूगर्भ स्तर नीचे जा रहा है या जल- मिट्टी-वायु के साथ साथ वातावरण प्रदूषित हो रहा, उसकी चिंता इन्हें तभी तक है जबतक इनके कारखाने यूरोप या अमेरिका में हैं.
ये कंपनियां अधिक से अधिक काम आउटसोर्स कर रही हैं, इसमें उनका बहुत बड़ा स्वार्थ निहित है. सस्ती से सस्ती दर पर माल की सप्लाई के लिये ये पहले तो आपूर्तिकर्ता इकाइयों को सब्जबाग दिखाकर उनसे प्लांट और मशीनरी पर अतिरिक्त स्थाई निवेश करा देती हैं, फिर उनमें आपस में ही गलाकाट प्रतियोगिता करा देती हैं. इसके बाद भी येन केन प्रकारेण लागत कम करने के लिये दबाव डालती रहती हैं. बेचारे आपूर्तिकर्ता भी क्या करें, उनकी तो गरदन फँसी रहती है, लागत कम कर अपना मुनाफा बढ़ाने के लिये हर अनुचित तरीके खोजने की कोशिश करते हैं. यहां तक कि न्यूनतम वेतन देने से भी कतराते हैं, बोनस वगैरह तो सपने की बात है. मुनाफा कमाने के लिये माल की गुणवत्ता अलग गिरा देते हैं, विभिन्न टैक्सों की चोरी तो करते ही हैं. यह सब कुछ न चाहते हुए भी उन्हें करना पड़ता है ताकि उस बहुराष्ट्रीय कंपनी से काम मिलता रहे और कारखाना चालू रहे.
झारखंड के गोमिया में स्थित बहुराष्ट्रीय कंपनी आइ. सी. आइ का एक्सप्लोसिव कारखाना इन सारे विरोधाभासों का ज्वलंत उदाहरण है. अंतर्राष्ट्रीय बाजार की प्रतिस्पर्धा का बहाना बना कर भ्रष्ट सरकारी मशीनरी का पूरा लाभ उठाते हुए यहां के गरीब मजदूरों का दोहन करने में लगी है यह कंपनी. इसकी अनुषंगी इकाइयां श्रमिक और पर्यावरण संबंधी कानूनों का बेधड़क उल्लंघन कर रही हैं, उनके यहां विस्फोटकों से संबंधित काम होते हैं और सुरक्षा नियमों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं, कोई बोलनेवाला नहीं क्योंकि स्थानीय विधायक और मंत्री का वरदहस्त जो प्राप्त है. जिस दिन भोपाल के य़ूनियन कार्बाइड जैसा कोई कांड हो जायेगा उसी दिन मीडिआ और सरकार की नींद खुलेगी. भगवान से प्रार्थना है कि ऐसी त्रासदी से झारखंड को बचाएं.

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