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कबीर को लालू की जरूरत नहीं

समाचार था कि अब कबीर के जन्मदिन पर लालू जी पूरे राज्य में छुट्टी की घोषणा करेंगे, चौराहों पर उनकी प्रतिमाएं स्थापित कराएंगे. उनका जन्मदिन निश्चित करने के लिए विद्वानों को लगा दिया गया है. इसके बाद शायद लालू जी कबीर दास को “भारत रत्न” दिलवाने की भी बातें करें. पूरे बिहार को जाति और वर्ग संघर्ष की आग में झोंक कर राजनीति की रोटियां सेंकने वाले लालू यादव को शायद ही कबीर का एक भी दोहा याद हो. जाति प्रथा और धार्मिक कठमूल्लों की धज्जियां उड़ाने वाले युगमानव कबीर के नाम का इस्तेमाल गंदी राजनीति के कूड़े-कचरे को सोना साबित करने के लिए करना, “जस की तस धर दीनी चदरिया” वाली विभूतियों अपमान है. यह बात सच है कि कबीर विगत कई वर्षों से सिर्फ पाठ्यपुस्तकों में प्रकाशित दोहों तक ही सीमित रह गये थे. यदि उन दोहों के आधार पर हमारा समाज अपने को जरा भी ढालने का प्रयास करता, तो शायद आज धरती पर स्वर्ग उतर आता, जहां “ढाई आखर प्रेम” की मंदाकिनी बहती. माला फेरत जुग गया, कहकर कबीर ने सभी धार्मिक ढोंगियों की बखिया उधेड़ दी. “ताते वह चक्की भली” और मुल्ला बांग दे कहने वाले कबीर को न तो हिंदुओं ने सहा और न मुसलमानो ने दुलारा.
अब तो पाठ्यपुस्तकों से भी कबीर को खदेड़ा जा रहा है. आज अंग्रेजी लहजे में हिंदी बोलने वालों को कबीर की हिंदी रास कैसे आये. शहरी संस्क़ृति के सौंदर्य में देहाती भाषा के कीचड़ के छींटे कौन बर्दाश्त करेगा? धर्म और जाति की बारूद पर बैठे दिग्भ्रमित समाज को यदि कोई रास्ता दिखा सकता है, तो वह कबीर ही हैं, लेकिन कबीर को लालू की जरूरत नहीं.

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