“अरे यार, जिंदगी को ‘डायनेमिक बनने दो। चार दिनों की जिंदगी का मजा अभी न लिया तो फिर कब? बोलो, राजा, भोलेनाथ की बम और फिर दम मारो दम..........” और, बस शुरु हो गया, सात -आठ लड़कों ने अपने को ‘किक’ देने के नाम पर चिलम का दम लगाया, शायद एक उन में से नया रंगरुट था। पहले ही कश में उसे खांसी आ गई, तो दूसरे ने कहा, “अबे, साले, क्या घोंघे बसंतों की तरह पी रहा है। इस तरह पी.........” और उस ने एक जोरदार कश लगा कर दिखाया। ‘पॉटिंग’ का यह दौर रात में काफी देर तक चला। यह किसी एक दिन की बात नहीं वरन छात्रावासों में तो आम बात बन चुकी थी। शाम तो किसी तरह रास्तों पर पान के बीड़े गाल में दबाए हुए, सिगरेट से धुएं के छल्ले बनाते हुए और साथ-साथ किसी आधुनिका का पीछा करते हुए कट जाती है लेकिन रात को ‘सेक्स क्रेज़’ अधिक जोर मारता है। खयालात अपने वस्त्र उतार कर नंगे होने लगते हैं। तब दो-दो, चार-चार के दलों में निकल पड़ते हैं। किसी बार में या किसी देशी ठरें की दुकान पर या फिर छात्रावास के ही किसी कोने में ‘पॉटिंग’ और ‘ड्रिंक्स’ के दौर चलते हैं, ट्रांजिस्टर या रिकार्ड प्लेयर फुल वाल्यूम पर खोल कर अपने को उसी में घोलने की कोशिशें की जाती हैं। नाइट शो देख कर लेट लौटना, चारदीवारियों के अंदर 52 पत्तों की किताब रात भर पढ़ने के बाद सुबह कालिज जाने के स्थान पर बिस्तरों पर जाना या रात भर किसी नशे में डाउन रह कर होहुल्लड़ मचाना- ये सब आज के छात्रावासों में अधिकतर छात्रों की दिनचर्या में रात्रिचर्या के रुप में जुड़ चुके हैं। छात्रावासों में इन सभी चीजों से अलग एक दूसरा दल भी उपस्थित रहता है - अपने उत्तरदायित्वों के प्रति जागरुक.
पर छात्रों के इस दल का आकार छोटा है। इस के सदस्यों की संख्या दिनोंदिन घटती जाती है। घर के परिवेश में अध्यवसायी रह कर जब छात्र इस नए स्वच्छंद परिवेश में प्रवेश करता है तो उस के सामने उच्च आकांक्षाओं, मधुर कल्पनाओं एवं दृढ़ संकल्पों का साम्राज्य लहलहा रहा होता है। पर, यहां प्रवेश करते ही यह दल धीरे-धीरे ऊधमी छात्रों के दल के द्वारा ‘ओवर पावर’ कर लिया जाता है। “अरे, साला पूरा घोंचू है। दिन-रात खच्चरों की तरह जुटा रहता है। फिर भी ‘मार्क्स’ हमारे बराबर ही पाता है। बेटा, अगर हम इतनी ‘लेबर’ करें तो ‘टॉप’ कर जाएं.”
इस तरह के न जाने कितने असंगत एवं आत्मसम्मान को घात प्रति घात देने वाले कटु जुमले सहने पड़ते हैं। बहुत ही कम छात्र ऐसे होते हैं जो इन पर जरा भी ध्यान न दे कर अपने संकल्पों को, अपनी कल्पनाओं को ठोस आकार देने में लगे रहते है। अधिकतर लड़के इन अपने को ‘माडर्न’ कहने वाले लड़कों से प्रभावित हो कर विचलित हो जाते है। क्योंकि इन के पास सुनाने को इतने किस्से (झूठे, सच्चे, नमक-मिर्च लगे) रहते हैं कि बड़े-बड़े महारथी हार मान लें। दो छात्रों के बीच इस प्रकार की वार्ता का एक टुकड़ा यहां पेशे खिदमत है।
“अरे यार, कुछ पूछो मत बस कल तो मस्ती ही आ गई वह जो वीमेंस होस्टल वाली सविता है न, उस ने साथ-साथ मैटिनो शो देखने का वादा किया है.” दूसरे का मुंह लटक गया, बोला, “क्यों फेंक रहा है यार?” .
”चल-चल, बसकर, इतना हताश होने की क्या जरुरत है, चल, अभी मैं तेरा नलिनी से इंट्रोडक्शन करा देता हूं, फिर मजे करते रहना। अपना मन तो अब उस से भर चुका है तेरे लिए फ्रेश चीज होगी, काटते रहना।“
और, आप खुद ही समझ सकते हैं कि क्या हुआ होगा। दूसरे सज्जन को दूसरे दिन क्लास में होने वाले टेस्ट की तैयारी करनी थी पर नलिनी वाला चांस कैसे छोड़ सकते थे। तुरंत उठ कर चल दिए, टेस्ट जाए भाड़ में। ऐसी न जाने कितनी घटनाएं मिलेंगी इम्तिहान के दिनों में तो इन हरकतों को और बल दिया जाता है, साल भर कुछ भी न पढ़े होने पर इम्तिहान की सोच कर, लंबे कोर्स की सोच कर मन में अधिक भय होता है, उस से बचने के लिए वे अपनी इन हरकतों को और भी अधिक जोर देते है, परीक्षाओं की रातों में नकल करने के लिए पर्चियां एवं चिटें बनती हैं। यही कारण है कि विश्व-विद्यालयों का परीक्षाफल 10 से 20 प्रतिशत के बीच रहता है और जो छात्र सफल भी होते हैं उन में से अधिकतर में गहन अध्ययन का अभाव होता है।
छात्रावास में रहने वाले अधिकतर छात्रों में अपने से अच्छी आर्थिक स्थिति के छात्रों को देख कर हीनता की भावना भी उत्पन्न हो जाती है, अच्छी आर्थिक स्थिति वाले छात्रों के साथ-साथ रह कर भी, अधिक ऐशोआराम करते देख कर खराब स्थिति वाले छात्रों में जिंदगी को बाह्रा सुविधाओं की मदद से अधिक ‘इनज्वाय’ करने की आकांक्षाएं उत्पन्न हो जाती हैं। परिवार के दायरे में तो ये इतनी अधिक मात्रा में नहीं होतीं पर छात्रावास में विभिन्न आर्थिक स्थिति वाले छात्रों के साथ 24 घंटे रह कर ये आकांक्षाएं आकाश छूने लगती हैं. तब अपने परिवार, समाज एवं परिवेश के प्रति उत्पन्न होती हैं- आक्रोश, विद्रोह एवं विक्षोभ की भावनाएं। ऐसी स्थिति में छात्र के मस्तिष्क से, मन से अपने परिवार के प्रति उत्तरदायित्व की सारी भावनाएं चुक जाती है और वह परिवार की आर्थिक स्थिति का जरा भी खयाल न कर फिजूलखर्ची में जुट जाता है. सिगरेट, जुआ, शराब एवं पिक्चरों में पैसा पानी की तरह बहने लगता है घर पर अधिक रुपए भेजने के लिए पत्र एवं टेलीग्राम जाते हैं. पैसा न आने पर तरह-तरह की धमकियां दी जाती हैं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दोस्तों से कर्ज लिया जाता है, जालसाजियां की जाती हैं, ज्ञान तब होता है जब पानी सिर के ऊपर से गुजर चुका होता है, उस स्थिति में सिर्फ एक रास्ता बचा रहता है- आत्महत्या या घर से पलायन.
देशी-विदेशी शराबों के प्यालों में डूब कर, गांजे एवं अफीम की चिलमों में जन्नत की खोज कर रहे छात्रों गणनाओं के लिए प्रत्येक छात्र के पास एक यंत्र ‘स्लाइड रुल’ होता था, उस समय कैलकुलेटर की अनुमति नहीं थी.। देश के एक भावी इंजीनियर साहब ने अपने ‘पेरेंट्स’ को लिखा- “स्लाइड रुल भर गया है, खाली कराने के लिए, 200 रुपए यथाशीघ्र भेजें, पढ़ाई रुकी है” अब बेचारे अनपढ़ ‘पेरेट्स’ क्या जानें कि ‘स्लाइड रुल’ क्या बला होती है और वह भरती है व खाली होती है और इस प्रकार उन के पास 200 रुपए का मनी-आर्डर 10 दिनों के अंदर आ गया। भोले-भोले निर्दोष मां-बाप को कितनी सरलता से मूर्ख बनाया। वे रुपए कहां गए होंगे-अवश्य ही होटलों और बार में.
आज के छात्रावासों की जिंदगी के संदर्भ में तो ये बहुत छोटी-छोटी बातें हैं, लेकिन इन के साथ ही साथ जो ‘सेक्स’ से संबंधित कारवाइयां होती है, उन की वीभत्सता का कोई जवाब नही। लड़कों एवं लड़कियों - सभी का बराबर से हाथ होता है। छात्रावासों से चुपचाप खिसक कर लड़कों के साथ पिक्चर जाना, डेटिंग पर जाना आज के लिए आम बात बन चुकी है। सहेलियों से, दोस्तों से इस विषय पर बहुत रस ले कर बातचीत होती है, इन के पास अपने कारनामों के लिए बस एक तर्क रहता है, “इस उम्र में तो ‘सेक्स क्रेज’ होना प्राकृतिक क्रिया है, क्या हमारे मां-बाप ने अपनी युवावस्था में यह सब नहीं किया होगा? परिवार के साथ रहने पर तो ‘यौन भावनाएं’ कुछ कम रहती हैं, अपने परिवार को देख कर आदमी के अंदर जो सेक्स फीलिंग या यौन तृष्णा रहती भी है तो वह दब जाती है, वह अपने आप को कंट्रोल कर सकता है, पर छात्रावासों में तो व्यक्ति खुल जाता है, स्वच्छंदता का पूर्ण उपभोग करता है। फलस्वरुप उस के अंदर दिनोंदिन ‘सेक्स’ की ‘डिमांड’ बढ़ती जाती है. उस का उचित-अनुचित का ज्ञान समाप्त हो जाता है यौन तृष्णा की शांति के लिए उसे आसपास छोटे-छोटे साधन मिलते हैं और ये साधन छात्रावासों की स्वच्छंदता एवं दूसरे साथियों की कृपा से आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं. इन साधनों में अश्लील नग्न तसवीरें एवं पुस्तकें प्रमुख हैं, जिन्हें वे ‘हाट बुक्स’ या ‘पौंडी’ कहा करते हैं। यौन तृष्णा से अनुचित एवं आप्रकृतिक यौन संबंधों का भी जन्म इन्हीं छात्रावासों में होता है. एक इंजीनियरिंग कालिज में रैगिंग पीरियड के दौरान सीनियर छात्रों के द्वारा नये छात्रों के साथ अनुचित यौन संबंध बनाने की कुचेष्टा के कुछ समाचार अखबारों में छपे. प्रोफेशनल कॉलेजों के अलावे जनरल कालिजों के छात्रावास भी इन गंदी हरकतों से अछूते नहीं। यह दूसरी बात है कि कहीं ये चीजें उजागर हो जाती हैं और दूसरे स्थलों पर ढकी-मुंदी चलती रहती हैं. इन तथ्यों से वही परिचित होते हैं जो छात्रावास की जिंदगी के अधिक समीप होते है।
छात्रावासों मे सेक्स की अतृप्त क्षुधा को गंदी एवं घिनौनी गालियों के माध्यम से भी जाने अनजाने कुछ-कुछ शांत करने की चेष्टा की जाती है। यहां पर इन छात्रों के रोजमर्रा के वार्तालाप के कुछ अंशों को उद्धृत कर देने पर सारी चीजें स्वयं स्पष्ट हो जातीं, पर उन वार्त्तालापों को ज्यों का त्यों उद्धृत कर देने का साहस मुझ में नहीं, हाँ यह बताना अधिक रोचक होगा कि कभी-कभी दो आसपास स्थित छात्रावासों के मध्य गालियों का कंपीटीशन भी देखने को मिलता है। छात्रावासों की छतों पर खड़े भारत के भावी रुप के निर्माता आकाश को अपनी गंदी गालियों के नाद से गुंजा देते हैं, बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के. देखने वाले को यही शंका हो कि ये शायद पागल हो गए हैं और आकाश को गिरा देने की चेष्टा कर रहे हैं। छात्रावास के पास से लड़कियों का गुजरना तो बस कयामत ढा देता है. कई जोड़ी गिद्ध की सी भूखी आंखें और विकृत जुमले उन का पीछा करना शुरु कर देते हैं. छात्रावास के बाहर सड़कों पर पान के बीड़े चबाते हुए, सिगरेट के धुएं के छल्ले बनाते हुए एवं आसपास से गुजर रही लड़कियों पर जुमले कसते हुए इन छात्रावासी नवाबजादों को बस हमेशा यही खयाल रहता है कि वे स्मार्ट तो दीख रहे हैं.
इस प्रकार इन छात्रों की यौन वितृष्णा इन छोटे-छोटे रास्तों से बाहर निकलती है पर समय बीतने के साथ इन से भी मन भर जाता है फिर पैदा होता है ‘सेक्स फ्रस्ट्रेशन’। फलस्वरुप छात्र का मन अध्ययन एवं अपने कर्तव्यों से बिलकुल उचट जाता है, खुराफातें बढ़ जाती हैं और धीरे-धीरे दूसरे कारणों की सहायता से, असंतोषों से जन्म होता है कालिजों एवं स्कूलों में छात्र आंदोलनों का जिनमें अधिकतर प्रतिनिधित्व इन छात्रावास में रहने वाले छात्रों का होता है। इन सभी बातों से आज के छात्रावासों की जो विकृत तसवीर हमारे समक्ष आ खड़ी होती है उस में पुरानी पीढ़ी के लोग या अधिक गहराई से सोचने वाले लोग अपने को कहीं भी ‘एडजस्ट’ नहीं कर सकते। छात्रावासों मे रहने वाले छात्र इन सभी चीजों को देखने के अभ्यस्त हो चुके हैं, अतएव उन में से अधिकतर छात्रों को ये सभी चीजें बुरी नहीं लगतीं, भले ही वे इन में हिस्सा लेते हों या नहीं।
इन सब बातों से यह निष्कर्ष निकालना सर्वथा गलत होगा कि छात्रावासों में केवल इसी प्रकार की विसंगतियां, कुरीतियां एवं जीवन के साथ दुरभिसंधियां पलती है, वहां अपने कर्तव्यों के प्रति जागरुक वर्ग भी होता है जो जिंदगी का मजा अपने उत्तरदायित्व को वहन करने में एवं संकल्पों को साकार करने के लिए कर्मपथ पर चलते रहने में ही समझता है। इस बात से कोई इनकार नहीं होना चाहिए कि आजकल के छात्रावासों का वातावरण कुछ इस तरह अस्वस्थ व दूषित हो गया है कि छात्रों को अपने कर्तव्य से विमुख हो कर जीवन के क्षणिक सुखों की छात्र जीवन में ही प्राप्त करने की आकांक्षा बलवती हो उठती है और उन्हें इस कुपथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा भी वहीं बड़ी सरलता से मिल जाती हैं। एक बात स्पष्ट है कि ऐसे वातावरण में जो नागरिक तैयार होंगे, उन में ऊपर से ठाटबाट खूब दिखाई देगा पर अंदर ही अंदर व्याप्त होगा एक भीषण खोखलापन, जो समस्त राष्ट्र के जीवन को समेट लेगा।
एक उन्नत एवं सबल राष्ट्र के लिए सुलझे मस्तिष्क वाले नागरिकों का एक शिक्षित वर्ग तैयार करने के लिए इन छात्रावासों का वातावरण कुछ इस प्रकार से परिवर्तित करना पड़ेगा कि भारत के भावी नागरिक ‘सेक्स फ्रस्ट्रेशन’ ‘हालोनेस’ इत्यादि नए-नए शब्दों के कवच के अंदर छिपने के स्थान पर खुल कर बाहर आएं और अपने कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों को पहचानें। तभी शिक्षा के लिए निर्मित छात्रावासों को वास्तविक उद्देश्य प्राप्त होगा एवं राष्ट्र का लाभ होगा।
पर छात्रों के इस दल का आकार छोटा है। इस के सदस्यों की संख्या दिनोंदिन घटती जाती है। घर के परिवेश में अध्यवसायी रह कर जब छात्र इस नए स्वच्छंद परिवेश में प्रवेश करता है तो उस के सामने उच्च आकांक्षाओं, मधुर कल्पनाओं एवं दृढ़ संकल्पों का साम्राज्य लहलहा रहा होता है। पर, यहां प्रवेश करते ही यह दल धीरे-धीरे ऊधमी छात्रों के दल के द्वारा ‘ओवर पावर’ कर लिया जाता है। “अरे, साला पूरा घोंचू है। दिन-रात खच्चरों की तरह जुटा रहता है। फिर भी ‘मार्क्स’ हमारे बराबर ही पाता है। बेटा, अगर हम इतनी ‘लेबर’ करें तो ‘टॉप’ कर जाएं.”
इस तरह के न जाने कितने असंगत एवं आत्मसम्मान को घात प्रति घात देने वाले कटु जुमले सहने पड़ते हैं। बहुत ही कम छात्र ऐसे होते हैं जो इन पर जरा भी ध्यान न दे कर अपने संकल्पों को, अपनी कल्पनाओं को ठोस आकार देने में लगे रहते है। अधिकतर लड़के इन अपने को ‘माडर्न’ कहने वाले लड़कों से प्रभावित हो कर विचलित हो जाते है। क्योंकि इन के पास सुनाने को इतने किस्से (झूठे, सच्चे, नमक-मिर्च लगे) रहते हैं कि बड़े-बड़े महारथी हार मान लें। दो छात्रों के बीच इस प्रकार की वार्ता का एक टुकड़ा यहां पेशे खिदमत है।
“अरे यार, कुछ पूछो मत बस कल तो मस्ती ही आ गई वह जो वीमेंस होस्टल वाली सविता है न, उस ने साथ-साथ मैटिनो शो देखने का वादा किया है.” दूसरे का मुंह लटक गया, बोला, “क्यों फेंक रहा है यार?” .
”चल-चल, बसकर, इतना हताश होने की क्या जरुरत है, चल, अभी मैं तेरा नलिनी से इंट्रोडक्शन करा देता हूं, फिर मजे करते रहना। अपना मन तो अब उस से भर चुका है तेरे लिए फ्रेश चीज होगी, काटते रहना।“
और, आप खुद ही समझ सकते हैं कि क्या हुआ होगा। दूसरे सज्जन को दूसरे दिन क्लास में होने वाले टेस्ट की तैयारी करनी थी पर नलिनी वाला चांस कैसे छोड़ सकते थे। तुरंत उठ कर चल दिए, टेस्ट जाए भाड़ में। ऐसी न जाने कितनी घटनाएं मिलेंगी इम्तिहान के दिनों में तो इन हरकतों को और बल दिया जाता है, साल भर कुछ भी न पढ़े होने पर इम्तिहान की सोच कर, लंबे कोर्स की सोच कर मन में अधिक भय होता है, उस से बचने के लिए वे अपनी इन हरकतों को और भी अधिक जोर देते है, परीक्षाओं की रातों में नकल करने के लिए पर्चियां एवं चिटें बनती हैं। यही कारण है कि विश्व-विद्यालयों का परीक्षाफल 10 से 20 प्रतिशत के बीच रहता है और जो छात्र सफल भी होते हैं उन में से अधिकतर में गहन अध्ययन का अभाव होता है।
छात्रावास में रहने वाले अधिकतर छात्रों में अपने से अच्छी आर्थिक स्थिति के छात्रों को देख कर हीनता की भावना भी उत्पन्न हो जाती है, अच्छी आर्थिक स्थिति वाले छात्रों के साथ-साथ रह कर भी, अधिक ऐशोआराम करते देख कर खराब स्थिति वाले छात्रों में जिंदगी को बाह्रा सुविधाओं की मदद से अधिक ‘इनज्वाय’ करने की आकांक्षाएं उत्पन्न हो जाती हैं। परिवार के दायरे में तो ये इतनी अधिक मात्रा में नहीं होतीं पर छात्रावास में विभिन्न आर्थिक स्थिति वाले छात्रों के साथ 24 घंटे रह कर ये आकांक्षाएं आकाश छूने लगती हैं. तब अपने परिवार, समाज एवं परिवेश के प्रति उत्पन्न होती हैं- आक्रोश, विद्रोह एवं विक्षोभ की भावनाएं। ऐसी स्थिति में छात्र के मस्तिष्क से, मन से अपने परिवार के प्रति उत्तरदायित्व की सारी भावनाएं चुक जाती है और वह परिवार की आर्थिक स्थिति का जरा भी खयाल न कर फिजूलखर्ची में जुट जाता है. सिगरेट, जुआ, शराब एवं पिक्चरों में पैसा पानी की तरह बहने लगता है घर पर अधिक रुपए भेजने के लिए पत्र एवं टेलीग्राम जाते हैं. पैसा न आने पर तरह-तरह की धमकियां दी जाती हैं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दोस्तों से कर्ज लिया जाता है, जालसाजियां की जाती हैं, ज्ञान तब होता है जब पानी सिर के ऊपर से गुजर चुका होता है, उस स्थिति में सिर्फ एक रास्ता बचा रहता है- आत्महत्या या घर से पलायन.
देशी-विदेशी शराबों के प्यालों में डूब कर, गांजे एवं अफीम की चिलमों में जन्नत की खोज कर रहे छात्रों गणनाओं के लिए प्रत्येक छात्र के पास एक यंत्र ‘स्लाइड रुल’ होता था, उस समय कैलकुलेटर की अनुमति नहीं थी.। देश के एक भावी इंजीनियर साहब ने अपने ‘पेरेंट्स’ को लिखा- “स्लाइड रुल भर गया है, खाली कराने के लिए, 200 रुपए यथाशीघ्र भेजें, पढ़ाई रुकी है” अब बेचारे अनपढ़ ‘पेरेट्स’ क्या जानें कि ‘स्लाइड रुल’ क्या बला होती है और वह भरती है व खाली होती है और इस प्रकार उन के पास 200 रुपए का मनी-आर्डर 10 दिनों के अंदर आ गया। भोले-भोले निर्दोष मां-बाप को कितनी सरलता से मूर्ख बनाया। वे रुपए कहां गए होंगे-अवश्य ही होटलों और बार में.
आज के छात्रावासों की जिंदगी के संदर्भ में तो ये बहुत छोटी-छोटी बातें हैं, लेकिन इन के साथ ही साथ जो ‘सेक्स’ से संबंधित कारवाइयां होती है, उन की वीभत्सता का कोई जवाब नही। लड़कों एवं लड़कियों - सभी का बराबर से हाथ होता है। छात्रावासों से चुपचाप खिसक कर लड़कों के साथ पिक्चर जाना, डेटिंग पर जाना आज के लिए आम बात बन चुकी है। सहेलियों से, दोस्तों से इस विषय पर बहुत रस ले कर बातचीत होती है, इन के पास अपने कारनामों के लिए बस एक तर्क रहता है, “इस उम्र में तो ‘सेक्स क्रेज’ होना प्राकृतिक क्रिया है, क्या हमारे मां-बाप ने अपनी युवावस्था में यह सब नहीं किया होगा? परिवार के साथ रहने पर तो ‘यौन भावनाएं’ कुछ कम रहती हैं, अपने परिवार को देख कर आदमी के अंदर जो सेक्स फीलिंग या यौन तृष्णा रहती भी है तो वह दब जाती है, वह अपने आप को कंट्रोल कर सकता है, पर छात्रावासों में तो व्यक्ति खुल जाता है, स्वच्छंदता का पूर्ण उपभोग करता है। फलस्वरुप उस के अंदर दिनोंदिन ‘सेक्स’ की ‘डिमांड’ बढ़ती जाती है. उस का उचित-अनुचित का ज्ञान समाप्त हो जाता है यौन तृष्णा की शांति के लिए उसे आसपास छोटे-छोटे साधन मिलते हैं और ये साधन छात्रावासों की स्वच्छंदता एवं दूसरे साथियों की कृपा से आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं. इन साधनों में अश्लील नग्न तसवीरें एवं पुस्तकें प्रमुख हैं, जिन्हें वे ‘हाट बुक्स’ या ‘पौंडी’ कहा करते हैं। यौन तृष्णा से अनुचित एवं आप्रकृतिक यौन संबंधों का भी जन्म इन्हीं छात्रावासों में होता है. एक इंजीनियरिंग कालिज में रैगिंग पीरियड के दौरान सीनियर छात्रों के द्वारा नये छात्रों के साथ अनुचित यौन संबंध बनाने की कुचेष्टा के कुछ समाचार अखबारों में छपे. प्रोफेशनल कॉलेजों के अलावे जनरल कालिजों के छात्रावास भी इन गंदी हरकतों से अछूते नहीं। यह दूसरी बात है कि कहीं ये चीजें उजागर हो जाती हैं और दूसरे स्थलों पर ढकी-मुंदी चलती रहती हैं. इन तथ्यों से वही परिचित होते हैं जो छात्रावास की जिंदगी के अधिक समीप होते है।
छात्रावासों मे सेक्स की अतृप्त क्षुधा को गंदी एवं घिनौनी गालियों के माध्यम से भी जाने अनजाने कुछ-कुछ शांत करने की चेष्टा की जाती है। यहां पर इन छात्रों के रोजमर्रा के वार्तालाप के कुछ अंशों को उद्धृत कर देने पर सारी चीजें स्वयं स्पष्ट हो जातीं, पर उन वार्त्तालापों को ज्यों का त्यों उद्धृत कर देने का साहस मुझ में नहीं, हाँ यह बताना अधिक रोचक होगा कि कभी-कभी दो आसपास स्थित छात्रावासों के मध्य गालियों का कंपीटीशन भी देखने को मिलता है। छात्रावासों की छतों पर खड़े भारत के भावी रुप के निर्माता आकाश को अपनी गंदी गालियों के नाद से गुंजा देते हैं, बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के. देखने वाले को यही शंका हो कि ये शायद पागल हो गए हैं और आकाश को गिरा देने की चेष्टा कर रहे हैं। छात्रावास के पास से लड़कियों का गुजरना तो बस कयामत ढा देता है. कई जोड़ी गिद्ध की सी भूखी आंखें और विकृत जुमले उन का पीछा करना शुरु कर देते हैं. छात्रावास के बाहर सड़कों पर पान के बीड़े चबाते हुए, सिगरेट के धुएं के छल्ले बनाते हुए एवं आसपास से गुजर रही लड़कियों पर जुमले कसते हुए इन छात्रावासी नवाबजादों को बस हमेशा यही खयाल रहता है कि वे स्मार्ट तो दीख रहे हैं.
इस प्रकार इन छात्रों की यौन वितृष्णा इन छोटे-छोटे रास्तों से बाहर निकलती है पर समय बीतने के साथ इन से भी मन भर जाता है फिर पैदा होता है ‘सेक्स फ्रस्ट्रेशन’। फलस्वरुप छात्र का मन अध्ययन एवं अपने कर्तव्यों से बिलकुल उचट जाता है, खुराफातें बढ़ जाती हैं और धीरे-धीरे दूसरे कारणों की सहायता से, असंतोषों से जन्म होता है कालिजों एवं स्कूलों में छात्र आंदोलनों का जिनमें अधिकतर प्रतिनिधित्व इन छात्रावास में रहने वाले छात्रों का होता है। इन सभी बातों से आज के छात्रावासों की जो विकृत तसवीर हमारे समक्ष आ खड़ी होती है उस में पुरानी पीढ़ी के लोग या अधिक गहराई से सोचने वाले लोग अपने को कहीं भी ‘एडजस्ट’ नहीं कर सकते। छात्रावासों मे रहने वाले छात्र इन सभी चीजों को देखने के अभ्यस्त हो चुके हैं, अतएव उन में से अधिकतर छात्रों को ये सभी चीजें बुरी नहीं लगतीं, भले ही वे इन में हिस्सा लेते हों या नहीं।
इन सब बातों से यह निष्कर्ष निकालना सर्वथा गलत होगा कि छात्रावासों में केवल इसी प्रकार की विसंगतियां, कुरीतियां एवं जीवन के साथ दुरभिसंधियां पलती है, वहां अपने कर्तव्यों के प्रति जागरुक वर्ग भी होता है जो जिंदगी का मजा अपने उत्तरदायित्व को वहन करने में एवं संकल्पों को साकार करने के लिए कर्मपथ पर चलते रहने में ही समझता है। इस बात से कोई इनकार नहीं होना चाहिए कि आजकल के छात्रावासों का वातावरण कुछ इस तरह अस्वस्थ व दूषित हो गया है कि छात्रों को अपने कर्तव्य से विमुख हो कर जीवन के क्षणिक सुखों की छात्र जीवन में ही प्राप्त करने की आकांक्षा बलवती हो उठती है और उन्हें इस कुपथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा भी वहीं बड़ी सरलता से मिल जाती हैं। एक बात स्पष्ट है कि ऐसे वातावरण में जो नागरिक तैयार होंगे, उन में ऊपर से ठाटबाट खूब दिखाई देगा पर अंदर ही अंदर व्याप्त होगा एक भीषण खोखलापन, जो समस्त राष्ट्र के जीवन को समेट लेगा।
एक उन्नत एवं सबल राष्ट्र के लिए सुलझे मस्तिष्क वाले नागरिकों का एक शिक्षित वर्ग तैयार करने के लिए इन छात्रावासों का वातावरण कुछ इस प्रकार से परिवर्तित करना पड़ेगा कि भारत के भावी नागरिक ‘सेक्स फ्रस्ट्रेशन’ ‘हालोनेस’ इत्यादि नए-नए शब्दों के कवच के अंदर छिपने के स्थान पर खुल कर बाहर आएं और अपने कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों को पहचानें। तभी शिक्षा के लिए निर्मित छात्रावासों को वास्तविक उद्देश्य प्राप्त होगा एवं राष्ट्र का लाभ होगा।
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