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भारत में तकनीकी शिक्षा गंभीर रूप से बीमार है

आज जब आइ आइ टी से निकले इंजीनियरों को लेने के लिये बडी बडी कंपनियाँ लाइन लगा कर खडी रह्ती हों, विश्व में भारतीय इंजीनियरों का डंका बज रहा हो , तब यह कहना कि अधिकांश भारतीय इंजीनियर दोयम दर्जे के ही हैं अटपटा लगेगा और ऐसी कोई भी बात पचाना मुश्किल होगा. लेकिन यह सही है कि आइ आइ टी एवं अन्य भारतीय कॉलेजों से निकले 80% इंजीनियरों में व्यावहारिक ज्ञान तो होता नहीं, उसे मेक अप करने वाली तकनीकी अभिरुचि का भी अभाव होता है. यहाँ यह प्रश्न उठता है कि ऐसी हालत में यहाँ इतने कारखाने कैसे चल रहे हैं, भारत इतनी औद्योगिक प्रगति कैसे कर रहा है.
वास्तव में इन कारखानो को चलाने में वहाँ काम कर रहे अनुभवी कुशल कामगारों का अधिक हाथ होता है, वे पीढी दर पीढी एक ही काम करते करते उस काम में दक्ष हो जाते हैं, इन्हीं में से कुछ के अन्दर जन्मजात तकनीकी अभिरूचि होती है और वे किसी भी प्रकार की तकनीकी समस्या पैदा होने पर उसका समाधान निकालकर सबको चकित कर देते हैं जबकि वहाँ उपस्थित बडे बडे इंजीनियर सिर खुजलाते रह जाते हैं. अधिकांश इंजीनियर अभिरुचि के अभाव में सिर्फ वहाँ के मैनेजर , जनरल मैनेजर और चीफ जनरल मैनेजर बन कर ही जीवन गुजार देते हैं, इसे ही अपनी उपलब्धि मान कर खुश हो जाते हैं, कभी मह्सूस ही नहीं कर पाते कि अपनी अभिरुचि के क्षेत्र में जाकर वे आकाश छू सकते थे. कितना अच्छा होता यदि इन 80% इंजीनियरों में तकनीकी रुचि होती और उन्हे व्यावहारिक ज्ञान भी होता , तब हमें अनाप – शनाप कीमत देकर बाहर से टेक्नोलॉजी का आयात नहीं करना पडता .
हम भारतीय, गणित में उस्ताद होते हैं, यही कारण है कि जैसे ही दुनिया में कंप्युटर के लिये सॉफ्टवेयर विकसित करने का काम शुरू हुआ, भारतीयों ने सभी के कान काटने शुरू कर दिये. अमेरिका की सिलिकॉन वैली पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया. आइ आइ टी से निकले स्नातक जीनिअस होने के कारण या तो आइ ए एस की प्रतियोगिताओं में सफल हो जाते हैं, या शीर्ष मैनेजमेंट कॉलेजों में प्रवेश पा जाते हैं, या फिर उन्हें सॉफ्टवेयर कंपनियाँ ले लेती हैं, भले ही वे किसी भी ब्रांच के हों . यही कारण है कि पूरी दुनिया में भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियरों का ही बोलबाला है, लेकिन कंप्युटर हार्डवेयर बनाने में हम आज भी फिसड्डी ही हैं.
मेकैनिकल, इलेक्ट्रिकल, सिविल, माइनिंग, केमिकल, मेटलर्जिकल या अन्य किसी भी ब्रांच के इजीनियर हों, सब कंप्युटर सॉफ्टवेयर इंजीनियर बन कर ही अपना नाम कमा रहे हैं. यही कारण है कि आज भी कंप्युटर के सॉफिस्टिकेटेड पुर्जे हम बाहर से ही आयात करते हैं और यहाँ सिर्फ उनकी असेंबली होती है. कारखानों में विभिन्न सामग्रियों के उत्पादन के लिये आधुनिकतम मशीने बाहर से ही आयात होती हैं, बाद में भले ही उनकी नकल करके यहाँ बना लें. ये नकल करने वाले भी ऐसे लोग होते हैं जो कभी इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं गये, लेकिन अपनी जन्मजात तकनीकी अभिरुचि के कारण ही ऐसे काम आसानी से कर लेते हैं, कल्पना कीजिए कि यदि इन्हें उचित तकनीकी शिक्षा मिली होती तो ये क्या गुल खिलाते. इन्हें किसने रोका तकनीकी शिक्षा पाने से ? बस यदि इसी प्रश्न का उत्तर पा लिया जाये तो भारत को विश्व में टेक्नोलॉजी के शीर्ष पर जाने से दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती. आइये हम कोशिश करें जानने की.
प्रवेश परीक्षाओं की दोषपूर्ण जाँच पद्धति : सबसे बडा दोष तो इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश पाने हेतु आयोजित जाँच परीक्षाओं में है, इनमें सिर्फ यही देखा जाता है कि छात्र भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र और गणित में कितने जीनियस हैं, उनके अन्दर कितनी तकनीकी अभिरुचि है, इसकी कोई जांच नहीं होती. इन्हें सुरक्षित और ग्लैमरस कैरियर की तलाश इंजीनियरिंग कॉलेजों तक पहुंचा देती है, न तो इन्हें पता होता है कि इनकी अभिरुचि किसमें है और न ये जानने की कोशिश ही करते हैं. बचपन से ही इनके माता- पिता इनके मन में भर देते हैं कि इंजीनियर बनने में ही फायदा है, बस फिर और कुछ सोचने की जरूरत ही क्या. जीनिअस होने के कारण ये जिस क्षेत्र में भी जायेंगे औसत से अच्छा ही करेंगे. यदि इनमें तकनीकी अभिरुचि की जाँच की जाये, तो अधिकांश शुरू में ही छंट जायेंगे. अफसोस तो यह है कि तथाकथित आइ आइ टी की प्रवेश परीक्षाओं में भी तकनीकी अभिरुचि की कोई जाँच नहीं की जाती. बस उपरोक्त तीन विषयों की ही परीक्षा ली जाती है, इसमें भी जीनिअस लोग ही आगे आ जाते हैं. टॉप क्लास इंजीनियर बनने के लिये इन विषयों में जीनिअस होने की जरूरत नहीं.
जिनके अन्दर तकनीकी अभिरुचि है और इन तीन विषयों में औसत से ऊपर हैं लेकिन जीनिअस नहीं हैं, वे इन प्रवेश परीक्षाओं में छँट जाते हैं . जरा गौर करें, यदि इन जीनिअस लोगोँ को उनकी रुचि के क्षेत्र में डाला जाता , तो ये अपनी प्रतिभा से पूरी दुनिया को चमत्कृत कर देते, लेकिन वे अपने लिये सुरक्षित कैरियर के चक्कर में अनेक ऐसे लोगों का चांस खराब कर देते हैं जिन्हें अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश मिल जाता तो वे भी अपनी तकनीकी प्रतिभा से पूरी दुनिया को हिला देते. इस प्रकार यह स्पष्ट हो रहा है कि दोषपूर्ण जाँच पद्धति से हमें दोहरा नुकसान होता है. ये जीनियस छात्र बिना तकनीकी अभिरुचि के कारण इंजीनियरिंग कॉलेजों में मिसफिट होते हैं, लेकिन विलक्षण प्रतिभा के कारण वहाँ भी अच्छे से पास होकर अपने कैरियर में सिर्फ अच्छे मैनेजर बन कर ही रह जाते हैं. दूसरी ओर तकनीकी अभिरुचि के बावजूद जिन्हें इन इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश नहीं मिल पाता वे भी जिन्दगी भर गलत जगहों पर भटकते रह जाते हैं. यह दोहरा नुकसान देश का ही होता है. समाज की संरचना भी दोषी है : पूरे समाज में ही यह भ्रांति है कि केवल इंजीनियरिंग और मेडिकल कैरियर ही सुरक्षित और संपन्न भविष्य देते हैं, अधिकांश अभिभावक इसी गलतफहमी में अपने बच्चों की रुचि पर ध्यान दिये बिना उन्हें सुरक्षित कैरियर की ओर ढकेल देते हैं और देश वंचित रह जाता है अनेक संभावित टैगोरों, भाभाओं, एम एफ हुसैनों, रविशंकरों आदि – आदि से. दूसरा नुकसान होता है सैकडों विश्वेशरैय्या टॉप इंजीनियर बनने की जगह क्लर्क, स्कूल टीचर, मेकैनिक, इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर, फिटर, केमिस्ट आदि के रूप में ही जिन्दगी गुजारने को मजबूर कर दिये जाते हैं, क्योंकि इंजीनियरिंग कॉलेजों की जिन सीटों पर उनका हक बनता था, उन्हें हथिया लेते हैं कुछ दिग्भ्रमित जीनिअस्. हाल के वर्षों में यह भ्रांति कुछ टूटी है, हो सकता है कि हालत में सुधार हो.
इंजीनियरिंग कॉलेजों की दोषपूर्ण पढाई : इंजीनियरिंग कॉलेजों में शुरू से ही पढाई का गलत तरीका अपनाया गया, आज जो शिक्षक हैं वे भी इसी पद्धति की देन हैं, उनसे सुधार की उम्मीद करना बेकार है. ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग पढाने वाला शिक्षक अपनी स्कूटर या कार में आई साधारण खराबी को ठीक नहीं कर सकता, एयरकंडीशनिंग पढाने वाला शिक्षक अपना फ्रिज ठीक नहीं कर सकता, इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग पढाने वाला शिक्षक अपने घर की वायरिंग नहीं कर सकता, इन शिक्षकों से पढने वाले छात्रों का व्यावहारिक ज्ञान कितना होगा इसे बताने की जरूरत नहीं. इन कॉलेजों में हर ब्रांच के लिये लैब एवं वर्कशॉप ढेरों होती हैं, उनमें इंसट्रक्टर होते हैं, सिलेबस के अनुसार व्यावहारिक ज्ञान के लिये इनमें काम करना भी हर छात्र के लिये जरूरी होता है, व्यावहारिक ज्ञान की परीक्षा भी होती है, छात्रों को अच्छे अंक भी मिल जाते हैं, लेकिन व्यावहारिक ज्ञान ? इसके बारे में कुछ न कहना ही ठीक होगा.
लैब में कुछ रटे रटाये प्रैक्टिकल करा दिये, मौखिक परीक्षा में कुछ स्टैंडर्ड प्रश्न पूछ कर अच्छे अंक दे दिये, काम हो गया. लडके वर्कशॉप में गये , कुछ काम करने की कोशिश भी की, ठीक से हुआ नहीं, धैर्य खो दिया, कुछ पैसे देकर इंसट्रक्टर को पटा लिया, काम हो गया, नंबर भी अच्छे मिल गये. लेकिन व्यावहारिक ज्ञान शून्य ही रह गया. रुचि थी नहीं, मन कैसे लगता, बस जान छुडा ली. शिक्षकों ने भी टाल दिया, उन्हें खुद भी न तो आता है , न रुचि ही है. बस पुराने जमाने से ऐसे ही चलता आ रहा है. ये शिक्षक किताबें पढकर आ जाते हैं, लेक्चर में सब उगल देते हैं, टेक्नोलॉजी सिर्फ साइंस बनकर रह जाती है. व्यावहारिक ज्ञान के लिये छात्रों को दो तीन बार 30-40 दिनों की प्रैक्टिकल ट्रेनिंग के लिये कारखानों में भी रहने का प्रावधान है, वे जाते हैं, वापस लौटकर मोटी- मोटी रिपोर्ट भी जमा करते हैं, अच्छे नंबर भी मिल जाते हैं, लेकिन यहां भी वही डंडी मारने वाला काम हो जाता है.
जिन कारखानों में इनकी ट्रेनिंग निश्चित की जाती है वहाँ के अफसरों को इन्हें ट्रेनिंग देने की कोई जिम्मेदारी और रुचि नहीं होती. दिन रात अधिक काम का रोना रोने वाले ये अफसर इन्हें अपने लिये बवाल ही मानते हैं. इन प्रशिक्षणार्थियों के नाम लिख लिये जाते हैं, उन्हें अलग अलग प्लांटों में कितने कितने दिन बिताने हैं उसकी सूची थमा दी जाती है, बस उसके बाद उनकी खोज खबर लेनेवाला कोई नहीं होता. न तो इन प्रशिक्षणार्थियों को कोई काम दिया जाता है और न ही इन्हें कोई कुछ सिखाता और दिखाता ही है, ये अपने आप जो कुछ सीखें- देखें. जब ये कामगारों से बातें करते हैं तो वे सिर्फ अपने अफसरों की नाकाबिलियत की ही चर्चा करने में रस लेंगे, या फिर अपने कम वेतन एवं सुविधाओं का ही रोना रोते रहेंगे. अफसरों के पास तो वैसे भी वक्त नहीं होता, सुबह मीटिंग , दोपहर मीटिंग, शाम में मीटिंग. ट्रेनिंग की अवधि समाप्त होते ही ये प्रशिक्षणार्थी सर्टिफिकेट लेकर अपनी राह लेते हैं. कॉलेज में ट्रेनिंग की मोटी रिपोर्ट जमा करके ही खुश हो जाते हैं. सिर्फ इक्के दुक्के कारखानों में ही उचित प्रशिक्षण दिया जाता है. इस प्रकार अच्छे इंजीनियर बनाने का एक अच्छा अवसर हम खो देते हैं. इन कारखानों से वे काम न करके मौज करने का संदेश ले कर वापस जाते हैं.

तीन स्तरों पर दी जा रही है तकनीकी शिक्षा :
हमारे देश में तकनीकी शिक्षा आइ टी आइ , पोलीटेक्निक और इंजीनियरिंग कॉलेजों के तीन स्तरों पर दी जाती है, दसवीं के बाद आइ टी आइ में प्रवेश मिलता है जहाँ मेकैनिक, इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर , फिटर, मशीन ऑपरेटर, वेल्डर , कारपेंटरी, ब्लैकस्मिथी, फोर्जिंग, फाउन्डरी, इलेक्ट्रोप्लेटिंग आदि विभिन्न ट्रेडों में से एक की जानकारी दी जाती है. लेकिन इन संस्थानों का बुरा हाल है, राज्य सरकारों पर निर्भर होने के कारण फंड के अभाव में, नाकाबिल प्रबन्धन के कारण एवं भ्रष्टाचार की वजह से इनमें से अधिकांश संस्थानों से निकले व्यक्तियों को उचित प्रशिक्षण नहीं मिल पाता और उन्हें नौकरी के लिये बहुत कम कारखानों से ही ऑफर मिलता है.
दूसरे स्तर पर पोलीटेक्निक हैं जिनका उद्देश्य है सुपरवाइजर, ओवरसियर, या फोरमैन स्तर का तकनीकी ज्ञान कराना, सामान्य तौर पर औसत छात्र जिन्हें इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश नहीं मिल पाता,आर्थिक रूप से कुछ कमजोर होते हैं वे यहाँ प्रवेश लेते हैं. आइ . टी. आइ की तरह इनका भी बुरा हाल है, यहाँ से प्रशिक्षित होकर निकले छात्रों की भी नौकरी के बाजार में बहुत कम प्रतिष्ठा होती है. बस उनके हाथों में इंजीनियरिंग डिप्लोमा होता है और अधिकांश बेरोजगार ही रह जाते हैं. सबसे ऊपर तीसरे स्तर पर इंजीनियरिंग कॉलेज हैं जिनकी दोषपूर्ण प्रवेश पद्धति , त्रुटिपूर्ण पाठ्यक्रम एवं कामचलाऊ स्तर के शिक्षकों की चर्चा पहले ही की जा चुकी है. इंजीनियरिंग कॉलेज भी कई स्तरों के हैं, प्रतिष्ठा के अनुसार सबसे ऊपर छह आइ. आइ. टी, तब पिलानी, उसके बाद कुछ रीजियनल इंजीनियरिंग कॉलेज , बी.आइ.टी आदि और फिर बाकी सब. इधर हाल के वर्षों में तो सैकडों की तादाद में कुकुरमुत्तों की तरह प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज उग आये, जिन्होंने भ्रमित अभिभावकों और छात्रों का कसकर दोहन किया. जिन्हें उपरोक्त कॉलेजों में प्रवेश नहीं मिल पाता, वे यहां प्रवेश ले लेते हैं, शायद 10% कॉलेज ही मान्य स्तर तक पहुँचेंगे, बाकी में न तो स्तरीय फैकलटी है और न वर्कशॉप और लैब ही ठीक हैं. यहाँ से निकले छात्र सिर्फ अपनी इंजीनियरिंग डिग्री के बल पर अच्छी तनख्वाह और प्रतिष्ठा पाना चाहते हैं और उनमें से अधिकांश विफल होकर निराश हो जाते हैं. यदि हमें टेक्नोलॉजी में वास्तविक तरक्की करनी है , तो तीनो स्तरों पर सुधार की तत्काल आवश्यकता है.
नकलची इंजीनियरों की भरमार और काम सिर्फ हस्ताक्षर करना : आज़ हमारे यहाँ सरकारी संस्थानों में इंजीनियरों का काम रह गया है सिर्फ आकलन तैयार करना, खूब कमीशन लेकर काम ठेकेदारों को देना, फिर और अधिक कमीशन लेकर बिल पास करना. हर स्तर पर सिर्फ हस्ताक्षर करना और कमीशन बटोरना. साइट पर आये , तो सिर्फ अपना सतही तकनीकी ज्ञान बघार दिया, घेर कर खडे जूनियर इंजीनियरों ने चमचेबाजी में वाह-वाह कर दी, बडे साहब की बल्ले-बल्ले हो गयी.
अब तो एल एंड टी जैसी बडी-बडी कंपनियाँ सडकों और गगनचुम्बी इमारतों के निर्माण का काम ले रही हैं, उनके पास अच्छे इंजीनियरों का प्रतिशत अधिक है, जो कमी होती है उसे विदेशी कंपनियों से तकनीकी साझेदारी करके पूरी कर लेते हैं. ऐसी स्थिति में उपरोक्त सरकारी इंजीनियरों का तकनीकी दायित्व और भी कम हो जाता है, रोब जरूर बढ जाता है. बन जाते हैं चीफ इंजीनियर, बातें बडी- बडी करेंगे, लेकिन वास्तविक तकनीकी ज्ञान करीब करीब शून्य. तकनीकी ज्ञान के अभाव में इनके अन्दर आत्मविश्वास की कमी होती है, उन्नत तकनीकी का ज्ञान तो शून्य ही होता है, ऐसी हालत में ये प्रगतिशील और उपयोगी सुझावों को समझ नहीं पाते और अति आवश्यक निर्णयों को भी टालते रहते हैं. नुकसान देश का होता है. प्राइवेट कारखानों में भी यही रोग गहराई तक है, मालिक तकनीकी निर्णयों के लिये अपने इंजीनियरों पर निर्भर करते हैं और वे टालते रहते हैं या फिर किसी भी परिवर्तन से इंकार कर देते हैं, भले ही उस परिवर्तन से अधिक लाभ की संभावना हो. सरकारी विभाग हों या कारखाने, या बडे-बडे प्रतिष्ठान , हर जगह पर जूनियर इंजीनियर से लेकर चीफ इंजीनियर तक हर कोई निर्णय का दायित्व लेने से घबराता रहता है, टालता रहता है, ऐसे 80% लोगों के बीच काम करते हुए 20% काबिल इंजीनियरों की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है. सारा काम ये करते हैं, साहसिक निर्णय ये लेते हैं, मेहनत करके उसे सफल ये बनाते हैं , लेकिन सारा लाभ और प्रशंसा चमचेबाज ले उडते हैं. धीरे धीरे इनका भी जोश ठंढा हो जाता है. नुकसान फिर देश का ही होता है.
पहला वर्ष सिर्फ सभी तरह की प्रैक्टिकल ट्रेनिंग का हो: हमारे देश में प्रतिभाओं का अथाह भंडार है, और उसके बल पर हम पूरी दुनिया में शीर्ष पर पहुँच सकते हैं, बस जरूरत है इस दोषपूर्ण व्यवस्था में तत्काल सुधार की. हमें पहला कदम उठाना चाहिये इंजीनियरिंग शिक्षा को हर स्तर पर सुधारने और कारगर बनाने की. आज जब देश का राष्ट्रपति एक वैज्ञानिक है तो पहला काम होना चाहिये अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिकों के जीवन को अधिक सुविधापूर्ण एवं प्रतिष्ठित बनाने की, उन्हें लोकप्रिय बनाने की, ताकि जो छात्र विज्ञान में जीनिअस हैं ,लेकिन जिन्हें तकनीकी अभिरुचि नहीं, वे इंजीनियरिंग कॉलेजों में आकर्षित होकर वहां प्रवेश की कोशिश न करें और विज्ञान को ही अपना कैरियर बनायें, उनके लिये अच्छे वेतनमान की प्रतिष्ठित नौकरी सुरक्षित हो.
इंजीनियरिंग कॉलेजों की प्रवेश परीक्षाओं में तकनीकी अभिरुचि जांचने को प्राथमिकता दी जाये, तरीका निकालना आसान नहीं होगा, लेकिन कोशिश शुरू होनी चाहिए. इंजीनियरिंग कॉलेजों के सिलेबस में तुरंत बदलाव लाकर प्रैक्टिकल इंजीनियर बनाने पर जोर होना चाहिए. इंजीनियरिंग कोर्स पाँच सालों का कर दिया जाये, पहले वर्ष की पढाई में सिर्फ् हाथ से किए जाने वाले तकनीकी काम सिखाने पर जोर दिया जाये – जैसे मेकैनिक, इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर , फिटर, मशीन ऑपरेटर, वेल्डर , कारपेंटरी, ब्लैकस्मिथी, फोर्जिंग, फाउन्डरी, इलेक्ट्रोप्लेटिंग आदि विभिन्न ट्रेडों में उन्हें पारंगत किया जाये. रोजमर्रे में इस्तेमाल किये जाने वाले यंत्रों में सुधार सोचने के लिये प्रेरित किया जाये, जिनके अन्दर अभिरुचि नहीं होगी, वे भाग खडे होंगे, इंजीनियरिंग क्षेत्र को उनकी जरूरत भी नहीं, सिर्फ बोझ बढाने से क्या फायदा ? कारखानों में महीने दो महीने की प्रैक्टिकल ट्रेनिंग के दौरान इन्हें वास्तविक ट्रेनिंग दी जाये, सिर्फ खानापूरी न की जाये, इनसे काम लिया जाये. इन्हें कारखानों में आने वाली तकनीकी समस्याओं से परिचित कराया जाये और कैसे समाधान निकाला जाता है, उस प्रक्रिया में इन्हें भी शामिल किया जाये.
पहले इन छात्रों को इंडट्रियल टूर पर ले जाकर इन्हें संबन्धित कारखाने दिखाये जाते थे , इसे भी ठीक तरीके से करने की जरूरत है. सुधार के ढेरों उपाय निकल सकते हैं, बशर्ते कि सुधार की जरूरत महसूस की जाये. अभी तो हमें गलत्फहमी है कि हमारे इंजीनियर टॉप क्लास हैं, पहली जरूरत है इस गलतफहमी को दूर करने की, उसके बाद सुधारों के लिये विचारमंथन की. पूरी प्रक्रिया में वर्तमान इंजीनियरिंग शिक्षक हर जगह अडंगे लगायेंगे क्योंकि नयी व्यवस्था में उन्हें पूरी परेशानी होगी, हो सकता है कि वे मिसफिट होकर बाहर ही हो जायें. नवनिर्माण के लिये कुछ तो खोना ही पडता है.
मैंने जो कुछ भी लिखा है, अपने 30 वर्षों के अनुभव के आधार पर लिखा है. मैं भी एक अच्छे कॉलेज से इंजीनियरिंग स्नातक हूं, ऑनर्स के साथ मेरिट लिस्ट में था, मैं स्वीकार करता हूं कि मेरे अन्दर तकनीकी अभिरुचि कभी नहीं रही, पिछले 32 वर्षों से अपना व्यापार कर रहा हूं, इंजीनियरिंग कॉलेजों को काफी नजदीक से देखा है, व्यापार के सिलसिले में सरकारी एवं प्रायवेट प्रतिष्ठानों में कार्यरत इंजीनियरों को भी देख रहा हूं, अपने इंजीनियर दोस्तों को भी देख रहा हूं, पूरे अनुभव का बेबाक निचोड है यह आलेख. यदि मेरे जैसे लोग इंजीनियरिंग डिग्री मेरिट लिस्ट में रहकर प्राप्त कर सकते हैं, तो यह सिस्टम का ही दोष है और उपरोक्त सारी बातें ठीक हैं.आइये लोगों को गलतफहमी से बाहर निकालकर व्यवस्था को ठीक किया जाये और भारत को टेक्नोलॉजी के शीर्ष पर पहुँचाने का रास्ता प्रशस्त किया जाये.

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