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क्या इस वर्ष भी होगी मार्च-लूट ?

हर वर्ष मार्च के महीने में सरकारी हाकिम और उनके कर्मचारी देर रात तक अपने दफ्तरों में काम करते नजर आयेंगे, बिजली चली गयी, कोई बात नहीं , मोमबत्ती और लालटेन की रोशनी से ही काम चल जायेगा. ठेकेदारों और आपूर्तिकर्ताओं की फौज बाहर से लेकर अन्दर, हर कमरे तक मुश्तैद नजर आती है. समोसे कचौड़ियाँ और मिठाइयों के अलावे चाय की चुस्कियों, पान की गिल्लौरियों और खैनी की फटकियों के बीच साहब बहादुर एक के बाद एक कागज और बिल पर हस्ताक्षर करते जाते हैं. किसी भी विभाग का सबडिवीजन दफ्तर हो या सेक्रेटैरियेट का सर्वोच्च चैंबर – हर जगह कुछ ऐसा ही समाँ देखकर यही सवाल उठने लगता है कि इतनी चुस्ती फुर्ती इन हाकिमों में इसी महीने में क्यों आ जाती है, सारा विकास कार्य इसी महीने में क्यों होता है. एक- एक टेबुल पर महीनों धूल फाँकने को अभिशप्त फाइलों को भी मानो पंख लग जाते हैं, महीनों में तय होनेवाला सफर मिनटों में पूरा होने लगता है. इन अफसरों और कर्मचारियों को जेट स्पीड से काम करते देख लालफीताशाही की बातें झूठी लगने लगती हैं. चपरासी से लेकर बड़े हाकिम तक, हर एक को दम मारने की फुर्सत नहीं होती. रात को ग्यारह - बारह दफ्तर में ही बज जाते हैं, दिन का समय ट्रेजरी में बीतता है. नंबरी नोटों की गड्डियों की कलाबाजी टेबुल के ऊपर और टेबुल के नीचे बदस्तूर जारी रहती है.
जैसे-जैसे 31 मार्च का दिन नजदीक आने लगता है, काम की स्पीड बढ़ जाती, मस्टर रोल के पन्नों पर एक ही व्यक्ति कई कई जगहों पर अपने ठेपे लगाता है और गालियाँ भी देता जाता है. पुराने बिल, नये बिल, भविष्य के बिल –सभी के भाग्य खुल जाते हैं. लाल- नीली- काली स्याहियों से लिखे अनेक रिमार्क और हस्ताक्षर से उनकी खूबसूरती बढ़ जाती है, त्रुटियों के बदसूरत निशान इस खूबसूरती में छिप जाते हैं,जो जिद्दी निशान इसके बाद भी नंगई पर उतारू हो जाते हैं उन्हें नंबरियों की गाँधी लंगोटी पहनाकर ट्रेजरी में पास करा लिया जाता है ताकि वे सरकारी खजाने को खाली कर ठेकेदारों , अफसरों और कर्मचारियों के घर की शोभा बढ़ा सकें.
यह वर्ष भी अपवाद नहीं, उपरोक्त सारे लोग व्यस्त हैं. डिपार्टमेंट से सेक्रेटरिएट तक और वहाँ से ए.जी ऑफिस तक या फिर वापस ट्रेजरी तक गाडियाँ दौड़ रही हैं, मोटी पतली फाइलें कूद–फाँद कर रही हैं. सवाल उठता है इतनी तत्परता साल के अन्य ग्यारह महीनों में कहाँ गायब रहती है.सरकारी नियम इतने उलझे हैं कि काम करने की इच्छा रखनेवाले अफसरों के भी हाथ बाँध कर रख देते हैं. यदि सारे नियमों का कडाई से पालन किया जाये, तो भ्रष्टाचार तो रुक जाएगा, लेकिन काम भी न हो पाएगा. इन्हीं उलझे नियमों के कारण लालफीताशाही बढ़ती है, काम करने की इच्छावाले अफसर पीछे हट जाते हैं. कमीशनखोर अफसर जमकर कमीशन लेते हैं और ऊपर तक खिलाने के कारण निडर और निरंकुश भी होते हैं और ऐसे अफसर मार्च महीने को अपने लिये सर्वाधिक अनुकूल और लाभप्रद मानते हैं. आवंटन पदाधिकारी को जमकर खिलाया और आवंटन ले उड़े, डरपोक अफसरों के विभागों के हिस्से का आवंटन भी जुगाड़ भिड़ाकर कमीशन के रूप मे पूँजी निवेश कर अपने नाम करा करा लिया.तीन कोटेशन के सहारे कार्यादेश दिया, बिना सप्लाई या काम के बिल ले लिये, ट्रेजरी से भी मार्च की भीड़ में अधिक कमीशन देकर पास करा लिये, बैंक से ड्राफ्ट बनाकर अपने पास रख लिया.सप्लाई बाद में आयी,चालान-बिल पिछली तारीख 31 मार्च के बना लिये.
यदि सरकार अप्रैल महीने से ही सख्ती करे, हर विभाग में आवंटन शुरू में ही आ जाए, हर तीन महीनों में कार्यों की समीक्षा हो, काम न करनेवालों पर कार्यवाही की जाए, सरकारी नियमों की जटिलता को कमकर लालफीताशाही को कम किया जाए, तो मार्च लूट स्वयं कम हो सकती है. इस साल तो झारखंड सरकार ने पहले से कोई कदम नहीं उठाए, हजार करोड से अधिक की धनराशि लैप्स होने की कगार पर है, केन्द्र सरकार से वैसे ही समुचित फंड नहीं मिलता, अफसरों के निकम्मेपन और आपसी खींचतान के चलते जब विकास के लिए प्राप्त यह अल्प धनराशि भी लैप्स हो जाती है, तो ऐसे अफसरों पर दंडात्मक कार्यवाही करनी ही चाहिये. अधिक कडाई यदि इस वर्ष की गयी तो और भी अधिक राशि लौट जाएगी, सो मार्च लूट की छूट आलाकमान ने दे ही दी है, ट्रेजरी से निकासी बंद करने के एक दो आदेश दिखावे के तौर पर भले ही आ जाएं कोई ठोस कदम तो उठने से रहा. मार्च लूट चलती रही है, चलती रहेगी.

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