इस बात से शायद ही किसी को इंकार हो कि कुछ भी खरीदते समय तीन बातों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये – माल की कम से कम कीमत हो, उचित अच्छी क्वालिटी मिले और समय पर डिलीवरी हो. सरकारी खरीद में भी यही तीन बातें लागू होती हैं. इसके लिये खरीददार विभाग के द्वारा आपूर्तिकर्ताओं के कोटेशन आमंत्रित किये जाते हैं और प्राप्त निविदाओं में दी गयी दरों और स्पेसिफिकेशन की तुलना की जाती है, कभी माल के सैंपुल भी मंगा लिये जाते हैं. नियमानुसार विभागाध्यक्ष को अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए उपरोक्त तीनों प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए सही आपूर्तिकर्ता को माल आपूर्ति करने का आदेश जारी करना चाहिये. जरूरी नहीं कि वह सबसे कम दर देनेवाले सप्लायर को ही आपूर्ति आदेश दे, लेकिन अधिकांश पदाधिकारी बाद में उठने वाले घोटाले संबंधी शोरगुल और अपने ऊपर लगनेवाले आरोपों से बचने के लिये सबसे कम दर वालों को ही आपूर्ति आदेश दे देते हैं. वे सोचते हैं कि ऐसा करके वे बहुत साफ सुथरी प्रक्रिया अपना रहे हैं, लेकिन होता उलटा है. जाने-अनजाने इसी प्रक्रिया में स्वतः कई घपले हो जाते हैं और उनके विभाग को भयंकर नुकसान पहुंचता है.
आइये एक उदाहरण लें. एक विभाग को दरियां चाहिये थीं, 15 फुट लंबी और 12 फीट चौड़ी दरियों के लिये कोटेशन मांगे गये, दरी की मोटाई, वजन और धागों का कोई जिक्र नहीं किया गया, या तो अज्ञानतावश या फिर जानबूझकर. आपूर्तिकर्ताओं ने अपनी - अपनी दरें दीं, उन्होंने भी दरी के वजन का जिक्र नहीं किया. नियमानुसार सबसे कम दरवाले को आपूर्तिआदेश दे दिया गया. उसकी हरएक दरी का वजन था 8 किलो और दर थी 900 रुपये. एक और आपूर्तिकर्ता ने उल्लेख भी किया था कि वह 12 किलो की दरी 1100 रुपए में देगा, लेकिन उसका कोटेशन दरकिनार हो गया. अब यहां पहला सवाल उठता है कि विभाग के लिये 8 किलो की दरी लेना ठीक होता या 12 किलो की, इसका निर्णय करने के लिये तीन बातों में तालमेल बिठाना होगा- दरियां किन लोगों के द्वारा कहां पर इस्तेमाल होंगी, कितनी लाइफ चाहिये और उसके लिये उपलब्ध धनराशि कितनी है. हो सकता है कि रोज इस्तेमाल करने पर हलकी दरी एक साल चले और भारी 5 साल. हो सकता है कि दरी का इस्तेमाल पूरे साल में दो-चार बार ही होना हो. दूसरा सवाल उठता है कि जब विभाग ने कोटेशन मांगते समय दरी के वजन का उल्लेख नहीं किया तो 12 किलो की जगह 8 किलो की दरी लेने के पीछे क्या तर्क? तीसरा अधिक महत्वपूर्ण सवाल है कि विभिन्न आपूर्तिकर्ताओं से कोटेशन इसीलिये मांगे जाते हैं कि माल की विभिन्न दरों में तुलना करके सही माल न्यूनतम दर पर प्राप्त किया जा सके.
उपरोक्त केस में तो तुलना हो ही नहीं पायी. आपने उल्लेख नहीं किया कि कितनी मोटी दरी चाहिये, एक ने 8 किलो की दरी का रेट दिया, दूसरे ने 12 किलो की दरी का, तीसरे ने 10 किलो की दरी का, अन्य ने अन्य वजन की दरियों का.अलग अलग वजन , अलग अलग रेट, लेकिन आपने सभी के सिर्फ रेट की तुलना करके 8 किलो वाले से दरी ले ली. चलिये मान लिया कि विभाग का काम हलकी दरी से ही चल जायेगा और टेंडर में दरी के वजन का उल्लेख न करने की भूल हो गयी. लेकिन उसे ऑर्डर देने से पहले तो सुधारा जा सकता है. टेंडर खुलने के बाद भी कोटेशन देनेवाली सभी पार्टियों को बन्द लिफाफे में 8 किलो की दरी का रेट देने के लिये कहा जा सकता है. हो सकता कि ऐसी स्थिति में दूसरी कई पार्टियां 8 किलो की दरी पहलेवाले न्यूनतम दर से भी काफी कम पर दे दें.
कोटेशन मंगाने के पहले थोड़ा सा होमवर्क करके इस प्रकार की अनेक परेशानियों से बचा जा सकता है. माल की रेट मांगने के पहले यथासंभव उनके अधिकांश महत्वपूर्ण स्पेसिफिकेशन का उल्लेख करना अनिवार्य होना चाहिये, यदि कोई गलती हो गयी हो टेंडर देनेवाले सभी आपूर्तिकर्ताओं से पुनः उनके रेट लेकर उसे अवश्य सुधार लेना चाहिये.
सरकारी खरीद को बाबुओं के रहमोकरम पर न छोड़ें
मॉडर्न मैनेजमेंट के इस युग में शायद ही विश्व की किसी बड़ी कंपनी में परचेज डिपार्टमेंट हो. हर जगह नया नाम ‘सामग्री प्रबंधन विभाग’ या ‘मैटेरियल मैनेजमेंट डिपार्टमेंट’ दे दिया गया है. मकसद सिर्फ यह समझाना है कि सामग्रियों की खरीद अब मामूली काम नहीं, इसके लिये सामग्री प्रबंधन के विशेषज्ञों को जिम्मेदारी दी जानी चाहिये जो वैज्ञानिक तरीकों से पर्चेज और स्टोर्स का सारा काम करेंगे. जापान की कंपनियों ने सत्तर के दशक में ‘जीरो इंवेंटरी ’ के सिद्धांत पर काम शुरू कर अपने उत्पादों की लागत में इतनी कटौती कर दी कि पूरे विश्व के बाजारों में उनकी तूती बोलने लगी, सामग्री प्रबंधन के नये नये तरीके ईजाद कर उन्होंने जापान को नंबर एक बना दिया. लेकिन हमारे सरकारी विभागों में सामग्री प्रबंधन की नवीनतम तकनीकों की चर्चा भी आकाशकुसुम तोड़ने के बराबर है, वहां तो बाबुओं की हिटलरशाही चलती है. कोटेशन मंगाने से शुरूकर, सैंपुल देखने, दरों की तुलना करने, आपूर्ति आदेश देने, माल का इंसपेक्शन कर स्वीकार करने और भुगतान करने तक – फाइलों में ही हर कदम पर हजारों गलतियां कभी भी नजर आ जायेंगी, लेकिन बिना किसी सुधार के बाबुओं और पदाधिकारियों की अंधेरगर्दी चलती जा रही है और चलती रहेगी. गलतियों की ओर इशारा करनेवाले आपूर्तिकर्ताओं को उपेक्षित और अपमानित किया जाता रहेगा. सूचनाप्राप्ति के अधिकार के इस युग में भी खरीदने की प्रक्रिया में इतनी लुका छिपी चल रही है, लोग तो चुप हैं, व्यवसाइयों के संगठन भी चुप हैं.
आइये एक छोटा सा उदाहरण लें. कई बार देखा गया है कि स्टील ऑफिस टेबुल की दर मांगी गयी और उसकी नापजोख नहीं दी गयी, धांधली का रास्ता यहीं पर बना दिया गया. टेबुल की लंबाई 4 फुट से लेकर 6 फुट और अधिक तक हो सकती है, चौड़ाई 2 फुट से लेकर 4 फुट तक हो सकती है. टेबुल की एक तरफ एक दराज से लेकर चार दराज तक हो सकते हैं, ये दराज एक तरफ या दोनों तरफ हो सकते हैं, हर आपूर्तिकर्ता अपनी समझ से अलग अलग साइज और डिजाइन की रेट देगा, आप सबकी दरों की तुलना किस प्रकार कर पाएंगे. कोटेशन मंगाने से पहले विभाग के पदाधिकारी और बाबू लोग यदि थोड़ी सी मेहनत कर लें तो इस प्रकार की स्थिति ही पैदा न हो. सवाल उठता है कि ये लोग ऐसी बचकानी गलतियां करते ही क्यों हैं? टेंडर देने के पहले यदि किसी आपूर्तिकर्ता ने विभाग में जाकर स्पेसिफिकेशन पूछने की कोशिश कर ली तो उसे टरकाते हुए कहा जायेगा कि जितनी भी डिजाइन संभव है, सभी के रेट दे दें. कितना हास्यास्पद होगा हर माल के लिये दस या अधिक विकल्पों के रेट देना. यदि लग रहा हो कि यह उदाहरण निरी कपोल कल्पना है तो अगले एक महीने में अखबारों में विभिन्न विभागों द्वारा कोटेशन मांगने के विज्ञापनों पर गौर फरमाएं ,आपको ढेरों उदाहरण मिल जायेंगे.
यदि सरकारी खरीद में धांधली कम करनी है तो पदाधिकारियों को समझाना होगा कि सरकारी खरीद की प्रक्रिया को वे अपनी नासमझी या निरंकुशता से हास्यास्पद न बनाएं, कोटेशन मंगाने के पहले विशेषज्ञों, अनुभवी आपूर्तिकर्ताओं और संबंधित व्यक्तियों से माल के स्पेसिफिकेशन पर विचार विमर्श कर लें, बाजार में उपलब्ध अलग अलग क्वालिटी का निरीक्षण भी कर लें, उसके बाद हर स्तर पर पारदर्शिता रखते हुए कोटेशन आमंत्रित करें. अधिक काम के लोड से त्रस्त एवं समयाभाव का रोना रोते इन अधिकारियों को समझना ही होगा कि सारे भ्रष्टाचार सरकारी खरीद की ढीली और अतार्किक प्रक्रियाओं से ही शुरू होते हैं, सारी प्रक्रिया को बाबुओं के रहमोकरम पर न छोड़कर उसमें संभावित छिद्रों को बन्द करने की कोशिश करनी होगी. अभी भी अनेक पदाधिकारी ईमानदार हैं, वे थोड़ा सा समय दें और अतिरिक्त प्रयास कर लें तो अपने विभागों में खरीद की फूलप्रूफ प्रक्रिया विकसित कर सकते हैं.उनसे प्रेरणा लेकर और उनका अनुकरण कर दूसरे विभाग भी सुधर जाएंगे.
सरकारी खरीद के लिये राज्यस्तरीय एक कॉमन एजेंसी हो
हर साल विभिन्न सरकारी विभागों के द्वारा अरबों रुपयों की खरीददारी की जाती है, राज्य स्तर पर कोई स्पष्ट परचेज पॉलिसी न होने के कारण विभिन्न विभागों के द्वारा खरीदी गयी सामग्रियों की दरों और क्वालिटी में समरूपता की जगह जमीन - आसमान का अंतर पाया जाता है. एक जगह पर रजिस्टर 15 रुपयों में खरीदा गया तो दूसरी जगह 50 रुपयों में. सरकारी खरीद की ढीली ढाली प्रक्रिया ही पदाधिकारियों, बाबुओं और सप्लायरों को भ्रष्ट बनाती है.
मूलतः न तो व्यापारी भ्रष्ट होते हैं, न कर्मचारी और पदाधिकारी ही, सिस्टम उन्हें भ्रष्ट बनाता है. मौका मिलने पर अच्छे खासे ईमानदार लोग भी बेईमान हो जायेंगे. सरकारी खरीद हो या ट्रांसफर पोस्टिंग का मामला या फिर सरकारी सेवाएं और सुविधाएं उपलब्ध करानेवाले विभाग - हर जगह पर यही बात लागू होती है. कंप्यूटराइजेसन करके सिर्फ सिस्टम ठीक कर देने से ही रेलवे रिजर्वेशन और एस टी डी कॉल्स में होनेवाली धाँधलियों में कितनी कमी आ गयी, बैंकों की कार्यप्रणाली कितनी सुधर गयी!
आज जरूरत है झारखंड में राज्य स्तर पर एक केन्द्रीयकृत डिपार्टमेंट की जो सरकारी खरीद की नीतियां तय करे, विभागों को इन नीतियों के क्रियान्वयन के लिये दिशानिर्देश दे, कर्मचारियों एवं पदाधिकारियों को क्रय प्रक्रियाओं के लिये प्रशिक्षित करे और सभी पर नजर रखते हुए सुनिश्चित करे कि इन नीतियों का उल्लंघन कहीं नहीं हो. इस सामग्री क्रय एजेंसी में ऐसे अनुभवी लोग हों जिन्हें सामग्री प्रबंधन का प्रशिक्षण प्राप्त हो.यदि प्रशिक्षण में कमी हो तो उन्हें विशेष प्रशिक्षण देने का प्रबंध किया जाये.
यह एजेंसी सर्वप्रथम ऐसे सामानों की सूची तैयार करेगी जिनका क्रय नियमित रूप से हर साल हर विभाग के द्वारा किया जाता है, उसके बाद ऐसी सामग्रियों की सूची बनेगी जो कभी कभी खरीदी जाती हैं. फिर यह एजेंसी व्यवसाइयों और विशेषज्ञों की सलाह लेकर लोकल जरूरतों एवं उपलब्धता के अनुसार सभी सूचीबद्ध सामग्रियों के स्पष्ट एवं विस्तृत स्पेसिफिकेशन तय करेगी. तत्पश्चात पूरे राज्य के उद्दमियों और व्यवसायियों से इन सामग्रियों की आपूर्ति के लिये कोटेशन आमंत्रित करेगी. केन्द्र सरकार के डी. जी. एस. एंड डी. की तर्ज पर इस राज्य स्तरीय क्रय एजेंसी की कार्यप्रणाली निश्चित की जा सकती है. सालभर में एक बार लिये गये इन कोटेशनों के आधार पर सामग्रियों की दरें सालभर के लिये निर्धारित हो जायेंगी. सभी सरकारी विभाग पूरे साल कभी भी ये सामग्रियां उस एजेंसी के यहां निबंधित आपूर्तिकर्ताओं में से किसी से भी खरीद सकेंगे.
उद्योग विभाग में एक क्वालिटी मार्किंग डिपार्टमेंट है जो एकदम निष्क्रिय है. इसे अधिक सुदृढ एवं कुशल बनाकर हर सरकारी खरीद में सामग्रियों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी दी जा सकती है.
सरकारी खरीद में राज्य में स्थित लघु उद्योगों, सहकारी समितियों, सरकारी उपक्रमों एवं खादी ग्रामोद्योगों आदि को विशेष छूट के आधार पर प्राथमिकता दी जानी चाहिये, हां यह अवश्य सुनिश्चित करना होगा कि वे स्वयं सामग्री का उत्पादन कर रहे हैं, कहीं से खरीदकर दलाली नहीं खा रहे.
अब वक्त आ गया कि झारखंड सरकार सरकारी खरीद की वर्तमान प्रक्रिया को व्यापक भ्रष्टाचार का स्रोत मानते हुए उसे सुधारने के गंभीर प्रयास करे. इस हेतु एकमात्र ठोस कदम होगा एक राज्यस्तरीय सामग्री प्रबंधन एजेंसी के गठन का, उसे व्यापक अधिकार देने का और उसे सक्रिय बनाने का.ऐसा होने पर ही विकास एवं लोक कल्याण की सारी सरकारी योजनाएं सफल हो पाएंगी, अन्यथा सरकार का हर रुपया चवन्नी होता रहेगा और हम कभी भ्रष्टाचार का तो कभी अयोग्यता का रोना ही रोते रहेंगे.
आइये एक उदाहरण लें. एक विभाग को दरियां चाहिये थीं, 15 फुट लंबी और 12 फीट चौड़ी दरियों के लिये कोटेशन मांगे गये, दरी की मोटाई, वजन और धागों का कोई जिक्र नहीं किया गया, या तो अज्ञानतावश या फिर जानबूझकर. आपूर्तिकर्ताओं ने अपनी - अपनी दरें दीं, उन्होंने भी दरी के वजन का जिक्र नहीं किया. नियमानुसार सबसे कम दरवाले को आपूर्तिआदेश दे दिया गया. उसकी हरएक दरी का वजन था 8 किलो और दर थी 900 रुपये. एक और आपूर्तिकर्ता ने उल्लेख भी किया था कि वह 12 किलो की दरी 1100 रुपए में देगा, लेकिन उसका कोटेशन दरकिनार हो गया. अब यहां पहला सवाल उठता है कि विभाग के लिये 8 किलो की दरी लेना ठीक होता या 12 किलो की, इसका निर्णय करने के लिये तीन बातों में तालमेल बिठाना होगा- दरियां किन लोगों के द्वारा कहां पर इस्तेमाल होंगी, कितनी लाइफ चाहिये और उसके लिये उपलब्ध धनराशि कितनी है. हो सकता है कि रोज इस्तेमाल करने पर हलकी दरी एक साल चले और भारी 5 साल. हो सकता है कि दरी का इस्तेमाल पूरे साल में दो-चार बार ही होना हो. दूसरा सवाल उठता है कि जब विभाग ने कोटेशन मांगते समय दरी के वजन का उल्लेख नहीं किया तो 12 किलो की जगह 8 किलो की दरी लेने के पीछे क्या तर्क? तीसरा अधिक महत्वपूर्ण सवाल है कि विभिन्न आपूर्तिकर्ताओं से कोटेशन इसीलिये मांगे जाते हैं कि माल की विभिन्न दरों में तुलना करके सही माल न्यूनतम दर पर प्राप्त किया जा सके.
उपरोक्त केस में तो तुलना हो ही नहीं पायी. आपने उल्लेख नहीं किया कि कितनी मोटी दरी चाहिये, एक ने 8 किलो की दरी का रेट दिया, दूसरे ने 12 किलो की दरी का, तीसरे ने 10 किलो की दरी का, अन्य ने अन्य वजन की दरियों का.अलग अलग वजन , अलग अलग रेट, लेकिन आपने सभी के सिर्फ रेट की तुलना करके 8 किलो वाले से दरी ले ली. चलिये मान लिया कि विभाग का काम हलकी दरी से ही चल जायेगा और टेंडर में दरी के वजन का उल्लेख न करने की भूल हो गयी. लेकिन उसे ऑर्डर देने से पहले तो सुधारा जा सकता है. टेंडर खुलने के बाद भी कोटेशन देनेवाली सभी पार्टियों को बन्द लिफाफे में 8 किलो की दरी का रेट देने के लिये कहा जा सकता है. हो सकता कि ऐसी स्थिति में दूसरी कई पार्टियां 8 किलो की दरी पहलेवाले न्यूनतम दर से भी काफी कम पर दे दें.
कोटेशन मंगाने के पहले थोड़ा सा होमवर्क करके इस प्रकार की अनेक परेशानियों से बचा जा सकता है. माल की रेट मांगने के पहले यथासंभव उनके अधिकांश महत्वपूर्ण स्पेसिफिकेशन का उल्लेख करना अनिवार्य होना चाहिये, यदि कोई गलती हो गयी हो टेंडर देनेवाले सभी आपूर्तिकर्ताओं से पुनः उनके रेट लेकर उसे अवश्य सुधार लेना चाहिये.
सरकारी खरीद को बाबुओं के रहमोकरम पर न छोड़ें
मॉडर्न मैनेजमेंट के इस युग में शायद ही विश्व की किसी बड़ी कंपनी में परचेज डिपार्टमेंट हो. हर जगह नया नाम ‘सामग्री प्रबंधन विभाग’ या ‘मैटेरियल मैनेजमेंट डिपार्टमेंट’ दे दिया गया है. मकसद सिर्फ यह समझाना है कि सामग्रियों की खरीद अब मामूली काम नहीं, इसके लिये सामग्री प्रबंधन के विशेषज्ञों को जिम्मेदारी दी जानी चाहिये जो वैज्ञानिक तरीकों से पर्चेज और स्टोर्स का सारा काम करेंगे. जापान की कंपनियों ने सत्तर के दशक में ‘जीरो इंवेंटरी ’ के सिद्धांत पर काम शुरू कर अपने उत्पादों की लागत में इतनी कटौती कर दी कि पूरे विश्व के बाजारों में उनकी तूती बोलने लगी, सामग्री प्रबंधन के नये नये तरीके ईजाद कर उन्होंने जापान को नंबर एक बना दिया. लेकिन हमारे सरकारी विभागों में सामग्री प्रबंधन की नवीनतम तकनीकों की चर्चा भी आकाशकुसुम तोड़ने के बराबर है, वहां तो बाबुओं की हिटलरशाही चलती है. कोटेशन मंगाने से शुरूकर, सैंपुल देखने, दरों की तुलना करने, आपूर्ति आदेश देने, माल का इंसपेक्शन कर स्वीकार करने और भुगतान करने तक – फाइलों में ही हर कदम पर हजारों गलतियां कभी भी नजर आ जायेंगी, लेकिन बिना किसी सुधार के बाबुओं और पदाधिकारियों की अंधेरगर्दी चलती जा रही है और चलती रहेगी. गलतियों की ओर इशारा करनेवाले आपूर्तिकर्ताओं को उपेक्षित और अपमानित किया जाता रहेगा. सूचनाप्राप्ति के अधिकार के इस युग में भी खरीदने की प्रक्रिया में इतनी लुका छिपी चल रही है, लोग तो चुप हैं, व्यवसाइयों के संगठन भी चुप हैं.
आइये एक छोटा सा उदाहरण लें. कई बार देखा गया है कि स्टील ऑफिस टेबुल की दर मांगी गयी और उसकी नापजोख नहीं दी गयी, धांधली का रास्ता यहीं पर बना दिया गया. टेबुल की लंबाई 4 फुट से लेकर 6 फुट और अधिक तक हो सकती है, चौड़ाई 2 फुट से लेकर 4 फुट तक हो सकती है. टेबुल की एक तरफ एक दराज से लेकर चार दराज तक हो सकते हैं, ये दराज एक तरफ या दोनों तरफ हो सकते हैं, हर आपूर्तिकर्ता अपनी समझ से अलग अलग साइज और डिजाइन की रेट देगा, आप सबकी दरों की तुलना किस प्रकार कर पाएंगे. कोटेशन मंगाने से पहले विभाग के पदाधिकारी और बाबू लोग यदि थोड़ी सी मेहनत कर लें तो इस प्रकार की स्थिति ही पैदा न हो. सवाल उठता है कि ये लोग ऐसी बचकानी गलतियां करते ही क्यों हैं? टेंडर देने के पहले यदि किसी आपूर्तिकर्ता ने विभाग में जाकर स्पेसिफिकेशन पूछने की कोशिश कर ली तो उसे टरकाते हुए कहा जायेगा कि जितनी भी डिजाइन संभव है, सभी के रेट दे दें. कितना हास्यास्पद होगा हर माल के लिये दस या अधिक विकल्पों के रेट देना. यदि लग रहा हो कि यह उदाहरण निरी कपोल कल्पना है तो अगले एक महीने में अखबारों में विभिन्न विभागों द्वारा कोटेशन मांगने के विज्ञापनों पर गौर फरमाएं ,आपको ढेरों उदाहरण मिल जायेंगे.
यदि सरकारी खरीद में धांधली कम करनी है तो पदाधिकारियों को समझाना होगा कि सरकारी खरीद की प्रक्रिया को वे अपनी नासमझी या निरंकुशता से हास्यास्पद न बनाएं, कोटेशन मंगाने के पहले विशेषज्ञों, अनुभवी आपूर्तिकर्ताओं और संबंधित व्यक्तियों से माल के स्पेसिफिकेशन पर विचार विमर्श कर लें, बाजार में उपलब्ध अलग अलग क्वालिटी का निरीक्षण भी कर लें, उसके बाद हर स्तर पर पारदर्शिता रखते हुए कोटेशन आमंत्रित करें. अधिक काम के लोड से त्रस्त एवं समयाभाव का रोना रोते इन अधिकारियों को समझना ही होगा कि सारे भ्रष्टाचार सरकारी खरीद की ढीली और अतार्किक प्रक्रियाओं से ही शुरू होते हैं, सारी प्रक्रिया को बाबुओं के रहमोकरम पर न छोड़कर उसमें संभावित छिद्रों को बन्द करने की कोशिश करनी होगी. अभी भी अनेक पदाधिकारी ईमानदार हैं, वे थोड़ा सा समय दें और अतिरिक्त प्रयास कर लें तो अपने विभागों में खरीद की फूलप्रूफ प्रक्रिया विकसित कर सकते हैं.उनसे प्रेरणा लेकर और उनका अनुकरण कर दूसरे विभाग भी सुधर जाएंगे.
सरकारी खरीद के लिये राज्यस्तरीय एक कॉमन एजेंसी हो
हर साल विभिन्न सरकारी विभागों के द्वारा अरबों रुपयों की खरीददारी की जाती है, राज्य स्तर पर कोई स्पष्ट परचेज पॉलिसी न होने के कारण विभिन्न विभागों के द्वारा खरीदी गयी सामग्रियों की दरों और क्वालिटी में समरूपता की जगह जमीन - आसमान का अंतर पाया जाता है. एक जगह पर रजिस्टर 15 रुपयों में खरीदा गया तो दूसरी जगह 50 रुपयों में. सरकारी खरीद की ढीली ढाली प्रक्रिया ही पदाधिकारियों, बाबुओं और सप्लायरों को भ्रष्ट बनाती है.
मूलतः न तो व्यापारी भ्रष्ट होते हैं, न कर्मचारी और पदाधिकारी ही, सिस्टम उन्हें भ्रष्ट बनाता है. मौका मिलने पर अच्छे खासे ईमानदार लोग भी बेईमान हो जायेंगे. सरकारी खरीद हो या ट्रांसफर पोस्टिंग का मामला या फिर सरकारी सेवाएं और सुविधाएं उपलब्ध करानेवाले विभाग - हर जगह पर यही बात लागू होती है. कंप्यूटराइजेसन करके सिर्फ सिस्टम ठीक कर देने से ही रेलवे रिजर्वेशन और एस टी डी कॉल्स में होनेवाली धाँधलियों में कितनी कमी आ गयी, बैंकों की कार्यप्रणाली कितनी सुधर गयी!
आज जरूरत है झारखंड में राज्य स्तर पर एक केन्द्रीयकृत डिपार्टमेंट की जो सरकारी खरीद की नीतियां तय करे, विभागों को इन नीतियों के क्रियान्वयन के लिये दिशानिर्देश दे, कर्मचारियों एवं पदाधिकारियों को क्रय प्रक्रियाओं के लिये प्रशिक्षित करे और सभी पर नजर रखते हुए सुनिश्चित करे कि इन नीतियों का उल्लंघन कहीं नहीं हो. इस सामग्री क्रय एजेंसी में ऐसे अनुभवी लोग हों जिन्हें सामग्री प्रबंधन का प्रशिक्षण प्राप्त हो.यदि प्रशिक्षण में कमी हो तो उन्हें विशेष प्रशिक्षण देने का प्रबंध किया जाये.
यह एजेंसी सर्वप्रथम ऐसे सामानों की सूची तैयार करेगी जिनका क्रय नियमित रूप से हर साल हर विभाग के द्वारा किया जाता है, उसके बाद ऐसी सामग्रियों की सूची बनेगी जो कभी कभी खरीदी जाती हैं. फिर यह एजेंसी व्यवसाइयों और विशेषज्ञों की सलाह लेकर लोकल जरूरतों एवं उपलब्धता के अनुसार सभी सूचीबद्ध सामग्रियों के स्पष्ट एवं विस्तृत स्पेसिफिकेशन तय करेगी. तत्पश्चात पूरे राज्य के उद्दमियों और व्यवसायियों से इन सामग्रियों की आपूर्ति के लिये कोटेशन आमंत्रित करेगी. केन्द्र सरकार के डी. जी. एस. एंड डी. की तर्ज पर इस राज्य स्तरीय क्रय एजेंसी की कार्यप्रणाली निश्चित की जा सकती है. सालभर में एक बार लिये गये इन कोटेशनों के आधार पर सामग्रियों की दरें सालभर के लिये निर्धारित हो जायेंगी. सभी सरकारी विभाग पूरे साल कभी भी ये सामग्रियां उस एजेंसी के यहां निबंधित आपूर्तिकर्ताओं में से किसी से भी खरीद सकेंगे.
उद्योग विभाग में एक क्वालिटी मार्किंग डिपार्टमेंट है जो एकदम निष्क्रिय है. इसे अधिक सुदृढ एवं कुशल बनाकर हर सरकारी खरीद में सामग्रियों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी दी जा सकती है.
सरकारी खरीद में राज्य में स्थित लघु उद्योगों, सहकारी समितियों, सरकारी उपक्रमों एवं खादी ग्रामोद्योगों आदि को विशेष छूट के आधार पर प्राथमिकता दी जानी चाहिये, हां यह अवश्य सुनिश्चित करना होगा कि वे स्वयं सामग्री का उत्पादन कर रहे हैं, कहीं से खरीदकर दलाली नहीं खा रहे.
अब वक्त आ गया कि झारखंड सरकार सरकारी खरीद की वर्तमान प्रक्रिया को व्यापक भ्रष्टाचार का स्रोत मानते हुए उसे सुधारने के गंभीर प्रयास करे. इस हेतु एकमात्र ठोस कदम होगा एक राज्यस्तरीय सामग्री प्रबंधन एजेंसी के गठन का, उसे व्यापक अधिकार देने का और उसे सक्रिय बनाने का.ऐसा होने पर ही विकास एवं लोक कल्याण की सारी सरकारी योजनाएं सफल हो पाएंगी, अन्यथा सरकार का हर रुपया चवन्नी होता रहेगा और हम कभी भ्रष्टाचार का तो कभी अयोग्यता का रोना ही रोते रहेंगे.
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