आज सरकारी स्कूलों में फीस नहीं लगती, किताबें मुफ्त मिलती हैं, दोपहर को खाना मिलता है और सभी दलित वर्ग के बच्चों को वार्षिक वजीफा भी मिलता है, फिरभी इन स्कूलों में बहुत कम बच्चे आते हैं. उन्हें लाने के लिये अभियान चलाया जा रहा है, उत्सव जैसा माहौल बनाया जा रहा है जिसमें पूरी सरकारी मशीनरी लगी है, नेता और अभिनेता लगे हैं, मंत्री और स्टार खिलाड़ी लगे हैं. पकड़ पकड़ कर बच्चों का नामांकन कराया जा रहा है. सप्ताह भर के इस उत्सव के बाद क्या ये बच्चे स्कूलों में टिकेंगे?
पिछले बीस सालों में सरकारी स्कूलों ने सिर्फ बदनामी ही कमाई है, शिक्षा पर बहुत कम खर्च किया गया, जो भी धनराशि आयी वह निकम्मे शिक्षकों और शिक्षा पदाधिकारियों को तनख्वाह देने पर खर्च हो गयी, स्कूलों को तो ब्लैक बोर्ड ठीक करने और खल्ली खरीदने के लिये भी पैसे नहीं मिलते थे. भवन जर्जर हो रहे थे, छतें चू रही थीं, पेड़ों के नीचे कक्षाएं चलती थीं. भला हो वर्ल्ड बैंक का जिसने विगत पांच वर्षों में शिक्षा परियोजनाओं के नाम पर अरबों रुपए दिये तो स्कूलों में कुछ फर्नीचर आया, भवनों की मरम्मत हुई, नये कमरे बने, किताबें बँटीं, लेकिन फिरभी स्कूलों में बच्चे नहीं बढ़े, मध्यान्ह भोजन का लालच बच्चों को दिया गया, लेकिन बात नहीं बनी. क्या वास्तविक कारण खोजना जरूरी नहीं?
आजभी जो अभिभावक शिक्षा का महत्व समझते हैं वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजना ठीक नहीं समझते. अधिकांश अभिभावकों की मासिक आमदनी बहुत कम है, अपना पेट काटकर महंगे प्रायवेट स्कूलों में भेज देंगे, यदि उतना खर्च नहीं उठा पा रहे तो बच्चों को घर पर ही बैठा लेना अच्छा समझेंगे, लेकिन सरकारी स्कूलों में नहीं भेजेंगे. वे सोचते हैं कि इन स्कूलों में बच्चों को भेजना उन्हें बर्बाद करना है. मजदूर वर्ग के अभिभावक तो और भी व्यावहारिक तरीके से सोचते हैं, वे जानते हैं कि सरकारी स्कूलों में न तो पढ़ाई होती है और न बच्चों का विकास ही होता है, हर साल पास होकर एक कक्षा ऊपर भले ही चढ़ जाते हों लेकिन ये बच्चे निठल्ले हो जाते हैं, वे मजदूरी करके जीविका कमाने के लायक भी नही रहते. मजदूर परिवारों में सभी काम करते हैं , बच्चे भी, सभी की सम्मिलित आय से ही परिवार की गाड़ी चलती है. बच्चों को स्कूल भेज दिया तो कमानेवाले हाथ कम हो गये, बच्चे बर्बाद अलग से हुए.
सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की मासिक गोष्ठियां होती हैं, स्कूलों की समस्याओं पर चर्चा होती है, संसाधनों के अभाव की शिकायतें होती हैं, स्कूलों में बच्चों की कमी की बात भी उठती है, बस सारा दोष सरकार और अभिभावकों पर मढ़कर छुट्टी पा ली जाती है. इन सवालों के जबाब नही खोजे जाते कि आधी रोटी खाकर भी अभिभावक अपने बच्चों को महंगे प्रायवेट स्कूलों में क्यों भेजते हैं, सरकारी स्कूलों की मुफ्त शिक्षा से दूर क्यों भागते हैं. प्रायवेट स्कूलों में सिर्फ पांच सौ से पांच हजार रुपए मासिक वेतन पानेवाले शिक्षक क्यों अधिक तन्मयता और रुचि से पढ़ाते हैं और दस से बीस हजार रुपए मासिक वेतन पानेवाले सरकारी शिक्षकों पर बच्चे और उनके अभिभावक क्यों नहीं भरोसा कर पाते हैं.
आज सरकारी स्कूलों में कार्यरत अधिकांश शिक्षक नाकाबिल हैं, योग्यता से कई गुना अधिक तनख्वाह और सुविधाएं उठा रहे हैं, शिक्षा विभाग के अधिकारियों को खिला-पिलाकर अपने को बचाए रहते हैं, जाति के नाम पर, इलाके के नाम पर पैरवी करके सहूलियत वाली जगह पर पोस्टिंग करा लेते हैं. यदि पाँचवीं कक्षा में पढ़ाने वाले शिक्षक को बच्चों के इम्तहान के समय पाँचवीं कक्षा का ही प्रश्नपत्र देकर उनके ज्ञान की जाँच की जाये तो अधिकांश शिक्षकों को पचास प्रतिशत अंक भी नहीं मिलेंगे. इनमें से अधिकांश तो हिन्दी में भी लिखने- बोलने में पचासों गलतियाँ करते हैं, ऐसे शिक्षकों से पढ़नेवाले बच्चों की भाषा- क्षमता की कल्पना स्वयं की जा सकती है. इन स्कूलों के शिक्षक तो सामान्य ज्ञान में अच्छे पब्लिक स्कूलों की पाँचवी कक्षा के छात्रों से भी मुकाबला शायद ही कर पाएं. क्लास में जाकर कुर्सी पर बैठ गये, हाँक लगा दी “पढ़ो ,रे पढ़ो” , थोड़ा और जोर लगाया तो बच्चों को ही बारी बारी से किताबों की रीडिंग करा दी. बोर हो रहे बच्चों ने गपशप शुरू की, इधर उधर ताक झाँक करने लगे तो छड़ी फटकार कर दूसरी बार हाँक दिया “का करता है रे तुम लोग, पढ़ाई करते नहीं बनता? माँ –बाप लोग कुछ किया नहीं, बस पैदा करके छोड़ दिया हमलोगों का जी हलकान करने के लिये”. इन शिक्षकों के अंदर जरा भी इच्छा नहीं कि किस तरीके से पढ़ाएँ जो बच्चों का मन लगे, इन्हें तो पढ़ाने का बेसिक ढंग ही नहीं पता, सुधारने या नये तरीके निकालने की क्या सोचेंगे.जिला स्कूल और राजकीय बालिका विद्यालय, बरियातू में अनेक शिक्षक पोस्टग्रैजुएट और पी.एच.डी होंगे, संत अन्ना ,उर्सलाइन और संत अलोइस जैसे मिशनरी विद्यालयों में शायद ग्रैजुएट शिक्षक भी उँगलियों पर गिने जाएंगे, लेकिन पढ़ाई के स्तर में जमीन आसमान का अंतर मिलेगा, शुरूसे ही. मिशनरी स्कूलों एवं दूसरे प्रायवेट स्कूलों में अयोग्य शिक्षकों को भी मेहनत करके योग्य बना दिया जाता है, शायद नौकरी जाने के भय से वे स्वयं भी सुधरने के लिये मेहनत करते हैं. सरकारी स्कूलों में अति योग्य शिक्षक भी अनुशासन के अभाव में एवं सुरक्षित नौकरी की छाँव में जीरो हो जाते हैं. तनख्वाह हर साल बढ़ती जाती है, योग्यता घटती जाती है. कहीं पर किसी जाँच का प्रावधान भी नहीं है.
साठ एवं सत्तर के दशकों में सेकेंड और थर्ड डिवीजन में मैट्रिक एवं हायर सेकेंडरी की बोर्ड परीक्षा में पास हजारों लोग आज प्राइमरी या मिडिल स्कूलों में शिक्षक हैं और 15 से 20 हजार का वेतन पाकर मस्त हैं. उन्हीं के साथी जो अच्छे नंबरों से पास होकर कॉलेज में गये, बी. ए. या बी. एस. सी. में भी अच्छे नंबर आए, उनमें से अधिकांश आज तक बेकार हैं या कम तनख्वाह पर प्राइवेट स्कूल- कॉलेजों में या दुकानों और कार्यालयों में कामकर किसी प्रकार अपना पेट पाल रहे हैं, क्योंकि उन्होंने टीचर्स ट्रेनिंग नहीं ली. उस समय अनेक शिक्षक-प्रशिक्षण विद्यालय हुआ करते थे जहाँ मैट्रिक उत्तीर्ण व्यक्ति शिक्षक बनने की ट्रेनिंग प्राप्त कर सकते थे, तृतीय श्रेणी में येन केन प्रकारेण उत्तीर्ण अनेक लोगों ने प्रशिक्षण ले लिया. बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा और बिहार सरकार के एक मंत्री ने राजनैतिक कारणों से प्रशिक्षण वर्ष के आधार पर इन सभी प्रशिक्षित शिक्षकों का पैनल बना दिया. पैनल के अनुसार उनकी नियुक्तियाँ लगातार कई वर्षों तक प्राथमिक और मिडिल स्कूल शिक्षक के रूप में होती चली गयी, बिना कोई इम्तहान लिये या बिना किसी प्रतियोगिता के. शुरू में तनख्वाह बहुत कम थी, इसलिये भी मेधावी छात्रों ने शिक्षक बनने का प्रयास नहीं किया, उनकी नजर लेक्चरर, बैंक क्लर्क, बिहार प्रशासनिक सेवा एवं दूसरे सरकारी विभागों पर रहती थी, सीटें बहुत कम और प्रत्याशी बहुत अधिक होने के कारण सफल नहीं हुए, चौबे गये छब्बे बनने दूबे बनकर लौटे. उन्हें प्राइवेट नौकरी में तीन चार हजार रुपयों से ही पूरे परिवार का पालन पोषण करना पड़ रहा है.आज पछता रहे हैं कि उस समय टीचर्स ट्रेनिंग लेकर प्रायमरी स्कूलों में शिक्षक ही क्यों न बन गये. भले ही उस समय स्कूलों में तनख्वाह बहुत कम थी, लेकिन इन शिक्षकों ने अपने संघ की ताकत का इस्तेमाल किया और समय- समय पर हड़ताल करके अपनी तनख्वाह अच्छी खासी बढ़वा ली.
आज भी शहर के अति प्रतिष्ठित विद्यालयों में कार्यरत अधिकांश शिक्षक अपने -अपने विषय के विशेषज्ञ हैं, पढ़ाने का तरीका इतना आकर्षक कि छात्र आजीवन याद रखें, नयी नयी किताबें पढ़कर आधुनिक प्रगति की जानकारी रखते हैं, अगले दिन क्या पढ़ाना है उसे अच्छी तरह पहले से पढ़कर जाते हैं, उनकी कक्षाओं में अनेक मेधावी छात्र होते हैं, पढ़ाने में जरा सा चूके तो हँसी के पात्र बने. पढ़ाने के अलावे नियमित अंतराल पर टेस्ट लेना एवं कॉपियाँ जाँचना, स्कूल की दूसरी गतिविधियों में भी भाग लेना और इतनी कड़ी मेहनत के बाद भी इन्हें मुश्किल से मिलते हैं पाँच- सात हजार रुपए.अधिकाश को तो दो तीन हजार में ही संतोष करना पड़ता है. सरकारी शिक्षकों को नयी चमचमाती मोटरसाइकिल पर उड़ते और लाखों के बैंक बैलेंस पर इतराते देखकर साइकिलों पर चलनेवाले इन प्राइवेट शिक्षकों के दिल पर क्या गुजरती होगी, भला हो ट्यूशन का ,गुजारा हो जाता है. अब इसे तकदीर का दोष कहा जाए या फिर सिस्टम की विकृति कि “हंस तो चुगे मोटा दाना और कौवा मोती खाए ?”.
साठ-सत्तर के दशकों में बिना किसी परीक्षा या प्रतियोगिता के अनाप शनाप अयोग्य शिक्षकों की बहाली की गयी, पुराने समर्पित शिक्षक रिटायर होते गये जिनके कारण सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर गिरते-गिरते रसातल तक पहँच गया. “साक्षरता अभियान”, “प्रौढ़ शिक्षा अभियान” और “अनौपचारिक शिक्षा” के लिये रात्रि पाठशालाओं की डुगडुगी बजा रहे अविभाजित बिहार की सरकार के पैरों के नीचे की जमीन कब खिसक गयी उसे पता ही नही लगा. इन शिक्षकों ने राजनीति की, हड़तालें कीं, अपनी तनख्वाह और सुविधाएं बढ़वाईं, पढ़ाने की योग्यता तो थी नहीं, सुधार की न तो इच्छा थी और न ही मजबूरी. प्रायमरी एवं मिडिल स्कूल एकदम बर्बाद हो गये, हाई स्कूल भी बर्बादी की राह पर चल पड़े. यदि स्कूलों में बच्चे नहीं आते, उनके माँ-बाप उन्हें नहीं भेजते तो इसमें दोष उनका नहीं शत प्रतिशत शिक्षकों का है. गलत तरीके से उनकी बहाली हो गयी, कोई बात नहीं, उसके बाद भी स्वयं को सुधारने का मौका हमेशा रहता है, क्यों नहीं सुधरते? स्कूलों में पढ़ाई को आकर्षक बनाइये, बच्चे आएंगे और रोज आएंगे. स्कूल जा रहे बच्चों के व्यवहार एवं उनके स्वभाव में सुधार हर अभिभावक की नजर में तुरंत आ जाता है, उन्हें आप मूर्ख न समझें, बच्चों में परिवर्तन नजर आया तो हर अभिभावक उन्हें स्कूल जरूर भेजेगा. सत्तर अस्सी साल पहले गिज्जू भाई ने पढ़ाने के तरीकों मे जो अभिनव सफल प्रयोग किये, अफसोस कि उन्हें हम आज तक आंशिक तौर पर भी लागू न कर पाए. कारण बस यही था कि मेधावी लोगों शिक्षक नहीं बने और न ऐसे लोग बन पाए जिन्हें पढ़ाने में रुचि थी. समय का चक्र कुछ ऐसा चला कि ऐसे लोग शिक्षक बने जिनमें न तो योग्यता थी और न रुचि ही.
आज झारखंड सरकार वही गलती फिर से दुहरा रही है. आखिर क्या है पारा शिक्षकों की नियुक्ति ? इतना कुछ भोगने के बाद भी हमें अकल नहीं आयी कि शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिये हमें चाहिए शिक्षकों के रूप में मेधावी व्यक्ति, अनाप शनाप नियुक्तियाँ करके हम काँटे बो रहे हैं जो नागफनी बन कई पीढ़ियों तक चुभते रहेंगे. बेरोजगार लोगों को पारा शिक्षक बना दिया गया, बिना किसी जाँच या प्रतियोगिता के. सोचा गया कि पाँच सौ और हजार रुपयों में शिक्षक मिल गये, कौड़ियों के मोल. क्या सरकार इन्हें कभी हटा पाएगी, ये संघ बनाकर आंदोलन करेंगे, धरना देंगे, राजनैतिक दल भी अपनी रोटी सेंकने के लिये इनके साथ आ जाएंगे. कुछ महीने पहले ही इन पारा शिक्षकों ने राजधानी राँची की सड़कों पर उतर कर आंदोलन का बिगुल बजा दिया है. योग्य हों या अयोग्य, सरकार ने भले ही इन्हें अस्थाई तौर पर नियुक्त किया हो, पर इन्हें हटा नही पाएगी, इन्हें एक दिन दूसरे शिक्षकों की तरह नियमित करना ही पड़ेगा. यदि सरकार को लगता है कि नये स्कूल खुल रहे हैं, शिक्षकों की जरूरत है तो क्यों नहीं उनकी बहाली के लिये उचित प्रक्रिया अपनाती? स्नातक स्तर तक पूरे कैरियर में प्रथम श्रेणी प्राप्त करनेवालों की बहाली तो सीधे कर लेनी चाहिये, भले ही उन्होंने बी. एड. न किया हो, नियुक्ति के बाद उन्हें तीन महीनों का त्वरित प्रशिक्षण दीजिये, उन्हे अधिकार, सम्मान और सुविधाएं दीजिए, देखिए कितना बड़ा परिवर्तन वे शिक्षा के क्षेत्र में ला देते हैं. बहाली के लिये शिक्षाविदों का कमीशन गठित कीजिए, प्रतियोगिता परीक्षा के ऐसे प्रश्न पत्र वे बनाएं जिनसे प्राथियों के भाषा- ज्ञान , विषय- ज्ञान और पढ़ाने में रुचि का पता लग जाए. कोई जरूरी नहीं कि प्रशिक्षण महाविद्यालयों से बी.एड की नकली या असली डिग्री लिये लोगों में पढ़ाने योग्यता और रुचि हो ही, उनके लिये भी जाँच परीक्षा में बैठना आवश्यक होना चाहिये, भले ही बी.एड. की डिग्री के एवज में कुछ पूर्वनिश्चित अतिरिक्त अंक उन्हें ‘वेटेज’ के तौर पर दे दिए जाएं. हेडमास्टर की नियुक्ति में तो प्रशासनिक क्षमता की भी जाँच होनी चाहिए. प्रत्येक पाँच साल के बाद हर शिक्षक के ज्ञान की जाँच अवश्य होनी चाहिये और उसी के आधार पर उसकी तनख्वाह बढ़नी चाहिये.
मैं यहाँ एक बात फिरसे दुहराना चाहूँगा कि जो शिक्षक जिस उच्चतम कक्षा तक पढ़ा रहा है, उसे उस कक्षा के विद्यार्थियों के वार्षिक इम्तहान के लिये बने प्रश्नपत्रों की परीक्षा स्वयं देने के लिये तैयार रहना चाहिये और जो शिक्षक 75% अंक भी न प्राप्त कर सकें, उनकी तनख्वाह में वृद्धि रोक देनी चाहिये. इसमें तो शिक्षकों और उनके संघो को कोई एतराज न होना चाहिए. ये शिक्षक अगले इम्तहान में यदि अपने को सुधार लेते हैं तो उनकी तनख्वाह उस साल से बढ़ा दी जाए.एक बार इम्तहान में सफल होने के बाद पाँच साल की राहत दे देनी चाहिये. हां सुधार के लिये हर साल इम्तहान लिये जा सकते हैं.ऐसा हो जाने पर वैसे शिक्षक जो अपने को सुधार नहीं रहे, वे भी सतर्क हो जाएंगे, फायदा पूरे शिक्षा जगत को होगा, समाज को होगा. बृहद समाज और देश का भविष्य इन्हीं सरकारी स्कूलों और शिक्षकों के हाथों में है. भले ही प्रायवेट स्कूलों का स्तर बहुत ऊँचा हो, लेकिन आम आदमी अपने बच्चों को वहाँ पढ़ाने का खर्च नहीं उठा सकता. उच्च मिडिल क्लास के लोग अपने बच्चों को अच्छे प्रायवेट स्कूलों में पढ़ाकर भले ही उनमें उच्च पदाधिकारी बनने की काबिलियत उत्पन्न कर दें, लेकिन जबतक आम आदमी शिक्षित नहीं होगा, न तो हमारी डेमोक्रैसी स्थाई होगी और न हम अपने राष्ट्र को ही मजबूत बना पाएंगे. सरकारी स्कूल रहे हैं और उन्हें आगे भी रहना होगा, जरूरत है उन्हें मिलकर लोकप्रिय बनाने की, न कि सिर्फ आलोचना करने की.
संसाधनों का रोना रोनेवाले अफसरों और शिक्षकों को राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित शिक्षक श्री रामकिशोर साहू जैसे लोगों से प्रेरणा लेनी चाहिये. बुंडू के पास एक छोटे गाँव काँची के एक मिडिल स्कूल मे श्री साहू प्रधानाध्यापक के रूप में अस्सी के दशक में आए, दो तीन कच्चे कमरे थे, वे भी जर्जर, कभी भी भहरा कर गिर सकते थे. उन्होंने हार नही मानी, निकल पड़े गाँव में झोली फैलाकर. कहीं से बाँस, कहीं से बल्ली, एक कुम्हार से खपरैल, कहीं से सीमेंट- तीन चार महीनों में ही छह बढ़िया कमरे तैयार हो गये. लोगों ने, बच्चों ने श्रमदान भी किया, सरकार से कोई मदद नहीं, उस समय सर्व शिक्षा अभियान का नामोनिशान भी नहीं था. केवल भवन बना कर संतोष नहीं, फूलों के पौधे लगाकर सुदर वाटिका भी बना दी, दीवारों पर ही महापुरुषों के उद्धरण लिखवा दिये, प्रार्थना सभा में बच्चों को वे ताजे समाचार अखबार से सुनाते. हर शिक्षक को अगले दिन पढ़ाया जानेवाला पाठ तैयार करके आने की सख्त हिदायत देते और अगले दिन स्वयं कक्षाओं में बैठकर देखते. खेलकूद और सांस्कृतिक कार्यक्रमों को भी नियमित बनाया. बच्चों का बहुमुखी विकास शुरू हो गया, परिणाम दिखलाई पड़ने लगा. बुंडू ब्लॉक से हर वर्ष दो बच्चों को पूरा खर्च देकर राँची के किसी अच्छे आवासीय विद्यालय में पढ़ने के लिये चुना जाता था, जबतक श्री साहू काँची में रहे, इनके ही स्कूल के बच्चों ने नियमित रूप से हर वर्ष दोनों स्थानों पर कब्जा किया. वही श्री साहू का स्थानांतरण राँची के श्रद्धानंद रोड स्थित चडरी मिडिल स्कूल में हुआ, यहां भी भवन जर्जर, बच्चे गायब, स्कूल पर बाहरी लोगों का कब्जा. निडर होकर उन्होंने सब सुधारा, कब्जा हटवाया, लायंस क्लब और राँची थोक वस्त्र विक्रेता संघ को प्रेरित कर पक्का भवन खुद खड़े होकर बनाया, सुंदर वाटिका विकसित की, काँची की तरह यहाँ भी पढ़ाई के स्तर को सुधार दिया, स्कूल एक मिसाल बन गया.उनकी सर्वत्र प्रशंसा हुई, राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हुए. ऐसे श्री साहू आज रिटायर हो चुके हैं, सुबह सायकिल से दस किलोमीटर भ्रमण करते हैं, शारीरिक और मानसिक रूप से पूर्ण चाक चौबंद और सक्षम हैं. लेकिन शिक्षा विभाग उनके प्रति उदासीन है, ऐसे अनुभवी और प्रतिभासंपन्न व्यक्ति को यदि जोड़ा जा सकता तो सर्वशिक्षा अभियान में जान आ जाती. उनके जैसे राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित श्री मछेन्दर जी भी रिटायर होकर बैठे हैं, कोई इन अनुभवी शिक्षाविदों से सलाह भी नहीं लेता, इसी से पता लगता है कि ‘स्कूल चलें हम’ अभियान के प्रति हमारे अधिकारी कितने गंभीर हैं.
भले ही आजतक झारखंड सरकार की सारी योजनाएं या तो हवाई घोषणाओं तक ही सीमित रह गयीं, उनमें से कुछ धरातल पर उतरीं भी तो सिर्फ भ्रूण अवस्था से आगे नहीं बढ पायीं, फिरभी “स्कूल चलें हम” अभियान के माध्यम से सर्व शिक्षा का उद्देश्य पूरा हो, इसमें सरकार को सभी का सहयोग मिलना चाहिये.एक जागरूक नागरिक होने के नाते इस महत्वपूर्ण आवश्यक कार्य की सफलता में जो खतरे मुझे नजर आ रहे हैं, उनसे आगाह करना मैने अपना फर्ज समझा, कृपया इस लेख को अभियान की आलोचना समझने की गलती न करें. अभियान अच्छा है, बच्चे तो स्कूल जाएं ही, हम भी एक बार पुनः स्कूल चलें, वहाँ की स्थिति पढ़ने और सुधार के उपाय सुझाने.
पिछले बीस सालों में सरकारी स्कूलों ने सिर्फ बदनामी ही कमाई है, शिक्षा पर बहुत कम खर्च किया गया, जो भी धनराशि आयी वह निकम्मे शिक्षकों और शिक्षा पदाधिकारियों को तनख्वाह देने पर खर्च हो गयी, स्कूलों को तो ब्लैक बोर्ड ठीक करने और खल्ली खरीदने के लिये भी पैसे नहीं मिलते थे. भवन जर्जर हो रहे थे, छतें चू रही थीं, पेड़ों के नीचे कक्षाएं चलती थीं. भला हो वर्ल्ड बैंक का जिसने विगत पांच वर्षों में शिक्षा परियोजनाओं के नाम पर अरबों रुपए दिये तो स्कूलों में कुछ फर्नीचर आया, भवनों की मरम्मत हुई, नये कमरे बने, किताबें बँटीं, लेकिन फिरभी स्कूलों में बच्चे नहीं बढ़े, मध्यान्ह भोजन का लालच बच्चों को दिया गया, लेकिन बात नहीं बनी. क्या वास्तविक कारण खोजना जरूरी नहीं?
आजभी जो अभिभावक शिक्षा का महत्व समझते हैं वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजना ठीक नहीं समझते. अधिकांश अभिभावकों की मासिक आमदनी बहुत कम है, अपना पेट काटकर महंगे प्रायवेट स्कूलों में भेज देंगे, यदि उतना खर्च नहीं उठा पा रहे तो बच्चों को घर पर ही बैठा लेना अच्छा समझेंगे, लेकिन सरकारी स्कूलों में नहीं भेजेंगे. वे सोचते हैं कि इन स्कूलों में बच्चों को भेजना उन्हें बर्बाद करना है. मजदूर वर्ग के अभिभावक तो और भी व्यावहारिक तरीके से सोचते हैं, वे जानते हैं कि सरकारी स्कूलों में न तो पढ़ाई होती है और न बच्चों का विकास ही होता है, हर साल पास होकर एक कक्षा ऊपर भले ही चढ़ जाते हों लेकिन ये बच्चे निठल्ले हो जाते हैं, वे मजदूरी करके जीविका कमाने के लायक भी नही रहते. मजदूर परिवारों में सभी काम करते हैं , बच्चे भी, सभी की सम्मिलित आय से ही परिवार की गाड़ी चलती है. बच्चों को स्कूल भेज दिया तो कमानेवाले हाथ कम हो गये, बच्चे बर्बाद अलग से हुए.
सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की मासिक गोष्ठियां होती हैं, स्कूलों की समस्याओं पर चर्चा होती है, संसाधनों के अभाव की शिकायतें होती हैं, स्कूलों में बच्चों की कमी की बात भी उठती है, बस सारा दोष सरकार और अभिभावकों पर मढ़कर छुट्टी पा ली जाती है. इन सवालों के जबाब नही खोजे जाते कि आधी रोटी खाकर भी अभिभावक अपने बच्चों को महंगे प्रायवेट स्कूलों में क्यों भेजते हैं, सरकारी स्कूलों की मुफ्त शिक्षा से दूर क्यों भागते हैं. प्रायवेट स्कूलों में सिर्फ पांच सौ से पांच हजार रुपए मासिक वेतन पानेवाले शिक्षक क्यों अधिक तन्मयता और रुचि से पढ़ाते हैं और दस से बीस हजार रुपए मासिक वेतन पानेवाले सरकारी शिक्षकों पर बच्चे और उनके अभिभावक क्यों नहीं भरोसा कर पाते हैं.
आज सरकारी स्कूलों में कार्यरत अधिकांश शिक्षक नाकाबिल हैं, योग्यता से कई गुना अधिक तनख्वाह और सुविधाएं उठा रहे हैं, शिक्षा विभाग के अधिकारियों को खिला-पिलाकर अपने को बचाए रहते हैं, जाति के नाम पर, इलाके के नाम पर पैरवी करके सहूलियत वाली जगह पर पोस्टिंग करा लेते हैं. यदि पाँचवीं कक्षा में पढ़ाने वाले शिक्षक को बच्चों के इम्तहान के समय पाँचवीं कक्षा का ही प्रश्नपत्र देकर उनके ज्ञान की जाँच की जाये तो अधिकांश शिक्षकों को पचास प्रतिशत अंक भी नहीं मिलेंगे. इनमें से अधिकांश तो हिन्दी में भी लिखने- बोलने में पचासों गलतियाँ करते हैं, ऐसे शिक्षकों से पढ़नेवाले बच्चों की भाषा- क्षमता की कल्पना स्वयं की जा सकती है. इन स्कूलों के शिक्षक तो सामान्य ज्ञान में अच्छे पब्लिक स्कूलों की पाँचवी कक्षा के छात्रों से भी मुकाबला शायद ही कर पाएं. क्लास में जाकर कुर्सी पर बैठ गये, हाँक लगा दी “पढ़ो ,रे पढ़ो” , थोड़ा और जोर लगाया तो बच्चों को ही बारी बारी से किताबों की रीडिंग करा दी. बोर हो रहे बच्चों ने गपशप शुरू की, इधर उधर ताक झाँक करने लगे तो छड़ी फटकार कर दूसरी बार हाँक दिया “का करता है रे तुम लोग, पढ़ाई करते नहीं बनता? माँ –बाप लोग कुछ किया नहीं, बस पैदा करके छोड़ दिया हमलोगों का जी हलकान करने के लिये”. इन शिक्षकों के अंदर जरा भी इच्छा नहीं कि किस तरीके से पढ़ाएँ जो बच्चों का मन लगे, इन्हें तो पढ़ाने का बेसिक ढंग ही नहीं पता, सुधारने या नये तरीके निकालने की क्या सोचेंगे.जिला स्कूल और राजकीय बालिका विद्यालय, बरियातू में अनेक शिक्षक पोस्टग्रैजुएट और पी.एच.डी होंगे, संत अन्ना ,उर्सलाइन और संत अलोइस जैसे मिशनरी विद्यालयों में शायद ग्रैजुएट शिक्षक भी उँगलियों पर गिने जाएंगे, लेकिन पढ़ाई के स्तर में जमीन आसमान का अंतर मिलेगा, शुरूसे ही. मिशनरी स्कूलों एवं दूसरे प्रायवेट स्कूलों में अयोग्य शिक्षकों को भी मेहनत करके योग्य बना दिया जाता है, शायद नौकरी जाने के भय से वे स्वयं भी सुधरने के लिये मेहनत करते हैं. सरकारी स्कूलों में अति योग्य शिक्षक भी अनुशासन के अभाव में एवं सुरक्षित नौकरी की छाँव में जीरो हो जाते हैं. तनख्वाह हर साल बढ़ती जाती है, योग्यता घटती जाती है. कहीं पर किसी जाँच का प्रावधान भी नहीं है.
साठ एवं सत्तर के दशकों में सेकेंड और थर्ड डिवीजन में मैट्रिक एवं हायर सेकेंडरी की बोर्ड परीक्षा में पास हजारों लोग आज प्राइमरी या मिडिल स्कूलों में शिक्षक हैं और 15 से 20 हजार का वेतन पाकर मस्त हैं. उन्हीं के साथी जो अच्छे नंबरों से पास होकर कॉलेज में गये, बी. ए. या बी. एस. सी. में भी अच्छे नंबर आए, उनमें से अधिकांश आज तक बेकार हैं या कम तनख्वाह पर प्राइवेट स्कूल- कॉलेजों में या दुकानों और कार्यालयों में कामकर किसी प्रकार अपना पेट पाल रहे हैं, क्योंकि उन्होंने टीचर्स ट्रेनिंग नहीं ली. उस समय अनेक शिक्षक-प्रशिक्षण विद्यालय हुआ करते थे जहाँ मैट्रिक उत्तीर्ण व्यक्ति शिक्षक बनने की ट्रेनिंग प्राप्त कर सकते थे, तृतीय श्रेणी में येन केन प्रकारेण उत्तीर्ण अनेक लोगों ने प्रशिक्षण ले लिया. बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा और बिहार सरकार के एक मंत्री ने राजनैतिक कारणों से प्रशिक्षण वर्ष के आधार पर इन सभी प्रशिक्षित शिक्षकों का पैनल बना दिया. पैनल के अनुसार उनकी नियुक्तियाँ लगातार कई वर्षों तक प्राथमिक और मिडिल स्कूल शिक्षक के रूप में होती चली गयी, बिना कोई इम्तहान लिये या बिना किसी प्रतियोगिता के. शुरू में तनख्वाह बहुत कम थी, इसलिये भी मेधावी छात्रों ने शिक्षक बनने का प्रयास नहीं किया, उनकी नजर लेक्चरर, बैंक क्लर्क, बिहार प्रशासनिक सेवा एवं दूसरे सरकारी विभागों पर रहती थी, सीटें बहुत कम और प्रत्याशी बहुत अधिक होने के कारण सफल नहीं हुए, चौबे गये छब्बे बनने दूबे बनकर लौटे. उन्हें प्राइवेट नौकरी में तीन चार हजार रुपयों से ही पूरे परिवार का पालन पोषण करना पड़ रहा है.आज पछता रहे हैं कि उस समय टीचर्स ट्रेनिंग लेकर प्रायमरी स्कूलों में शिक्षक ही क्यों न बन गये. भले ही उस समय स्कूलों में तनख्वाह बहुत कम थी, लेकिन इन शिक्षकों ने अपने संघ की ताकत का इस्तेमाल किया और समय- समय पर हड़ताल करके अपनी तनख्वाह अच्छी खासी बढ़वा ली.
आज भी शहर के अति प्रतिष्ठित विद्यालयों में कार्यरत अधिकांश शिक्षक अपने -अपने विषय के विशेषज्ञ हैं, पढ़ाने का तरीका इतना आकर्षक कि छात्र आजीवन याद रखें, नयी नयी किताबें पढ़कर आधुनिक प्रगति की जानकारी रखते हैं, अगले दिन क्या पढ़ाना है उसे अच्छी तरह पहले से पढ़कर जाते हैं, उनकी कक्षाओं में अनेक मेधावी छात्र होते हैं, पढ़ाने में जरा सा चूके तो हँसी के पात्र बने. पढ़ाने के अलावे नियमित अंतराल पर टेस्ट लेना एवं कॉपियाँ जाँचना, स्कूल की दूसरी गतिविधियों में भी भाग लेना और इतनी कड़ी मेहनत के बाद भी इन्हें मुश्किल से मिलते हैं पाँच- सात हजार रुपए.अधिकाश को तो दो तीन हजार में ही संतोष करना पड़ता है. सरकारी शिक्षकों को नयी चमचमाती मोटरसाइकिल पर उड़ते और लाखों के बैंक बैलेंस पर इतराते देखकर साइकिलों पर चलनेवाले इन प्राइवेट शिक्षकों के दिल पर क्या गुजरती होगी, भला हो ट्यूशन का ,गुजारा हो जाता है. अब इसे तकदीर का दोष कहा जाए या फिर सिस्टम की विकृति कि “हंस तो चुगे मोटा दाना और कौवा मोती खाए ?”.
साठ-सत्तर के दशकों में बिना किसी परीक्षा या प्रतियोगिता के अनाप शनाप अयोग्य शिक्षकों की बहाली की गयी, पुराने समर्पित शिक्षक रिटायर होते गये जिनके कारण सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर गिरते-गिरते रसातल तक पहँच गया. “साक्षरता अभियान”, “प्रौढ़ शिक्षा अभियान” और “अनौपचारिक शिक्षा” के लिये रात्रि पाठशालाओं की डुगडुगी बजा रहे अविभाजित बिहार की सरकार के पैरों के नीचे की जमीन कब खिसक गयी उसे पता ही नही लगा. इन शिक्षकों ने राजनीति की, हड़तालें कीं, अपनी तनख्वाह और सुविधाएं बढ़वाईं, पढ़ाने की योग्यता तो थी नहीं, सुधार की न तो इच्छा थी और न ही मजबूरी. प्रायमरी एवं मिडिल स्कूल एकदम बर्बाद हो गये, हाई स्कूल भी बर्बादी की राह पर चल पड़े. यदि स्कूलों में बच्चे नहीं आते, उनके माँ-बाप उन्हें नहीं भेजते तो इसमें दोष उनका नहीं शत प्रतिशत शिक्षकों का है. गलत तरीके से उनकी बहाली हो गयी, कोई बात नहीं, उसके बाद भी स्वयं को सुधारने का मौका हमेशा रहता है, क्यों नहीं सुधरते? स्कूलों में पढ़ाई को आकर्षक बनाइये, बच्चे आएंगे और रोज आएंगे. स्कूल जा रहे बच्चों के व्यवहार एवं उनके स्वभाव में सुधार हर अभिभावक की नजर में तुरंत आ जाता है, उन्हें आप मूर्ख न समझें, बच्चों में परिवर्तन नजर आया तो हर अभिभावक उन्हें स्कूल जरूर भेजेगा. सत्तर अस्सी साल पहले गिज्जू भाई ने पढ़ाने के तरीकों मे जो अभिनव सफल प्रयोग किये, अफसोस कि उन्हें हम आज तक आंशिक तौर पर भी लागू न कर पाए. कारण बस यही था कि मेधावी लोगों शिक्षक नहीं बने और न ऐसे लोग बन पाए जिन्हें पढ़ाने में रुचि थी. समय का चक्र कुछ ऐसा चला कि ऐसे लोग शिक्षक बने जिनमें न तो योग्यता थी और न रुचि ही.
आज झारखंड सरकार वही गलती फिर से दुहरा रही है. आखिर क्या है पारा शिक्षकों की नियुक्ति ? इतना कुछ भोगने के बाद भी हमें अकल नहीं आयी कि शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिये हमें चाहिए शिक्षकों के रूप में मेधावी व्यक्ति, अनाप शनाप नियुक्तियाँ करके हम काँटे बो रहे हैं जो नागफनी बन कई पीढ़ियों तक चुभते रहेंगे. बेरोजगार लोगों को पारा शिक्षक बना दिया गया, बिना किसी जाँच या प्रतियोगिता के. सोचा गया कि पाँच सौ और हजार रुपयों में शिक्षक मिल गये, कौड़ियों के मोल. क्या सरकार इन्हें कभी हटा पाएगी, ये संघ बनाकर आंदोलन करेंगे, धरना देंगे, राजनैतिक दल भी अपनी रोटी सेंकने के लिये इनके साथ आ जाएंगे. कुछ महीने पहले ही इन पारा शिक्षकों ने राजधानी राँची की सड़कों पर उतर कर आंदोलन का बिगुल बजा दिया है. योग्य हों या अयोग्य, सरकार ने भले ही इन्हें अस्थाई तौर पर नियुक्त किया हो, पर इन्हें हटा नही पाएगी, इन्हें एक दिन दूसरे शिक्षकों की तरह नियमित करना ही पड़ेगा. यदि सरकार को लगता है कि नये स्कूल खुल रहे हैं, शिक्षकों की जरूरत है तो क्यों नहीं उनकी बहाली के लिये उचित प्रक्रिया अपनाती? स्नातक स्तर तक पूरे कैरियर में प्रथम श्रेणी प्राप्त करनेवालों की बहाली तो सीधे कर लेनी चाहिये, भले ही उन्होंने बी. एड. न किया हो, नियुक्ति के बाद उन्हें तीन महीनों का त्वरित प्रशिक्षण दीजिये, उन्हे अधिकार, सम्मान और सुविधाएं दीजिए, देखिए कितना बड़ा परिवर्तन वे शिक्षा के क्षेत्र में ला देते हैं. बहाली के लिये शिक्षाविदों का कमीशन गठित कीजिए, प्रतियोगिता परीक्षा के ऐसे प्रश्न पत्र वे बनाएं जिनसे प्राथियों के भाषा- ज्ञान , विषय- ज्ञान और पढ़ाने में रुचि का पता लग जाए. कोई जरूरी नहीं कि प्रशिक्षण महाविद्यालयों से बी.एड की नकली या असली डिग्री लिये लोगों में पढ़ाने योग्यता और रुचि हो ही, उनके लिये भी जाँच परीक्षा में बैठना आवश्यक होना चाहिये, भले ही बी.एड. की डिग्री के एवज में कुछ पूर्वनिश्चित अतिरिक्त अंक उन्हें ‘वेटेज’ के तौर पर दे दिए जाएं. हेडमास्टर की नियुक्ति में तो प्रशासनिक क्षमता की भी जाँच होनी चाहिए. प्रत्येक पाँच साल के बाद हर शिक्षक के ज्ञान की जाँच अवश्य होनी चाहिये और उसी के आधार पर उसकी तनख्वाह बढ़नी चाहिये.
मैं यहाँ एक बात फिरसे दुहराना चाहूँगा कि जो शिक्षक जिस उच्चतम कक्षा तक पढ़ा रहा है, उसे उस कक्षा के विद्यार्थियों के वार्षिक इम्तहान के लिये बने प्रश्नपत्रों की परीक्षा स्वयं देने के लिये तैयार रहना चाहिये और जो शिक्षक 75% अंक भी न प्राप्त कर सकें, उनकी तनख्वाह में वृद्धि रोक देनी चाहिये. इसमें तो शिक्षकों और उनके संघो को कोई एतराज न होना चाहिए. ये शिक्षक अगले इम्तहान में यदि अपने को सुधार लेते हैं तो उनकी तनख्वाह उस साल से बढ़ा दी जाए.एक बार इम्तहान में सफल होने के बाद पाँच साल की राहत दे देनी चाहिये. हां सुधार के लिये हर साल इम्तहान लिये जा सकते हैं.ऐसा हो जाने पर वैसे शिक्षक जो अपने को सुधार नहीं रहे, वे भी सतर्क हो जाएंगे, फायदा पूरे शिक्षा जगत को होगा, समाज को होगा. बृहद समाज और देश का भविष्य इन्हीं सरकारी स्कूलों और शिक्षकों के हाथों में है. भले ही प्रायवेट स्कूलों का स्तर बहुत ऊँचा हो, लेकिन आम आदमी अपने बच्चों को वहाँ पढ़ाने का खर्च नहीं उठा सकता. उच्च मिडिल क्लास के लोग अपने बच्चों को अच्छे प्रायवेट स्कूलों में पढ़ाकर भले ही उनमें उच्च पदाधिकारी बनने की काबिलियत उत्पन्न कर दें, लेकिन जबतक आम आदमी शिक्षित नहीं होगा, न तो हमारी डेमोक्रैसी स्थाई होगी और न हम अपने राष्ट्र को ही मजबूत बना पाएंगे. सरकारी स्कूल रहे हैं और उन्हें आगे भी रहना होगा, जरूरत है उन्हें मिलकर लोकप्रिय बनाने की, न कि सिर्फ आलोचना करने की.
संसाधनों का रोना रोनेवाले अफसरों और शिक्षकों को राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित शिक्षक श्री रामकिशोर साहू जैसे लोगों से प्रेरणा लेनी चाहिये. बुंडू के पास एक छोटे गाँव काँची के एक मिडिल स्कूल मे श्री साहू प्रधानाध्यापक के रूप में अस्सी के दशक में आए, दो तीन कच्चे कमरे थे, वे भी जर्जर, कभी भी भहरा कर गिर सकते थे. उन्होंने हार नही मानी, निकल पड़े गाँव में झोली फैलाकर. कहीं से बाँस, कहीं से बल्ली, एक कुम्हार से खपरैल, कहीं से सीमेंट- तीन चार महीनों में ही छह बढ़िया कमरे तैयार हो गये. लोगों ने, बच्चों ने श्रमदान भी किया, सरकार से कोई मदद नहीं, उस समय सर्व शिक्षा अभियान का नामोनिशान भी नहीं था. केवल भवन बना कर संतोष नहीं, फूलों के पौधे लगाकर सुदर वाटिका भी बना दी, दीवारों पर ही महापुरुषों के उद्धरण लिखवा दिये, प्रार्थना सभा में बच्चों को वे ताजे समाचार अखबार से सुनाते. हर शिक्षक को अगले दिन पढ़ाया जानेवाला पाठ तैयार करके आने की सख्त हिदायत देते और अगले दिन स्वयं कक्षाओं में बैठकर देखते. खेलकूद और सांस्कृतिक कार्यक्रमों को भी नियमित बनाया. बच्चों का बहुमुखी विकास शुरू हो गया, परिणाम दिखलाई पड़ने लगा. बुंडू ब्लॉक से हर वर्ष दो बच्चों को पूरा खर्च देकर राँची के किसी अच्छे आवासीय विद्यालय में पढ़ने के लिये चुना जाता था, जबतक श्री साहू काँची में रहे, इनके ही स्कूल के बच्चों ने नियमित रूप से हर वर्ष दोनों स्थानों पर कब्जा किया. वही श्री साहू का स्थानांतरण राँची के श्रद्धानंद रोड स्थित चडरी मिडिल स्कूल में हुआ, यहां भी भवन जर्जर, बच्चे गायब, स्कूल पर बाहरी लोगों का कब्जा. निडर होकर उन्होंने सब सुधारा, कब्जा हटवाया, लायंस क्लब और राँची थोक वस्त्र विक्रेता संघ को प्रेरित कर पक्का भवन खुद खड़े होकर बनाया, सुंदर वाटिका विकसित की, काँची की तरह यहाँ भी पढ़ाई के स्तर को सुधार दिया, स्कूल एक मिसाल बन गया.उनकी सर्वत्र प्रशंसा हुई, राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हुए. ऐसे श्री साहू आज रिटायर हो चुके हैं, सुबह सायकिल से दस किलोमीटर भ्रमण करते हैं, शारीरिक और मानसिक रूप से पूर्ण चाक चौबंद और सक्षम हैं. लेकिन शिक्षा विभाग उनके प्रति उदासीन है, ऐसे अनुभवी और प्रतिभासंपन्न व्यक्ति को यदि जोड़ा जा सकता तो सर्वशिक्षा अभियान में जान आ जाती. उनके जैसे राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित श्री मछेन्दर जी भी रिटायर होकर बैठे हैं, कोई इन अनुभवी शिक्षाविदों से सलाह भी नहीं लेता, इसी से पता लगता है कि ‘स्कूल चलें हम’ अभियान के प्रति हमारे अधिकारी कितने गंभीर हैं.
भले ही आजतक झारखंड सरकार की सारी योजनाएं या तो हवाई घोषणाओं तक ही सीमित रह गयीं, उनमें से कुछ धरातल पर उतरीं भी तो सिर्फ भ्रूण अवस्था से आगे नहीं बढ पायीं, फिरभी “स्कूल चलें हम” अभियान के माध्यम से सर्व शिक्षा का उद्देश्य पूरा हो, इसमें सरकार को सभी का सहयोग मिलना चाहिये.एक जागरूक नागरिक होने के नाते इस महत्वपूर्ण आवश्यक कार्य की सफलता में जो खतरे मुझे नजर आ रहे हैं, उनसे आगाह करना मैने अपना फर्ज समझा, कृपया इस लेख को अभियान की आलोचना समझने की गलती न करें. अभियान अच्छा है, बच्चे तो स्कूल जाएं ही, हम भी एक बार पुनः स्कूल चलें, वहाँ की स्थिति पढ़ने और सुधार के उपाय सुझाने.
पूर्वाग्रह से ग्रषित है लेखक
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