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सूचनाधिकार के रथ पर आयेगी जे. पी. की संपूर्ण-क्रांति

मैने व्यक्तिगत तौर पर कभी भी जे. पी. आंदोलन का समर्थन नहीं किया. इस आंदोलन का एकसूत्री प्रोग्राम था “इंदिरा को हटाओ”, और इसके लिये “संपूर्ण क्रांति” लाने का सपना दिखाया गया. लेकिन संपूर्ण क्रांति की कौन कहे, मामूली क्रांति भी नहीं आयी, उल्टे देश को जातिवाद और सांप्रदायिकता की आग में झोंकनेवाले नेताओं के हाथ जरूर मजबूत हुए और वे भी सत्तासीन हुए.
जे.पी. आंदोलन की सिर्फ एक बात मुझे पसंद आयी थी – जे.पी. ने आह्वान किया था -हर गली- मोहल्ले और गाँव- कस्बे में आम जनों की निगरानी समितियों का गठन करो जिनका काम होगा चुने हुए जनप्रतिनिधियों और सरकारी बाबुओं-पदाधिकारियों पर नजर रखना और उनके भ्रष्टाचार को उजागर करना. ये समितियाँ बनीं तो जरूर, लेकिन सिर्फ जुलूस, हड़ताल, धरने और बंद की हंगामा - राजनीति के लिये. जे. पी. के चेले सत्ता में आये, तो ये समितियाँ भी गायब हो गयीं.यदि निगरानी समितियाँ रहने दी जातीं तो अपने वर्तमान आकाओं की नाक में ही दम किये रहतीं. हर सरकारी स्कीम का लाभ ये समितियाँ भ्रष्ट अफसरों से छीनकर जरूरतमंदों तक पहुँचा सकती थीं, सरकारी दफ्तरों में जाकर पूछ सकती थीं कि अमुक व्यक्ति का काम क्यों नहीं हुआ, अमुक काम के लिये जो फंड आया, वह कहाँ गया, तालाब कागजों में ही क्यों खुदे रह गये, इंदिरा आवास का पैसा बी.डी.ओ., सी.ओ. और उनके कर्मचारी क्यों खा गये, वृद्धावस्था पेंशन के लिये बूढो को क्यों दौड़ाया जा रहा है, लाल कार्ड वालों को राशन क्यों नहीं मिलता.
आज भी इतने राजनैतिक दल हैं ,लेकिंन किसी को भी अकल नहीं कि गाँव गाँव में , मोहल्ले मोहल्ले में इस प्रकार की निगरानी समितियाँ बनाकर वे आम जनता के काम करवाकर जनता की आँखों के तारे बन जाएं, अगले चुनाव में उनकी पार्टी को वोट माँगना नहीं होगा, वोटों की बरसात होगी उनके उम्मीदवारों पर.वोट के लिये नोट,शराब और साड़ियाँ नहीं बांटनी होंगी. समझ में नहीं आता कि जनता का दिल जीतने का इतना ठोस तरीका कोई दल क्यों नहीं अपना रहा. कभी किसी पार्टी के कुछ स्थानीय युवक सरकारी अस्पताल में जाकर हुड़दंग मचा आते हैं, कभी निर्माण कार्य की गुणवत्ता पर प्रश्नचिह उठाकर ठेकेदार या इंजीनियर को पीट देते हैं, यह सब भी तब होता है जब उनके किसी नेता का व्यक्तिगत नुकसान हुआ हो, या किसी ने चंदा और लेवी देने से इंकार कर दिया हो.
जबतक सत्ता आम जन के हाथों में नहीं आयेगी, तबतक गाँधी के सपनों की आजादी नहीं आ सकती, जे.पी. की संपूर्ण क्रांति मृगमरीचिका ही बनी रहेगी. लेकिन इसके लिये सत्तालोलुप नेताओं से उम्मीद नहीं करनी चाहिये कि वे जनता के हाथों में सत्ता दे देंगे, पहले गाँधी के शिष्यों ने उन्हें निराश किया, फिर जे. पी. अपने चेलों के द्वारा छले गये. राजीव गाँधी ने पंचायती राज बिल पास करवाके सत्ता के विकेन्द्रीकरण का तीसरा बड़ा प्रयास किया, लेकिन पंचायत चुनावों में वर्तमान नेताओं ने अपने रिश्तेदारों को खडा कर सत्ता को उस स्तर पर भी अपनी रखैल बना लिया. उनकी भाभियाँ जीतीं, साढ़ू जीते, भाई- भतीजे- साले-सालियाँ तो पहले से ही जीतते रहे हैं. गनीमत है, उनके ध्यान में अपने कुत्ते- बिल्ली और गाय- भैंस नहीं, वरना उन्हे भी जितवा ही देते. सत्ता आम जन के हाथों में आते-आते रह गयी.
वर्तमान संप्रग. सरकार ने गत वर्ष सूचना का अधिकार विधेयक संसद में पारित कराके इसे कानून बनवा दिया. लगता है कि यह गलती से ही हो गया, क्योंकि कोई भी परिपक्व राजनैतिक दल इतना घातक हथियार जनता को देने की गलती कैसे कर सकता है. खैर अब तो इनसे गलती हो गयी और जनता के हाथों में ब्रम्हास्त्र आ गया, लेकिन जनता वर्तमान लचर प्रशासन एवं व्यवस्था से इतनी निराश है कि इसकी उपयोगिता नहीं समझ पा रही,उसे समझाना पड़ेगा. अच्छे जागरूक लोग आगे आएँ और इसका प्रयोग करके इसके परिणाम दिखाएँ. पढे लिखे लोग भी इसकी ताकत पर विश्वास नहीं कर पा रहे, सोचते हैं कि सूचना पाने की अर्जी लगा दी, फिर दफ्तरों में दौड़ने की फुरसत कहाँ.
स्वयंसेवी संस्थाओं को आगे आना होगा, समाज सेवा के नाम पर अनेक संस्थाएँ चारों ओर बिखरी पड़ी हैं, प्रभात खबर के 15 दिवसीय शिविर में सब आ रहे हैं, सबके नाम भी छप रहे हैं, जरूरत है कि ये संस्थाएँ कम से कम अपने सदस्यों को तो जगाएँ. अपने सदस्यों को प्रेरित करें कि वे अपनी अर्जी दें, उनकी संस्था अर्जियों को संबंधित कार्यालयों में पहुँचा देगी और बाद में की जाने वाली कार्यवाही का संधान भी लेती रहेगी. काम न होने पर संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही भी करेगी. वैसे तो “प्रभात खबर”का नारा ही है “अखबार नहीं आंदोलन है”, इसने सूचनाधिकार के लिये आम जनता में जागरुकता लाने का आंदोलन भी शुरू कर दिया है, विष्णु राजगढ़िया जी- जान से जुटे हैं, पूरा प्रभात खबर उनके साथ है. प्रबुद्ध नागरिकों का कर्तव्य है कि छोटे बड़े ,हर मामले में इसका प्रयोग कर इसके परिणाम अवश्य देखने चाहिये, परिणाम मिलने पर इसका प्रचार भी करना चाहिये, ताकि दूसरे लोग भी प्रेरित हों. परिणाम न मिले तो भी अखबारों के मंच से उसे उछालकर तमाशा देखना चाहिये. प्रभात खबर ने एक बहुत ही नेक और क्रांतिकारी कदम उठाया है,
बस दो चार मामलों में इसके परिणाम आने दीजिये, फिर देखिए कितना बड़ा तूफान आ जाता है जो पूरे झारखंड के भ्रष्ट अधिकारियों को हिला कर रख देगा. हरएक की शिकायत रहती है कि सरकारी दफ्तरों में काम ही नही होता, लोग बैठे रहते हैं, फाइलें घोंघे की चाल से टेबुल- टेबुल खिसकती हैं. हर टेबुल पर सिर्फ रिश्वत पाने की अपेक्षा रहती है. यदि सूचनाधिकार कानून के अंतर्गत हजारों अर्जियों की बाढ़ दफ्तरों में आ जाए और सिर्फ दो- चार अफसरों पर जुर्माना लग जाए, तो फाइलों को स्वतः पंख लग जाएंगे. दूसरे राज्यों के उदाहरण सामने हैं. गाँवों में काम कर रही स्वयंसेवी संस्थाओं को तो इस अधिकार ने सहस्त्रबाहु बना दिया है, वे इसका रोजमर्रे की समस्याओं में इस्तेमाल कर गाँवों में समृद्धि ला सकती हैं
बुद्धिजीवियों के हाथों में भी यह बहुत बड़ा हथियार आ गया है, अब वे अपने ड्राइंग रूम में ही बैठकर बिना पसीना बहाए इस क्रांति में योगदान कर सकते हैं, उन्हें सिर्फ बैठकर प्रश्नों की सूची तैयार करनी है जिन्हें विभिन्न विभागों से पूछा जाएगा. यहीं पर उनके ज्ञान और अनुभव की परीक्षा होगी, कुछ ऐसे प्रश्न निकलेंगे जो पूरी व्यव्स्था को ही बदल देंगे.लेकिन जरूरी है कि आम आदमी राशन कार्ड, पासपोर्ट, जाति- प्रमाणपत्र, पेंशन- राशि, प्रोविडेंट फंड का भुगतान, बिजली और गैस कनेक्शन जैसी अपनी छोटी छोटी समस्याओं के समाधान हेतु इसका प्रयोग करता रहे ताकि आंदोलन जारी रहे और अधिकाधिक लोग जागरुक होते रहें. सरकारी कामकाज में इसके कारण अड़चन हो रही है, समय बर्बाद हो रहा है, इस बहाने इस कानून को निरस्त करने की भी कोशिशें हो सकती हैं, बस जनता को सावधान रहना है, ऐसे किसी प्रयास के खिलाफ तुरंत गोलबंद होना होगा.
आइये शुभकामना करें कि यह आंदोलन अपनी मंजिल तक पहुँचे और सत्ता आम आदमी के हाथों में आ जाए. वही होगी सच्ची आजादी और वही होगी संपूर्ण क्रांति.

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