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Showing posts from March, 2009

संविधान की मूल भावना से दूर हटता आरक्षण का स्वरूप

भारत का मूल संविधान हर प्रदेश, क्षेत्र, धर्म, जाति, एवं समुदाय से आए लोगों के गहन विचार- मंथन के बाद निकला अमृतघट था जिसमें बार बार विभिन्न संशोधनॉं के विषाणुओं यानि वायरसों का प्रवेश कराया गया. संविधान की खास बात थी अनुसूचित जातियों के लिये 15% आरक्षण का प्रावधान करके पूर्वजों के पापों का प्रायश्चित करने की कोशिश. अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को जो आरक्षण मूल संविधान में दिया गया वह तो वाजिब था, पर संशोधनों के रास्ते आए सारे आरक्षण नाजायज और भविष्य में बड़े फसाद की जड़ हैं अनुसूचित जातियों में ऐसे लोग शामिल किये गये जो हजारॉ सालों से अछूत और निकृष्ट समझे जाते थे, जिन्हें गांव के सार्वजनिक कूओं से पानी तक भरने नहीं दिया जाता था, स्कूलों व मंदिरों में प्रवेश वर्जित था, जिनकी परछाईं भी छू जाने से लोग दुबारा नहाते थे लेकिन जिनकी कन्याओं और नवविवाहित बहुओं को रात में उठवा मंगाकर जबर्दस्ती भोगने में कोई ऐतराज नहीं होता था, जिनसे मारपीटकर बेगार कराया जाता था एवं तथाकथित उच्च जातिवालों के सामने बैठ जाना बहुत बड़ा गुनाह माना जाता था. शिक्षा एवं पूंजी के अभाव में वे इस नारकीय चक्रव्यूह...

विरोधाभासों के युग में जीने को अभिशप्त हम सब

प्राकृतिक चुनौतियों से हारना आदमी को कभी बर्दाश्त नहीं रहा, इसीलिये लगातार संघर्षकर उसने सुख और सुरक्षा के अनगिनत साधन जुटा दिये हैं, मनोरंजन की तो परिभाषा ही बदल दी है. बैठे- बैठे एक बटन दबाइये, मनचाहा मनोरंजन आपके सामने हाजिर है. आज के आदमी की क्षमता मशीनों की मदद से असीम हो गयी है, लेकिन इन सब सुख- सुविधाओं एवं उपलब्धियों की बहुत बड़ी कीमत उसे चुकानी पड़ी है. आज व्यक्ति के निजी जीवन में, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय जीवन में विरोधाभास ही विरोधाभास भर गया है. मेरे पास अंग्रेजी में एक ईमेल आया जिसमें आज के अनेक विरोधाभासों का बहुत सुंदर उल्लेख था, वाकई आज हम विरोधाभासों के युग में जी रहे हैं. शायद हम दोराहे पर खड़े हैं जहां एक ओर अंधविश्वास और धार्मिक कर्मकांडों की बेड़ियों को तोड़ नहीं पा रहे, दूसरी ओर वैज्ञानिक विचारधारा को भी पूरे मन से नहीं अपना पा रहे. हमारे पास उच्च शिक्षा की डिग्रियां अधिक हो गयी हैं, लेकिन कॉमन सेंस कम हो गया है. हमारा ज्ञान बढ़ गया है, पर विवेक कम हो गया है. आज अधिक उन्नत दवाएं हैं, लेकिन हम पहले से कम स्वस्थ हैं. हमने अपनी जिन्दगी में अनेक वर्...

नारायण गुरु ने कमाल कर दिया दक्षिण भारत में

लगभग सौ वर्ष पहले स्वामी विवेकानन्दजी को ट्रावनकोर और कोचीन (वर्तमान केरल राज्य) में कुछ दिन रहने का मौका मिला, वहां नीची जाति के लोगों पर हो रहे क्रूर अमानवीय अत्याचार को देखकर उनका दिल रो पडा और उन्होंने क्षुब्ध होकर पूरे क्षेत्र को ही पागलखाना घोषित कर दिया. उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि आदमी इतना निर्दयी भी हो सकता है. नीची जातिवालों के लिये मंदिर , विद्यालय और सार्वजनिक स्थलों में प्रवेश वर्जित था, कूओं का इस्तेमाल वे कर नहीं सकते थे. नीची जाति के मर्द और औरतों के लिये कमर से ऊपर कपडे पहनना एक बडा गुनाह था. गहने पहनने का तो सवाल ही नही था. इन्हें अछूत तो समझा जाता ही था, उनकी परछाइयों से भी लोग दूर रहते थे. बडे लोगों से कितनी दूर खडे होना है वह दूरी भी जातियों के आधार पर निर्धारित थी - 5फुट से 30 फुट तक . कुछ जातियों के लोगों को तो देख भर लेने से छूत लग जाती थी- वे लोग चलते समय जोर – जोर से चिल्लाते जाते थे –“ मेरे मालिकों, मै इधर ही आ रहा हूं, कृपया अपनी नजरें घुमा लें. ” विडंबना तो थी कि निम्न जातियां भी आपस में एक दूसरे को छोटा बडा समझती थीं और अपने से छोटी जातियों...

और, और, और ....माँगे आदमी !

पुराणों में एक विनोद कथा है. एकबार ब्रह्माजी ने घोषणा की कि सृष्टि के सभी लोग अपनी पसंद का एक एक पात्र लेकर आएं, वे जो कुछ भी मांगेगे उनके लाए हुए पात्र में पूरा भरकर दे दिया जाएगा. लोग अपनी -अपनी क्षमता के अनुरूप अलग- अलग पात्र लेकर आए. सभी के पात्र भर- भर कर उनकी इच्छित वस्तु ब्रह्मा ने दे दी. एक व्यक्ति कपड़े से ढंका हुआ छोटा सा पात्र लेकर आया था, ब्रह्मा अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद उसका पात्र भरने में सफल नहीं हुए, तब चकित होकर पात्र को देखने की इच्छा से उन्होंने कपड़ा हटाने को कहा. पात्र लानेवाला व्यक्ति कपड़ा हटाने को राजी नहीं, जब डाँट पड़ी तो उसने कपडा हटाया. कपड़े के अंदर से निकली आदमी की खोपड़ी. ब्रह्मा ने कहा कि मुझे तो पहले ही समझ जाना चाहिये था कि पूरी सृष्टि में आदमी ही ऐसा जीव है जिसकी सभी इच्छाएं कभी पूरी नहीं की जा सकतीं. उसकी “और, और ,और .. “ की रट कभी खत्म होने को ही नहीं. पूरी सृष्टि में आदमी से बड़ा याचक दूसरा नहीं. यही आदमी अधिक हास्यास्पद तो तब लगता है, जब वह भगवान को ही घूस देने का प्रस्ताव रखता है. मेरा यह काम हो जाए तो सवा मन प्रसाद चढ़ाऊं. ऐसा हो जाए तो मंदिर में शृ...

त्योहारों का बीजगणित और गरीबी का रेखागणित

मैंने सुबह सात बजे एक सज्जन को फोन किया, तो पता लगा कि टॉयलेट में हैं, आठ बजे किया तो पता चला कि पूजा पर बैठे हैं, नौ बजे भी पूजा पर ही, दस बजे भी पूजा पर ही. खिसियाकर मैंने उसके बाद कोशिश ही नहीं की. मेरे माध्यम से उन्हें एक लंबा फायदा होनेवाला था जो शायद उनकी जिन्दगी ही बदल देता, जिससे वे चूक गये. बाद में पता लगा कि अपनी विपन्नता से त्राण पाने के लिये वे नवरात्र के दौरान नौ दिन देवी-पाठ में लगे रहे. आज चार साल बाद भी वे उसी स्थिति में हैं जबकि हर साल दुर्गापूजा के समय वे इसी प्रकार विशेष रूप से दुर्गाजी की आराधना करते रहे. ऐसा कोई त्योहार नहीं है जो उनका परिवार धूमधाम से न मनाता हो. उनके जैसे अधिकांश लोग विपन्नता के इसी मकड़जाल में फंसे हैं. ऐसे लोग समझ ही नहीं पाते कि हर धार्मिक, पारिवारिक और सामाजिक उत्सव अमीरों के लिये तो मौज मस्ती और शान दिखाने का मौका लेकर आता है, लेकिन गरीबों के लिये कमर तोड़नेवाले खर्चों की नयी फेहरिश्त तैयार कर देता है. गरीबों का तो वैसे भी कोई बजट नहीं होता. आज कमाया आज ही खर्च हो गया, पूरा नहीं पड़ा तो कर्ज ले लिया. बच्चों के कपड़ों के लिये पैसे न हों, चल जाएगा...

डर है कि कहीं फिर से गुलाम न हो जाएं

पीछे चलने की जगह साथ-साथ क्यों न चलें? वर्ष 1947 से इन्दिराजी के काल तक हमारी पॉलिसी थी, जिन वस्तुओं का आयात किया जा रहा है, उन्हें बनाने की टेक्नॉलॉजी यहीं पर विकसित की जाए, इस तरह के इंपोर्ट सब्स्टीच्युशन पर सरकार प्रोत्साहन के तौर पर वित्तीय सहायता एवं पुरस्कार भी देती थी. राजीव गांधी ने कहा कि हमें वस्तुओं के आयात के साथ उन्हें बनाने की टेक्नॉलॉजी का भी आयात करना चाहिये, अपने यहां टेक्नॉलॉजी विकसित करने के चक्कर में हम पीछे रह जाते हैं. जब तक हम उन्नत देशों के पुराने स्तर पर पहुंचते हैं वे हमसे काफी आगे निकल जाते हैं. बी एच.यू के सेरेमिक्स डिपार्टमेंट के एक प्रोफेसर से मेरी बातें हो रही थीं. उन्होंने एक घटना का जिक्र करते हुए बताया कि एक प्रकार के सेरेमिक मैटीरियल का बहुत ऊंचे दाम पर आयात किया जा रहा था, उसे बनाने की टेक्नॉलॉजी उनके विभाग में विकसित की गयी. जैसे ही उसके उत्पादन की तैयारी होने लगी, उस विदेशी कंपनी ने दाम इतने गिरा दिये कि यहां बनाना घाटे का सौदा हो गया. इस बीच में उस कंपनी ने अपनी टेक्नॉलॉजी को अधिक उन्नत कर उत्पादन लागत बहुत कम कर लिया था. इंपोर्ट सब्स्टीच्युशन के...

“हर घड़ी शुभ घड़ी, हर वार शुभ वार”

रांची के हरमू स्थित श्मशान घाट का नाम ‘मुक्तिधाम’ है जिसे मारवाड़ी सहायक समिति ने बहुत सुंदर बनाया है, बारिश एवं धूप से चिताओं की सुरक्षा हेतु बड़े- बड़े शेड बने हैं, चिता बुझने का इंतजार करने वाले लोगों के लिये बैठने की आरामदायक व्यवस्था है, जिंदगी की क्षणभंगुरता को व्यक्त करते एवं धर्म से नाता जोड़ने की शिक्षा देते दोहे एवं उद्धरण जगह- जगह दीवारों पर लिखे हैं. हर तरह के लोग वहां जाते हैं, दोहे पढ़ते हैं, कुछ देर सोचते भी हैं, मुक्तिधाम से बाहर निकलते ही सब कुछ भूल जाते हैं. इन दोहों का असर दिमाग पर जीवन से भी अधिक क्षणभंगुर होता है.मुक्तिधाम में गुरु नानकदेव रचित एक दोहा मुझे बहुत अपील करता है- “हर घड़ी शुभ घड़ी, हर वार शुभ वार; नानक भद्रा तब लगे जब रूठे करतार.” पता नहीं दूसरे क्या समझते व सोचते हैं. आज से पचास साल पहले लोग यात्रा पर निकलने से पूर्व मुहूर्त दिखला लेते थे, जिस दिशा में जाना है, उधर उस दिन दिशाशूल तो नहीं, पता कर लेते थे. अमुक- अमुक दिन दाढी नहीं बनवानी, बाल एवं नाखून नहीं कटवाने, इसका भी कड़ाई से पालन करते थे. मूल नक्षत्र में कोई पैदा हो गया, तो अनिष्ट की आशंका दूर करने हेतु ...

रैगिंग का जिन्न कब वापस जाएगा बोतल में

हर वर्ष की तरह इस बार भी रैगिंग के कारण हुई मौतें मीडिया में उजागर हुईं तो पुनः रैगिंग की बुराइयों पर चर्चा चल पड़ी.एक लड़की को हेयर डाई पीनी पड़ी, अस्पताल में मौत से जूझ रही है. सैकड़ों घटनाओं की तो रिपोर्टिंग ही नहीं हो पाती. हर साल इंजीनियरिंग, एवं अन्य प्रोफेशनल कॉलेजों में जब नये छात्र प्रवेश करते हैं, तो पुराने सीनियर छात्र उन्हें नये माहौल में ढालने के नाम पर उनकी रैगिंग करते हैं. ये सीनियर छात्र अलग अलग ग्रुप में नये छात्रों को घेर कर ऊटपटांग सवाल करते हैं, ऊलजलूल हरकतें करवाते हैं. गालीगलौज और अश्लील बातें करके नये छात्रों को मानसिक और शारीरिक यंत्रणा देने में ही उन्हें आनंद आता है. अपने कपड़े साफ करवाना, झाड़ू दिलवाना, गर्म चाय एक घूंट में पिलाकर या लाल मिर्चें मुंह में ठूंसकर फ्रेशर की छटपटाहट पर ठहाके लगाना, चार-पांच घंटे बाथरूम के शॉवर के नीचे खड़ा रखना, रातभर जगाए रखना, आदेश न मानने पर कुहनी के बल रेतीले फर्श पर रेंगने की सजा देना- ये सब तो मामूली यंत्रणाएं हैं. हद तो तब हो जाती है जब नये छात्रों को चड्ढी बनियान तक उतारकर एकदम नंगा करवाया जाता है, हर वाक्य में “मां-बहन” को लपेट...

आदिवासी मुख्यमंत्रियों से बेहतर है राष्ट्रपति शासन ?

झारखंड राज्य के गठन के बाद नौ बार गणतंत्र दिवस समारोह का आयोजन किया जा चुका. आदिवासी बहुल इस क्षेत्र को अलग raajy बनाने के लिये बहुत लंबा आंदोलन चला, मान्यता यही थी कि खनिजसंपन्न इस क्षेत्र में आदिवासियों का सर्वांगीण विकास अपने अलग राज्य में ही उनके ही हाथों से हो सकता है. विगत आठ वर्षों में यहां भयंकर राजनैतिक उथल पुथल हुई, एक निर्दलीय भी मुख्यमंत्री बना, अन्य आदिवासी मंत्रियों ने भी भ्रष्टाचार की हुगली में नंगा स्नान किया, इनके एजेंडे में झारखंड या अदिवासियों के विकास की बात दूर -दूर तक नही रही, सब ने मिलकर इतनी छीछालेदर कर दी कि राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा. राज्य-गठन के आठ वर्षों में झारखंड में चार मुख्य मंत्री हुए, चारों आदिवासी, अधिकांश मंत्री भी आदिवासी ही रहे, काबिल या नाकाबिल होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, बस आदिवासी होने का ठप्पा होना चाहिये. वैसे तो ऐसा कोई कानून नहीं है, केवल आदिवासियों के तुष्टिकरण के लिये यह प्रथा चल पडी है.झारखंड गठन के प्रथम दिवस से ही हम एक गलत सोच के शिकार हैं कि आदिवासी ही आदिवासियों की समस्याओं को समझकर उनका निदान निकाल सकते हैं. झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्य...

सरकारी स्कूलों की बदहाली के लिये केवल शिक्षक जिम्मेदार

आज सरकारी स्कूलों में फीस नहीं लगती, किताबें मुफ्त मिलती हैं, दोपहर को खाना मिलता है और सभी दलित वर्ग के बच्चों को वार्षिक वजीफा भी मिलता है, फिरभी इन स्कूलों में बहुत कम बच्चे आते हैं. उन्हें लाने के लिये अभियान चलाया जा रहा है, उत्सव जैसा माहौल बनाया जा रहा है जिसमें पूरी सरकारी मशीनरी लगी है, नेता और अभिनेता लगे हैं, मंत्री और स्टार खिलाड़ी लगे हैं. पकड़ पकड़ कर बच्चों का नामांकन कराया जा रहा है. सप्ताह भर के इस उत्सव के बाद क्या ये बच्चे स्कूलों में टिकेंगे? पिछले बीस सालों में सरकारी स्कूलों ने सिर्फ बदनामी ही कमाई है, शिक्षा पर बहुत कम खर्च किया गया, जो भी धनराशि आयी वह निकम्मे शिक्षकों और शिक्षा पदाधिकारियों को तनख्वाह देने पर खर्च हो गयी, स्कूलों को तो ब्लैक बोर्ड ठीक करने और खल्ली खरीदने के लिये भी पैसे नहीं मिलते थे. भवन जर्जर हो रहे थे, छतें चू रही थीं, पेड़ों के नीचे कक्षाएं चलती थीं. भला हो वर्ल्ड बैंक का जिसने विगत पांच वर्षों में शिक्षा परियोजनाओं के नाम पर अरबों रुपए दिये तो स्कूलों में कुछ फर्नीचर आया, भवनों की मरम्मत हुई, नये कमरे बने, किताबें बँटीं, लेकिन फिरभी स्कूलों म...