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आखिर कितना बडा अपराध कर दिया रवि राज ने ?

सुनहले भविष्य का सपना आंखों में संजोए 21 वर्ष का होनहार कस्बाई युवा रवि राज शिकार हो गया है बचकानी गफलत का, क्रूर मीडिआ ने उसे कुछ इस प्रकार बार- बार पेश किया है जैसा किसी आतंकवादी को भी नहीं किया जाता. उसके सिर पर कपडा डालकर चारों ओर से उसे घेरकर ढेर सारे पुलिस के जवान कोर्ट में पेश करने के लिये ले जा रहे हैं – दिन में पचास बार इसी दृश्य को दिखलाकर क्या मकसद पूरा हुआ ? कोर्ट में उसपर मुकदमा चलेगा, लंबा भी खिंच सकता है, उसे कुछ होने का नहीं, छूट जायेगा क्योंकि उसने ऐसा कोई अपराध किया ही नहीं. लेकिन शायद पुलिस और मीडिआ का यह व्यवहार उस होनहार लडके को हमेशा के लिये नॉर्मल जिन्दगी से दूर कर दे, लडका डिप्रेशन में भी जा सकता है, आत्महत्या कर सकता है या फिर स्थायी रूप से अपराधों की दुनिया में जा सकता है. एक तरफ तो तिहाड जेल में शातिर अपराधियों को सुधारने के प्रोग्राम चलाये जाते हैं, दूसरी ओर सस्ती सनसनी के लिये इतने नाजुक मामले को पुलिस और मीडिआ इतने क्रूर और नासमझ तरीके से हैंडिल करती है और पूरा देश चस्के लेता है. जो कुछ भी इंटरनेट पर सर्वसुलभ था, उसकी सी. डी. बनाकर उसने बाजी डॉटकॉम पर बे...
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समरेश सिंह ध्यान दें! इंजीनियरिंग छात्रों का भविष्य खतरे में

बिहार के इंजीनियरिंग कॉलेजों व दूसरे राज्यों के कॉलेजों में बिहार के छात्रों के लिए आवंटित सीटों के लिए हर वर्ष राज्य स्तरीय संयुक्त प्रवेश प्रतियोगिता आयोजित की जाती है. बिहार सरकार की जो समिति इसका आयोजन करती है, उसने लगातार अपनी अक्षमता व भ्रष्टाचार का परिचय दिया है. प्रश्न पत्रों के लीक होने का मामला तो आम बात है. मंत्रियों, अफसरों व उनके चमचों के अयोग्य बच्चों को बैकडोर से चयनित छात्रों की सूची में ऊपर के स्थान दे देने का मेधा घोटाला भी साथ में जुड़ गया है. गत वर्ष विभिन्न कारणों से इस प्रवेश परीक्षा की तिथियों को तीन-चार बार स्थगित किया गया और परीक्षा अक्तूबर-नवम्बर में आयोजित की गयी. बिहार के बाहर से क्षेत्रीय कॉलेजों में जुलाई में ही सत्र प्रारम्भ हो चुके थे. जब बिहार के कोटे से इन कॉलेजों में छात्र पहुंचे, तब तक पहले सेमेस्टर की पढ़ाई पूरी हो चुकी और परीक्षा की तैयारियां चल रही थी. बिहार के छात्रों की दयनीय स्थिति पर और क्या कहा जा सकता है. 12 राज्यों में एक-एक क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेज है. आइ.आइ.टी. में प्रवेश न मिल पाने या मनपसंद ब्रांच न मिलने पर रूढ़की, पिलानी व मेसरा आदि क...

सरकारी स्कूलों की बदहाली के लिये केवल शिक्षक जिम्मेदार

आज सरकारी स्कूलों में फीस नहीं लगती, किताबें मुफ्त मिलती हैं, दोपहर को खाना मिलता है और सभी दलित वर्ग के बच्चों को वार्षिक वजीफा भी मिलता है, फिरभी इन स्कूलों में बहुत कम बच्चे आते हैं. उन्हें लाने के लिये अभियान चलाया जा रहा है, उत्सव जैसा माहौल बनाया जा रहा है जिसमें पूरी सरकारी मशीनरी लगी है, नेता और अभिनेता लगे हैं, मंत्री और स्टार खिलाड़ी लगे हैं. पकड़ पकड़ कर बच्चों का नामांकन कराया जा रहा है. सप्ताह भर के इस उत्सव के बाद क्या ये बच्चे स्कूलों में टिकेंगे? पिछले बीस सालों में सरकारी स्कूलों ने सिर्फ बदनामी ही कमाई है, शिक्षा पर बहुत कम खर्च किया गया, जो भी धनराशि आयी वह निकम्मे शिक्षकों और शिक्षा पदाधिकारियों को तनख्वाह देने पर खर्च हो गयी, स्कूलों को तो ब्लैक बोर्ड ठीक करने और खल्ली खरीदने के लिये भी पैसे नहीं मिलते थे. भवन जर्जर हो रहे थे, छतें चू रही थीं, पेड़ों के नीचे कक्षाएं चलती थीं. भला हो वर्ल्ड बैंक का जिसने विगत पांच वर्षों में शिक्षा परियोजनाओं के नाम पर अरबों रुपए दिये तो स्कूलों में कुछ फर्नीचर आया, भवनों की मरम्मत हुई, नये कमरे बने, किताबें बँटीं, लेकिन फिरभी स्कूलों म...

भारत में तकनीकी शिक्षा गंभीर रूप से बीमार है

आज जब आइ आइ टी से निकले इंजीनियरों को लेने के लिये बडी बडी कंपनियाँ लाइन लगा कर खडी रह्ती हों, विश्व में भारतीय इंजीनियरों का डंका बज रहा हो , तब यह कहना कि अधिकांश भारतीय इंजीनियर दोयम दर्जे के ही हैं अटपटा लगेगा और ऐसी कोई भी बात पचाना मुश्किल होगा. लेकिन यह सही है कि आइ आइ टी एवं अन्य भारतीय कॉलेजों से निकले 80% इंजीनियरों में व्यावहारिक ज्ञान तो होता नहीं, उसे मेक अप करने वाली तकनीकी अभिरुचि का भी अभाव होता है. यहाँ यह प्रश्न उठता है कि ऐसी हालत में यहाँ इतने कारखाने कैसे चल रहे हैं, भारत इतनी औद्योगिक प्रगति कैसे कर रहा है. वास्तव में इन कारखानो को चलाने में वहाँ काम कर रहे अनुभवी कुशल कामगारों का अधिक हाथ होता है, वे पीढी दर पीढी एक ही काम करते करते उस काम में दक्ष हो जाते हैं, इन्हीं में से कुछ के अन्दर जन्मजात तकनीकी अभिरूचि होती है और वे किसी भी प्रकार की तकनीकी समस्या पैदा होने पर उसका समाधान निकालकर सबको चकित कर देते हैं जबकि वहाँ उपस्थित बडे बडे इंजीनियर सिर खुजलाते रह जाते हैं. अधिकांश इंजीनियर अभिरुचि के अभाव में सिर्फ वहाँ के मैनेजर , जनरल मैनेजर और चीफ जनरल मैनेजर ब...

डॉक्टर महसूस करें कि वे देश और समाज के कर्जदार हैं

औसतन 67,000 भारतीयों के लिये मात्र एक अच्छा डॉक्टर ? आज भारत में औसतन 67,000 लोगों के इलाज के लिये एक अच्छा डॉक्टर है, ऐसे सारे डॉक्टर सिर्फ मेट्रो शहरों में हैं, राँची जैसे बड़े शहरों के गंभीर मरीजों को भी वेल्लोर या मेट्रो शहरों की दौड़ लगानी पड़ती है. आखिर क्या गुनाह किया है भारत की जनता ने कि अच्छे डॉक्टरों की कमी के बावजूद मेडिकल कॉलेजों में सीटें नहीं बढ़ाई जा रहीं. कहीं डॉक्टरों के द्वारा अपना भाव बढ़ाकर बनाए रखने का षडयंत्र तो नहीं है? अमेरिका की आबादी तीस करोड़ और भारत की सौ करोड़, वहाँ के सात सर्वोत्तम मेडिकल कॉलेजों में हर वर्ष 3862 छात्र एडमिशन लेते हैं और भारत के सात सर्वोत्तम मेडिकल कॉलेजों में प्रति वर्ष सभी को मिलाकर सिर्फ 539 को प्रवेश मिलता है. अमेरिका में कुल मेडिकल कॉलेजों की संख्या 128 है जबकि भारत में कुल मेडिकल कॉलेज हैं 450. अमेरिका में प्रति मेडिकल कॉलेज सीटों की संख्या 534 है और यही संख्या भारत में है मात्र 67. अमेरिका में शुद्ध स्वच्छ हवा- पानी एवं वातावरण होने के कारण कम लोग बीमार पड़ते हैं, फिरभी सभी का स्वास्थ्य- बीमा है, अच्छे अस्पतालों में अच्छे डॉक्टरों से सभी ...

अब बन्द होना चाहिये लॉर्ड मैकॉले को गालियाँ देने का सिलसिला

171 साल पूर्व मैकॉले ने अँग्रेजी भाषा के माध्यम से हिन्दुस्तानियों को शिक्षा देने की नीति का मसौदा बनाया और उसे लागू कराया. उन्होंने गहन अध्ययन एवं चिंतन के बाद ही यह शिक्षा नीति बनायी थी, इसके उद्देश्यों को स्पष्ट शब्दों में परिभाषित करते हुए उन्होंने हिन्दुस्तानियों की तरक्की पर इसके दूरगामी प्रभावों की स्पष्ट भविष्यवाणी की थी, ब्रिटिश साम्राज्य के हिमायतियों ने उनकी नीति का विरोध करते हुए अंदेशा व्यक्त किया था कि हिन्दुस्तानियों को अँग्रेजी भाषा पढाकर उन्हें आधुनिकता के संपर्क में आने का अवसर देना साम्राज्य के लिये ही आत्मघातक कदम साबित होगा. लेकिन मैकॉले करोंडों की विशाल आबादी को आधुनिक ज्ञान से वंचित रखना मानवता की मूल भावना के खिलाफ समझते थे, इसीलिये उन्होंने अपने ही देशवासियों के तमाम विरोधों को झेलते हुए भी अपनी शिक्षा नीति को हिन्दुस्तान में लागू कर ही दिया. उनके उद्देश्यों को जाने बिना, उनके मसौदे को पढ़े बिना हम एक वाक्य में उनके सद्प्रयासों को खारिज कर देते हैं कि मैकॉले ने ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूत एवं चिरस्थाई बनाने के लिये ऐसी शिक्षा नीति बनाई जो साल दर साल अँग्रेजी लिखन...

किसने तोडा बेहतर राँची का सपना ?

किसी भी राजधानी की अपनी जरूरतें होती हैं, पूरे राज्य का प्रशासन वहीं से होता है, नीतियां वहीं बनती हैं, सारे मंत्रालय और सचिवालय वहीं होते हैं, बडी बडी कंपनियों के दफ्तर वहीं होते हैं, राज्य के दूसरे जिलों से अपना काम लेकर आने वालों की भीड दिन में तो बेइन्तिहा बढती ही है और रात में भी रुककर दूसरे दिन काम करने वालों की संख्या काफी होती है. राजधानी में दिन की इसी बढी आबादी के कारण आम नगरों से अधिक सशक्त सुविधाओं की जरूरत होती है. राजधानी की तुलना अन्य आम नगरों से नहीं की जा सकती. किसी भी राज्य की राजधानी में ही शिक्षा एवं स्वास्थ्य की बेहतरीन सुविधाएं अपेक्षित रहती हैं. इतने बड़े-बड़े कार्यालयों में सारे काम सुचारू रूप से चलें , इसी के लिये जरूरी है कि राजधानी में बिजली, पानी, सडकें, ट्रैफिक, विधि-व्यवस्था, अस्पताल, साहित्य-कला-संस्कृति-संगीत, स्कूल-कॉलेज, खेल-कूद, और मनोरंजन आदि की सुविधाएं उच्च स्तर की हों. रांची का राजधानी के रूप में विकास की कौन कहे, इसका तो सामान्य नगर के रूप में भी विकास अभी तक प्रतीक्षित है. ग्रेटर रांची, रिंग रोड और फ्लाइ ओवरों के शिगूफे टांय टांय फिस्स हो गये, ट्र...